Saturday, November 18, 2017

ख़्वाबों को थामे रहना सिखाती है 'तुम्हारी सुलू'


अगर आपके पास सपने नहीं हैं तो यकीनन कुछ भी नहीं हैं लेकिन अगर आपके पास सपने हैं और उन सपनों ने आपकी नींदें हराम कर रखी हैं, आप किसी भी कीमत पर अपने सपनों को पानी देना नहीं भूलते तो वही पूरा समाज, पूरा परिवार आपके खिलाफ खड़ा होने को आतुर होता है जो असल में पूरी जिन्दगी दूसरों के सपनों को पहले पोसता रहा और फिर जीने लगा. 'तुम्हारी सुलू' समाज और व्यक्ति के ऐसे ही बारीक़ धागों के उलझाव की ओर इशारा करती है.

फिल्म पूरी तरह से विद्या बालन और मानव कौल की है, विद्या अपने ख़ास अंदाज से एक मध्यवर्गीय स्त्री के सोये सपनों को झिन्झोडती हैं. मानव ने एक मध्यमवर्गीय पतियों के थोड़ा इम्प्रूव्ड वर्जन बनने की कोशिश करने और उसमे फेल होने की पीड़ा को बखूबी निभाया है .

सुलू असल में हर उस मध्मवर्गीय स्त्री की कहानी है जो पैसा कमाने के लिए काम नहीं करती यानी काम तो करती है लेकिन अनपेड.क्योंकि वो हाउसवाइफ है. वो दुनियावी सफलता के मीटर में फिट नहीं है लेकिन जिसकी आँखों में सपने बहुत हैं. इस मायने में सुलू थोड़ी अलग है कि उसने आम गृहिणियों की तरह खुद को रोजमर्रा की जिन्दगी को नियति मानकर सपने देखना और उनका पीछा करना नहीं छोड़ा है. वो हमेशा कुछ करने की खोज में लगी रहती है और अपने सपनों की ऊर्जा से भरी हुई है. हालाँकि उसे खुद भी यह स्पष्ट नहीं है कि उसके सपने हैं क्या लेकिन उसे यकीन है कि वो कर सकेगी. यही फिल्म की पंचलाइन है. बिलीव इन योर ड्रीम.

सुलू जिन्दगी के हर लम्हे को बेहद प्यार से अपनाती है, बेहद अपनेपन से. इसकी वजह पैसा कमाना नहीं है बल्कि कुछ करने की ख़ुशी को महसूस करना है. सुलू का पति अशोक उसके इन सपनों में उसका साथ भी देता है. दोनों की रूमानी कहानी खुशनुमा एहसासों से भरती है. बच्चे के स्कूल में मम्मियों की चम्मच नीबू की रेस हो या सोसायटी के कार्यक्रम या अन्य छोटे मोटे कम्पटीशन जीतना उसे सब खुश करता है. वो कहती भी है कि 'मैं हर चीज़ में बड़ी जल्दी खुश हो जाती हूँ.' लेकिन कहानी एक नाटकीय मोड़ लेती है और सुलू आरजे बन जाती है. पहली नौकरी, नाईट शिफ्ट, अच्छी सैलरी, शो का हिट होना, सुलू का स्टार बन जाना और शुरू होना घर में एक बार फिर 'अभिमान' फिल्म की कहानी का दोहराव. समाज, परिवार तो टांग अड़ाने की ताक में हमेशा रहता ही है अबकी बार हमेशा से मित्र रहे और प्रेम से भरे पति का ईगो भी आड़े आ ही गया. इसके बाद तमाम नाटकीय मोड़ लेते हुए कहानी आगे बढ़ती है.

सच कहें तो कहानी बहुत आगे बढ़ नहीं पाती है जिसकी गुंजाईश थी. कहानी में बहुत नयापन नहीं है इसके बावजूद फिल्म के संवाद, बीच बीच में मजबूत स्ट्रोक लगाते हैं. मानव और विद्या के अभिनय ने कहानी के कच्चेपन को जरूरत से ज्यादा संभाला है. निर्देशन एकदम चुस्त है, कहानी में घटनाएँ बहुत हैं, फिल्म तेजी से भागती है, कई जगह लगता है कि घटनाओं की भरमार महसूसने के आड़े आ रही है.

फिल्म का एक दृश्य है जब नायक की नौकरी छूटती है और वो बालकनी से जहाज उड़ाता है बेहद इंटेंस है. लेकिन जब तक रोयें खड़े होते, जब तक दर्शक नायक के भीतर के उद्वेलन के साथ रिश्ता बन पाते सीन कट हो जाता है. हालाँकि कुछ दृश्यों में इसकी गुंजाईश बरकरार भी रही है लेकिन वो दृश्य नायिका के हिस्से में ज्यादा आये हैं जैसे बच्चे के स्कूल में प्रिंसिपल द्वारा बच्चे के सस्पेंड होने की बात पर नायक का यह कहना कि 'अब वो ख्याल रखेगा बच्चे का' या फिल्म के परम नाटकीय क्लाइमेक्स में बच्चे के गायब होने और फिर मिलने पर नायिका द्वारा उसे भींच लेना.

फिल्म के कुछ दृश्य बेहद सशक्त बन पड़े हैं, जिसमें फिल्म के अंत में बच्चे को ढूंढते हुए स्टेशन पर बैठे नायक और नायिका. जहाँ नायक पर्स में रखे बच्चे के खत को नायिका से साझा करता है.

तुम्हारी सुलू खूब ख्वाब देखने, ख़्वाबों को सहेजने की, उन्हें पूरा करने के प्रयासों की फिल्म है. फिल्म का गीत 'रफू' बेहद खूबसूरत है. फिल्म मनोरंजन करती है, मैसेज भी देती है, सकारात्मकता से भरती भी है फिर भी कुछ कमी सी रह गयी लगती है. या कहानी पर और काम होना था या उस हड़बड़ी से बचना था शायद जहाँ सबकुछ ढाई घंटे में घोंट कर पिला देने की जिद हो.

फिल्म को देखना बनता है विद्या बालन और मानव कौल के अभिनय के लिए, मनोरंजन के लिये और अपने आस पास ख्वाब देख रहे लोगों को समझना सीखने के लिए उनको सम्मान देने के लिए भी.

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