तुम्हारा होना
जैसे चाय पीने की शदीद इच्छा होना
और घर में चायपत्ती का न होना
जैसे रास्तों पर दौड़ते जाने के इरादे से निकलना
और रास्तों के सीने पर टंगा होना बोर्ड
डेड इंड
जैसे बारिश में बेहिसाब भीगने की इच्छा
पर घोषित होना सूखा
जैसे एकांत की तलाश का जा मिलना
एक अनवरत् कोलाहल से
जैसे मृत्यु की कामना के बीच
बार-बार उगना जीवन की मजबूरियों का
तुम्हारा होना अक्सर 'हो' के बिना ही आता है
सिर्फ 'ना' बनकर रह जाता है...
6 comments:
निराशा ,ना उम्मीदी भी जीवन का एक अंग है और क्षणिक है l
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-12-2014) को "धर्म के रक्षको! मानवता के रक्षक बनो" (चर्चा-1826) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
किसी का ना होने जैसा होना बड़ा तड़पाता है ।
यही कशमकश इंसान की नियति है.
bahut hi umda ...gahre bhaaw
Nice Peom Pratibha ji, I read one of your article in Dainik Bahskar in first week of December sunday supplement. It was impressive.
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