सुख की परत बहुत हल्की सी होती है. लेकिन बहुत आकर्षण होता है उसमें. हम खिंचे चले जाते हैं उसकी ओर. उसके भीतर गाढ़ा दुःख जमा होता है. वो दुःख हमारे साथ हो लेता है. हम उसके साथ हो लेते हैं. शुरू-शुरू में उस दुःख में भी सुख की ख़ुशबू मौजूद मिलती है. धीरे-धीरे वो ख़ुशबू विलीन होती जाती है. दुःख की अपनी ख़ुशबू उगने लगती है. हमें वो अच्छी लगने लगती है. हमें दुःख की आदत होने लगती है. तब भी जब हम उस दुःख से निकलना चाहते हैं अनजाने कहीं इच्छा रहती है कि वो दुःख हममें बचा रहे, चाहे थोड़ा सा ही. एक रोज एहसास होता है कि इस दुःख के बिना तो हमारा अस्तित्त्व ही नहीं रहा. इसके बिना हम रहेंगे कैसे, जियेंगे कैसे. फिर हम कंधे चौड़े करते हैं, खुद को दुःख से मुक्त करने के लिए तैयार करते हैं और एक रोज...
...एक रोज हम सच में दुःख से आज़ाद हो जाते हैं. अब न कोई इंतज़ार, न कोई पीड़ा न कोई मुक्ति की इच्छा. जीवन एकदम खाली हो जाता है. इतना खाली जिसकी न हमें आदत थी न अनुभव. खाली पड़े पेड़ों की शाखों की तरह इस उम्मीद में कि कोई कोंपल फूटेगी...
फिर हम उस दुःख की याद को याद करते हैं. वो याद नहीं आता, वो जा चुका है.
जब जीवन से सुख और दुःख दोनों जा चुके हों तब जीवन कितना मुश्किल होता है यह जीकर ही जाना जा सकता है. अब स्मृतियों को खुरचने से भी दुःख वापस नहीं आता...खाली आँखों में न कोई सपना, न कोई आंसू.
देह जैसे साँसों का बोझ ढो रही हो. कि सांस है तो जीने की जिम्मेदारी है जिसे सलीके से जीना है. जीना क्यों है लेकिन...इसका जवाब मिलता है कि मरना भी क्यों है आखिर. इस सबके बीच जीवन दूर कहीं मुस्कुरा रहा होता है. हमें सुख और दुःख के खेल में उलझाकर वो रामनारायण की टपरी पर चाय सुड़क रहा है.
कदम चाय की टपरी की ओर अनायास बढ़ने लगते हैं लेकिन रामनारायण की टपरी जिस क्षितिज पर है वहां पहुँचने की यात्रा अनवरत चलते जानी है...चाय की तलब असल में ज़िन्दगी की तलब है.
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