जब आँखें नींद से बोझिल होने लगती हैं ठीक उसी वक़्त नींद न जाने कहाँ चली जाती है. फिर उन सपनों को टटोलते हूँ जिन्हें असल में नींद में आना था. उन सपनों में एक सपना ऐसा भी है जिससे बचना चाहती हूँ. लेकिन जिससे बचना चाहते हैं हम वो सबसे ज्यादा सामने आ खड़ा होता है. उस अनचाहे सपने से मुंह चुराने की कोशिश में रात बीतती है और सुबह होते ही कोयल जान खाने लगती है.
बालकनी की खिड़की खोलते ही मंजरियों की ख़ुशबू घेर लेती है. पूरा शहर इस ख़ुशबू में डूबा है इन दिनों. इस ख़ुशबू में एक दीवानगी है, उम्मीद है. कुछ रोज में ये शाखें जो मंजरियों से लदी पड़ी हैं फलों के बोझ से झुकने लगेंगी. फिर शहर फलों की ख़ुशबू में डूब जाएगा.
इन सबके बीच मैं नींद तलाशते हुए कोयल से झगड़ा करुँगी.
उसे अपनी कशमकश की बाबत कुछ नहीं बताउंगी. किसी को नहीं बताउंगी कि मुझे किसी से कोई भाषण नहीं सुनना. हाँ, जानती हूँ कि जिदंगी एक ब्लाइंड टर्न पर है, उस पार न जाने क्या होगा की धुकधुकी, उदासी, उम्मीद सब मिलजुल कर मन का ऐसा कॉकटेल बना रहे हैं कि क्या कहूँ. सोचती हूँ, कहीं छुप जाऊं, दूर से देखूं खुद को. इस मोड़ के पार होने तक आँखें बंद किये रहूँ लेकिन आँखें बंद करने का ऑप्शन नहीं है. खुली आँखों से यह मोड़ पार करना है...उस पार क्या पता मीठी नींद हो, थोड़ी कम बेचैनी हो और हो कुछ ऐसा जिसे देख दिल कहे, अरे, यही...बस इसी की तो तलाश थी...
रात गुज़ारिश के 'ये तेरा ज़िक्र है या इत्र है' के साए में बीती और सुबह 'सौ ग्राम ज़िन्दगी' गुनगुना रही है.
मैं उम्मीद के काँधे पर सर टिकाये हूँ और कोयल कमबख्त जली जा रही है, कूके जा रही है...
मैं उम्मीद के काँधे पर सर टिकाये हूँ और कोयल कमबख्त जली जा रही है, कूके जा रही है...
https://www.youtube.com/watch?v=saH2Shlup1Q
4 comments:
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-3-22) को "क्या मिला परदेस जाके ?"' (चर्चा अंक 4384)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुन्दर
कोमल भावों से रची बसी सुंदर रचना, ज़िंदगी सदा ही इक मोड़ पर खड़ी होती है, हर कदम पर यहाँ चुनाव करना होता है
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
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