Monday, March 7, 2022

सीख रही हूँ

कितनी खुशनुमा होती हैं वो सुबहें जब आँख खुले और इनबॉक्स पाठकों के प्यार से इतराता हुआ मिले. ढेर सारे ख़त, ढेर सारा प्यार. यही अमानत है.
 
अपनी ही राख से फिर-फिर उगना
उगाती रही जो फसलें जतन से
उन फसलों को काटना भी खुद
और मोल तोल कर दाम भी लेना
सीख रही हूँ
 
लज्जा, विनम्रता, सहनशीलता के जो गहने
लाद दिए थे न मुझ पर
उनके बोझ से मुक्ति पाकर
आज़ादी की सांसें लेना
अपने लिए खुद ही रास्ते चुनना
उन पर सरपट भागते फिरना
ठोकर खाना, उठना, फिर चलना
सीख रही हूँ

मिसेज फलां-फलां वाली पट्टी को
झाड़ पोंछकर
अपने नाम को सजाकर लिखना
बच्चों के दस्तावेजों में
एक तुम्हारे नाम की खातिर
तुम संग रहने, हर पल सहने
से बाहर आना सीख रही हूँ

तुम्हारी कहानियों, कविताओं,
उपन्यासों की नायिका बनकर
बहुत रह चुकी, ऊब चुकी
अब खुद की रचनाओं की
नायिका बनना
अपने लिखे पर अपने ही
हस्ताक्षर करना सीख रही हूँ

अपनी सुबहों, अपनी शामों को
अपने ही नाम करना
खुद संग जीना, खुद संग रहना
सूरज की किरनों को ओढ़ देर तक
समन्दर की लहरों को तकना सीख रही हूँ...

(आज के दैनिक जागरण में प्रकाशित)

7 comments:

Kamini Sinha said...

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-3-22) को "महिला दिवस-मौखिक जोड़-घटाव" (चर्चा अंक 4363)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा

मन की वीणा said...

शानदार सृजन।
महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

Anuradha chauhan said...

बेहतरीन रचना।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

वाह वाह , ठोकर खाते गिरते उठते सीखना ही जीवन का चिह्न हैं . बहुत सुन्दर कविता

Meena sharma said...

अब खुद की रचनाओं की
नायिका बनना
अपने लिखे पर अपने ही
हस्ताक्षर करना सीख रही हूँ...

Jyoti khare said...

सकारात्मक सोच की सुंदर और प्रभावी रचना

सादर

Onkar said...

बहुत ही बढ़िया