Saturday, November 11, 2017

करीब करीब सिंगल होती है दिलों से मिंगल



संवादों के इस शोर में, लोगों की इस भीड़ में कोई अकेलापन चुपके से छुपकर दिल में बैठा रहता है, अक्सर बेचैन करता है. जीवन में कोई कमी न होते हुए भी ‘कुछ कम’ सा लगता है. अपना ख्याल खुद ठीक से रख लेने के बावजूद कभी अपना ही ख्याल खुद रखने से जी ऊब भी जाता है. वीडियो चैटिंग, वाट्सअप मैसेज, इंटरनेट, दोस्त सब मिलकर भी इस ‘कुछ कम’ को पूर नहीं पाते. करीब करीब सिंगल उस ‘कुछ’ की तलाश में निकले दो अधेड़ युवाओं की कहानी है. जया और योगी यानी इरफ़ान और पार्वती.

योगी के बारे में फिल्म ज्यादा कुछ कहती नहीं हालाँकि योगी फिल्म में काफी कुछ कहते हैं. लेकिन जया के बहाने समाज के चरित्र की परतें खुलती हैं. दोस्त उनके अकेले होने का बिंदास फायदा उठाते हैं और पीछे उनका मजाक भी उड़ाते हैं. कभी उसे कोई बच्चों के साथ शौपिग के लिए भेजती है, कभी कोई बेबी सिटिंग के लिए पुकार लेती है. मित्र भाव से जया यह सब करती भी है लेकिन साथ ही अकेले होने को लेकर एक तानाकशी का रवैया भी महसूस करती रहती है. एक अकेली स्त्री किस तरह समाज के लिए स्टपनी की तरह समझी जाती है. जिसे हर कोई अपना काम निकालने के लिए कहीं भी इस्तेमाल करना चाहता है. और खूँटी समझकर उस पर अपनी सलाह टांगने के लिए. जिस दिन वो खूँटी होने से मना कर देती है स्टपनी होने से इंकार कर देती है उस दिन उस दिन इस समाज की शक्ल देखने लायक होती है.

फिल्म की नायिका जिन्दगी में जिन्दगी तलाश रही है लेकिन उदासी को ओढ़े नहीं फिर रही है. शिकायत का रंग उसकी जिन्दगी के रंग में घुला हुआ हो ऐसा भी नहीं है. वो विधवा है लेकिन वैधव्य की नियति में घिसट नही रही. उसने भीतर जिन्दगी सहेजी हुई है, जिन्दगी जीने की लालसा को खाद पानी दिया है लेकिन इस जीने की जिजीविषा में ‘कुछ भी’ ‘कैसा भी’ की हड़बड़ी नहीं है. एक एलिगेंस, एक ठहराव वो जीती है और इसी की तलाश में है.

एक रोज वो एक डेटिंग वेबसाईट पर लॉगिन करती है. एकदम से वीयर्ड कमेंट्स नमूदार होते हैं, जया हडबडा जाती है. लेकिन अगले रोज एक मैसेज मिलता है उसे जो उसे अलग सा लगता है. यहीं से शुरू होती है फिल्म. किसी कॉफ़ी शॉप का बिजनेस बढ़ाने के बहाने शुरू हुई मुलाकातें ट्रैवेल एजेंसी का बिजनेस बढ़ाने लगती हैं. डेटिंग वेबसाईट कितनी भरोसेमंद होती हैं पता नहीं लेकिन फिल्म उनके प्रति उदार है. योगी की तीन पुरानी प्रेमिकाओं से मिलने के बहाने दोनों निकल पड़ते हैं पहले ऋषिकेश, फिर अलवर और उसके बाद गंगटोक.

फिल्म एक साथ दो यात्राओं पर ले जाती है. रोजमर्रा की आपाधापी वाली जिन्दगी से दूर प्राकृतिक वादियों में नदियों की ठंडक, हवाओं की छुअन महसूस करते हुए भीतर तक एक असीम शान्ति से भरती जाती है जिसमें योगी का चुलबुला अंदाज़ अलग ही रंग भरता है. प्रेम का पता नहीं लेकिन दोनों साथ में अलग-अलग यात्राओं को जीने में कोई कसर नहीं छोड़ते खासकर जया.

फिल्म की कहानी और इस कहानी का कहन दोनों ही अलहदा है. वो जो अकेले होना है, फिल्म में उसका बिसूरना कहीं नहीं है, उसकी गहनता है. जो संवाद हैं वो अपने भीतर ढेर सारे अनकहे को सहेज रहे होते हैं. और वो जो ख़ामोशी है वो बहुत गहरे उतरती है. शब्दहीनता में कोई जादू गढ़ती. फिल्म दिल्ली, देहरादून, ऋषिकेश, अलवर, गंगटोक घुमाते हुए ले जाती है अपने ही भीतर कहीं. यह एक खूबसूरत प्रेम कहानी है जो असल में प्रेम की यात्रा है. बेहद अनछुए लम्हों को सहेजते हुए, अनकहे को उकेरते हुए.

किसी ताजा हवा के झोंके सी मालूम होती है यह फिल्म. सारे मौसम, सहरा, पहाड़, जंगल, फुहार सब महसूस होते हैं. योगी की शायरी के बीच सुनी जा सकती है वो खामोश कविता जिसे इंटरनेट पर पब्लिसिटी की दरकार नहीं है.

यह फिल्म असल में ख्वाबों पर यकीन करने की फिल्म है, जिन्दगी में आस्था बनाये रखने की फिल्म है. एक संवेदनशील और मौजूं विषय को सलीके से उठाया भी गया है और निभाया भी गया है जिसमें हास्य की मीठी फुहारें झरती रहती हैं. बस योगी के किरदार को थोड़ा बंद सा रखा गया है, मसलन एक स्त्री के अकेलेपन पर समाज के रवैये को तो दिखाया गया है लेकिन एक पुरुष किरदार के जरिये दूसरे पक्ष को भी सामने लाने का मौका जैसा गँवा दिया गया हो. या फिर योगी करते क्या हैं, 'मेरे पास बहुत पैसा है 'और पुरानी गर्लफ्रेंड द्वारा 'फटीचर'कहे जाने के बीच वो कहीं अटके हुए हैं जिसका भेद खुलता नहीं है.

फिल्म के कुछ दृश्य बेहद प्रभावी हैं. तारों भरे आसमान के नीचे नींद की गोद में लुढ़क जाना हो या नींद की गोलियों के असर में जया की पजेसिवनेस का उभरना या बात करते करते योगी का सो जाना. फिल्म का क्लाइमेक्स बिना किसी हड़बड़ी के अपने मुकाम तक पहुँचता है...एक रिदम में. वो रिदम फिल्म के अंतिम दृश्य के अनकहे संवाद तक बनी रहती है.

फिल्म की खूबसूरती को सिनेमेटोग्राफी ने खूब निखारा है. कुछ फ्रेम तो जेहन में ठहर से जाते हैं. फिल्म की एडिटिंग चुस्त है, एक भी दृश्य या संवाद बेवजह नहीं लगता. इरफ़ान हमेशा की तरह लाजवाब हैं जया के किरदार में पार्वती भी खूब खिली हैं. बिना किसी ‘आई लव यू’ के यह साफ सुथरी सी प्रेम कहानी दिल को छू लेती है. संगीत फिल्म को कॉम्प्लीमेंट करता है. खासकर वो जो था ख्वाब सा क्या कहें या जाने दें’ गाना जो सुनने में मधुर, मौजूं और प्रभावी पिक्चरजाइशेन बांधता है. फिल्म के संवाद काफी चुटीले और असरदार हैं.

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