नेल पॉलिश देख ली. क्राइम मेरा जौनर नहीं है हालाँकि क्रिमिनल जस्टिस जैसी कुछ सीरीज देखी ही हैं. अगर यह मानव कौल की फिल्म न होती तो शायद मैं इसे देखने की सोचती भी नहीं. लेकिन अगर ऐसा होता तो सच में कुछ मिस कर देती. मानव कौल संभावनाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अभिनय करते हैं. एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी वाला चरित्र है उनका. अभिनय के इतने शेड्स हैं इसमें मानव के कि आप हैरत में पड़ते जायेंगे.
शुरू के 40 मिनट थोड़े कैजुअल से थे. लगा देखा जाना सा है कुछ. अर्जुन रामपाल अपने लुक्स के साथ डामिनेट करते हुए नजर आते हैं. अर्जुन को पर्दे पर देखना अच्छा लगता है दर्शकों को इसका निर्देशक का भरपूर अंदाजा था. फिर यह फिल्म सरककर मानव के पास आ जाती है और मानव इस पर मजबूत पकड़ बना लेते हैं. हिंसक दृश्यों से लेकर, रूमानी और मासूम दृश्यों तक की रचना में वो गहरे उतरते हैं.
अब आती हूँ उन सवालों पर जो इसे देखने के बाद बचे रह गये. पहला सवाल पहले दृश्य को लेकर है. अर्जुन रामपाल की गर्लफ्रेंड गुस्से में घर छोड़कर जा रही है और अर्जुन बेपरवाह निशाना साधने में लगे हैं. वो कहती है 'तुम स्वार्थी हो.' अर्जुन का जवाब, 'तुम्हें भी होना चाहिए.' बस इतनी सी बात के लिए उस दृश्य को रचा गया. तुम्हें भी होना चाहिए कहने वाले अर्जुन ग्रे शेड वाले हीरो हैं. ऐसे हीरो आसपास भी खूब नजर आते हैं और उनकी दीवानियाँ भी. तो सुनो लड़कियों....तुम्हारे हीरो ने क्या कहा. और जब तुम भी हो जाओगी स्वार्थी तो तुम्हारे लिए बहुत सारी भद्दी गालियाँ, जुमले हैं ही इनके पास. निर्देशक के मन में क्या था आखिर इस दृश्य की रचना के वक़्त यह मेरा सवाल है और यह सवाल पहली बार नहीं है.
फिल्म का दूसरा स्त्री किरदार है मधु का जो जज बने रचित कपूर की पत्नी हैं. मधु की वापसी सुंदर है लेकिन उनके किरदार पर और काम होना चाहिए था शायद. उन्हें बस नशे में धुत्त स्त्री का किरदार मिला है जो खूबसूरत है और अंत में जज साहब के 'न शक किया न भरोसा वाली थेरेपी से नशे की लत से बाहर निकल आती हैं. और वैसा ही जजमेंट करते समय जज साहब को करने को कहती हैं. काफी रेडीमेड सा लगा यह.
तीसरा स्त्री किरदार है कश्मीर की चारू रैना यानी समीरन कौर. उनके लिए करने को कुछ खास है नहीं इसलिए चंद सुंदर रूमानी दृश्यों का निर्माण करने के बाद वो आराम से मानव कौल में समा जाती हैं और मानव उन्हें बखूबी अपना लेते हैं.
एक स्त्री किरदार और है वकील अमित की पत्नी का जो पति पर भरोसा करने वाली आम मध्यमवर्गीय परिवार की स्त्री है जो होती तो है लेकिन अपनी कोई छाप नहीं छोड़ती न फिल्म में न जिन्दगी में. एक मारे गए बच्चों की माँ है जो सिर्फ फ्रेम और कहानी को जस्टिफाई करने के लिए सुबकती रहती है कोर्ट की बेंच पर और कभी-कभी कैमरा उधर भी घुमा दिया गया है. कहानी स्त्रियों की थी ही नहीं, जानती हूँ लेकिन शायद उम्मीद है कि कम से कम अब इस ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इन किरदारों को थोड़ा रैशनलाइज किया जाय.
'गुनहगार कौन है दिमाग या शरीर. शरीर तो एक यंत्र है उसे चलाने वाला तो दिमाग होता. शरीर हमेशा दिमाग की ही सुनता है.शरीर वही करता है जो दिमाग उससे करवाता है. इसलिए हम महज शरीर को गुनहगार या दोषी नहीं ठहरा सकते.' यह इस फिल्म का बेस है, केंद्र है. और यही इस समाज का भी केंद्र है. यह एक मजबूत राजनैतिक संवाद है. इसे सिर्फ फिल्म, मनोरंजन और सस्पेंस के तौर पर देखकर न भूल जाएँ, इस संवाद को लेकर फिल्म से बाहर निकलें. देखें, जो लोग जो कर रहे हैं, समर्थन, विरोध, गाली गलोज, हिंसा उनके दिमाग पर कौन सी चारू रैना या पौलिटिकल पार्टी का कब्जा है. तो सजा किसे देनी है, दोषी कौन है वो जो सामने खड़ा है हथियार लिए या वो जो ये सब खेल खेल रहा है लोगों के दिमाग में घुसकर.
देख चुकने के बाद जो बचा रह जाता है उसमें मेरी हमेशा ज्यादा दिलचस्पी रहती है. इन सवालों के साथ इस फिल्म के सीक्वल की भी गुंजाईश बनती नजर आई.
#नेलपालिश
#नेलपालिश
2 comments:
बहुत सुन्दर।
बधाई हो आपको।
सुन्दर समीक्षा
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