Wednesday, March 2, 2022

उदास समय और बदली हुई लड़ाइयाँ


- प्रतिभा कटियार
बहुत दिन हुए कि बहुत दिन नहीं हुए. ऐसा लगता है समय कहीं ठहरा हुआ है. फिर लगता है ठहरा ही रहता तो भी ठीक होता शायद. कभी-कभी समझ में नहीं आता दुःख है या उदासी. या दोनों ही हैं. हाँ, वही वजह जो होते हुए भी नहीं है. हिज़ाब का मुद्दा. अपनी भूमिका को तलाशती हूँ. क्या सोचती हूँ, क्या चाहती हूँ, किस तरफ हूँ. जाहिर है मैं किसी भी तरह की पर्देदारी की तरफ नहीं हूँ चाहे वो घूँघट हो नकाब. मैं किसी भी तरह के ऐसे परम्परागत पहनावे का समर्थन इसलिए नहीं करती क्योंकि उसे समाज ने ठीक माना है. जिसे जो पहनना है, जैसे रहना है यह नितांत निजी मसला है. लेकिन जैसे ही यह ‘निजी’ की बात आती है इसमें ढेर सारी कंडीशनिंग आ जाती है, ढेर सारा सामाजिक हिसाब-किताब, दबाव. और फिर वही बात कि हम नहीं जानते कि हमारी मर्जी बनकर जो हमारे भीतर है वो असल में समाज की पहले से सोची हुई तय की हुई बात है, व्यवहार है. तो इस लिहाज से हिजाब के समर्थन या न समर्थन की बात ही नहीं, जिसकी जो मर्जी हो वो पहने. लेकिन जिसकी मर्जी न हो उस पर कोई दबाव भी न बनाये.

अगर सच में कोई बदलाव चाहिए तो मर्जी को सच में उनकी ही मर्जी होने देना होगा. हम सब इसके शिकार हैं. हमारा पूरा आचरण, व्यवहार, खान-पान भाषा, बोली, लिबास, संस्कृति, त्योहार सब इसके दायरे में है. आज जब हिजाब को राजनैतिक उपयोग के लिए इस तरह चर्चा में लाया गया है तो उन सबके साथ ही पाती हूँ जो हिजाब पहनने को अपना हक मानती हैं. यह बिलकुल वैसा ही है जैसे सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर बात थी. तब भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं इन स्त्रियों के मंदिर में जाने की लड़ाई में साथ क्यों हूँ जबकि मेरी तो किसी मन्दिर-मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे में कोई आस्था है नहीं. बात वही सबके बराबर के हक की. लोकतांत्रिक व्यवहार की. हिजाब के खिलाफ जो हैं वो क्या घूँघट के खिलाफ भी हैं? वो क्या चूड़ियों और सिन्दूर के खिलाफ भी हैं. और क्यों होना है खिलाफ? समझ विकसित करनी है जिसके लिए शिक्षा की जरूरत पड़ेगी. शिक्षा जो बायस्ड न हो, अपनी मर्जी के मायने समझाए, सवाल करना, तर्क करना सिखाये.

फिर खुद पर हैरत होती है. क्या इतने बड़े राजनैतिक स्टंट का ऐसे मासूम सवालों से मुकाबला किया जा सकता है. होना तो यह था कि इल्म की रौशनी में हम सबको ऐसी तमाम रूढ़ियों, परम्पराओं से मुक्त होना था जिनका कोई अर्थ नहीं लेकिन हुआ यह कि उन्हीं रूढ़िगत ढांचों को जिन्हें गिराना था उनकी पैरवी करनी पड़ रही है कि भाई पहनने दो हिजाब, जाने दो मंदिर. कोई जरूरी नहीं कि जो हिजाब में है उसकी सोच स्वतंत्र न हो, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई जरूरी नहीं कि जो लिबास और जबान से मॉर्डन दिख रहा है वो विचारों में, सोच में भी मॉर्डन हो.

यही है असल राजनीति. हमारी लड़ाई ही बदल दे जो. हमारी खड़े होने की दिशा ही बदल दे. कि जब हमें एक-दूसरे को समझना हो. एक-दूसरे के दुःख पर मरहम रखना हो तब हम एक-दूसरे के प्रति नफरत से भर उठें.

रवीश कुमार ने अपनी एक पोस्ट में लिखा कि एक बच्ची का उनके पास मैसेज आया कि छात्रों के वाट्स्प समूह में वो शिक्षिका सांप्रदायिक भेदभाव वाले मैसेज फॉरवर्ड करती हैं. शिक्षिका हैं वो उन्हें तो इन दीवारों को तोड़ना था वो मजबूत कर रही हैं, नयी दीवारें खड़ी कर रही हैं. इन्हीं जैसे शिक्षकों के विद्यार्थी होंगे वो जो भगवा लहराते हुए हिज़ाब की खिलाफत कर रहे थे. दुःख होता है, उदासी होती है. कैसे हो गए हम, हमें ऐसा तो नहीं होना था.

हमारी लड़ाइयाँ तो कुछ और होनी थीं और उन्हें बना कुछ और दिया गया है. हम न लड़ें तब भी उन्हीं की जीत है और हम बदल दिए गए हालात में बदले हुए मुद्दों के लिए लड़ें तो भी जीत उन्हीं की है.

इस उदासी में एक ही उम्मीद है शिक्षा व शिक्षक. शिक्षकों को अपनी असल भूमिकाओं को समझना होगा, अपने व्यवहार, सोच और तरीकों को पलट-पलट कर देखना होगा कि कहीं, जाने-अनजाने वो ऐसा कोई व्यवहार तो नहीं कर रहे जो एक पूरी पीढ़ी को उलझा रहा हो.

शिक्षा सिर्फ मार्कशीट में दर्ज नम्बर भर नहीं होती वो होती है जीवन को देखने की दृष्टि, मनुष्य होने की संवेदना. क्या हममें वो है? इस प्रश्न पर हम सब पढ़े-लिखे लोगों को एकांत में सोचने की जरूरत है, वरना पब्लिक फोरम में तो सबसे ज्यादा असंवेदनशील लोगों ने अपने भाषणों से लोगों को खूब रुलाया है और तालियाँ बटोरी हैं.

6 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 4358 में दिया जाएगा | चर्चा मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों की हौसला अफजाई करेगी
धन्यवाद
दिलबाग

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....

http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

!

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर चिंतन मनन कराती प्रस्तुति
हार्दिक शुभकामनाएं!

Rohitas Ghorela said...

प्रतिभा जी आपका लेख तटस्थ है. ये सब निजी मामले हैं इन सब में राजनीती को नही आना था. हमारे असली मुद्दे कुछ और थे और हम लड़ किसी और बात पर रहे हैं.
Welcome to my New post- धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा

Anita said...

क्या आपको नहीं लगता हिजाब का मामला केवल कालेज के नियमों का पालन न करने के कारण उठा है, हर संस्था के ड्रेस कोड होते हैं जिनका पालन हर विद्यार्थी को करना चाहिए

मन की वीणा said...

चिंतन परक लेख, हर मुद्दे को राजनैतिक बाना पहनाकर तिल का ताड़ बनाना बस आम आदमी को पथभ्रष्ट करना है।
बहुत सुंदर लेख।