पक्की नींद के बाद आँखों को अगर भीगते हुए हरे का सुख मिल जाय तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता है. यह संभव हो पा रहा है क्योंकि यथार्थ से मुंह मोड़ने का अभ्यास कर रही हूँ. चेतन दिखते हुए चेतना को सुषुप्त रखने का अभ्यास कर रही हूँ. खुद को ठीक रखने के लिए देखो तो क्या क्या करना पडता है. यह ठीक होना नहीं विमुख होना है...यह अभ्यास ज्यादा दिन चल न सकेगा. चाहती हूँ यह अभ्यास व्यर्थ साबित हो लेकिन यह नींद बची रहे...ऐसा कैसे होगा...हो सकेगा क्या?
चेतना विहीन हुए बगैर सुकून की नींद आना कितना दुष्कर है इन दिनों किसी से छुपा है क्या. अख़बार छुपा देने से, न्यूज़ चैनल न देखने से सोशल मीडिया से दूर रहने से भी क्या होगा. यह तो आँख बंद करना है. बस इतना ही कि जब चीज़ें असहनीय होने लगे तो बीच बीच में आँखें मूँद लेनी चाहिए इससे सामना करने की शक्ति बढ़ती है शायद....
बात करने से हालात नहीं बदलते वो बदलते हैं उन्हें बदलने के प्रयासों से. आँखें मूंदना उपाय नहीं लेकिन कभी कभी आँखें मूंदने के सिवा कोई विकल्प ही नहीं बचता. यह आँखें मूंदना खुद को बचाये रखने के लिए है ऐसा कहकर खुद को बहलाती हूँ. फिर से बूंदों के आगे हथेलियाँ पसारे खड़ी हूँ...
2 comments:
नींद कोई ख़्वाब सी !
बहुत सुन्दर
Post a Comment