Sunday, August 30, 2020

कि तुम गए ही कहाँ...


विदा के वक़्त
जिस दरवाजे को पकड़ देर तक खड़े रहे थे
उस दरवाजे पर दर्ज हैं
तुम्हारी स्मृति के निशान

जिस कप में पी थी तुमने चाय
वो कप हर रोज लजाता है
मेरे होठों को छूने से पहले

सूर्यास्त की बेला में
लेकर हाथों में हाथ
जिन सड़कों पर चली थी तुम्हारे संग
वो सड़क अब भी गुनगुनाती है प्रेम गीत

सिगरेट पीने के वक्त ढूंढना माचिस
अब भी भटकता है हर माचिस के पास
तुम्हारे पास रहने की अपनी इच्छा को
सहेजती है माचिस मेरी तरह
जैसे बिना जले आग सहेजे रहती है
वो अपने मुहाने पर

तुम्हारी छूटी हुई घड़ी का वक्त
अब समूचा मेरा होकर मुस्कुराता है
और घड़ी मुस्कुराती है मेरी कलाई पर

चंपा के जिस पेड़ के नीचे
देर तक चूमा था तुमने
वो पेड़ भरा रहता है फूलों से

रात की सांवली कलाई पर
रातरानी की खुशबू यूँ लिपटी है
जैसे तुम्हारी बांह में लिपटी हो
मेरी बांह

वो जो देखते हुए सबसे चमकीला तारा
देखा था ख्वाब दूर कहीं संग जाने का
वो ख्वाब उस तारे के संग आकर
रोज टंक जाता है खिड़की पर

वो जो गया था उठकर उदास क़दमों से
वो कोई और ही था
कि तुम तो पूरे छूट गए हो.

6 comments:

ANHAD NAAD said...

प्रेम से भरी पंक्तियां !

Onkar said...

बहुत सुन्दर

Kamini Sinha said...

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01 -9 -2020 ) को "शासन को चलाती है सुरा" (चर्चा अंक 3810) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा

Anita said...

यादों में जो छूट जाता है वह प्रेम ही तो अपना होता है

SUJATA PRIYE said...

सुंदर रचना

ANHAD NAAD said...

बहुत खूबसूरत तस्वीरें हैं .