Saturday, September 17, 2011

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला


पहाड़ों से टकराकर कुछ आवाजें इतनी खूबसूरत हो उठी थीं कि मानो धरती ने अपने पैरो में कोई पायल बाँध ली हो. यूँ दूरियां सिर्फ दिलों की ही होती हैं फिर भी कई बार हाथ छुड़ाने में दर्द का अहसास आ ही जाता है.  वो ऐसी ही एक शाम थी. आसमान बरस-बरस कर धरती में समाया जा रहा था...हम एक-दूसरे का हाथ थामे थे. मानो रात को रोके रखना चाहते हों. प्रेम को सहेजना आसान नहीं होता. मैं आँखें चुरा रही थी. मुझे याद है मेरी विदाई (शादी)  के वक़्त मेरी माँ भी ऐसे ही मुझसे आँख चुराती घूम रही थी. हम कम सामना कर रहे थे उन दिनों. जबकि मैं उनकी गोद में सर रखकर भरपूर रोना चाहती थी. आखिरी लम्हों में धीरज टूटा और ऐसा टूटा कि आज भी उन लम्हों कि छुवन सिसकियों से भर देती है. मैंने अरसे बाद ऐसा मासूम, निश्छल प्रेम अपनी कोरों पर अटकते हुए महसूस किया था. वो शदीद बारिश की नहीं, शदीद प्रेम की रात थी. संगीत से वो मुझे भर देना चाहते थे. मैं भी अंजुरी भर-भर के संगीत में घुला प्रेम पी रही थी. यूँ मेरी जान हर उस लम्हे में, हर उस व्यक्ति में बसती है जहाँ निश्छल प्रेम बसता है. लेकिन देहरादून में मिले इन बच्चों के असीम प्रेम को मैं हर रोज बूँद-बूँद किसी अमृत की तरह गटकती हूँ. बहादुर शाह ज़फर की ये ग़ज़ल उस रात आसिम ने मुझे सौगात में दी थी...उसे ईदी में देने के लिए मेरे पास ऐसी कोई सौगात नहीं थी...वो अब भी मुझे हर रोज याद करते हैं. मै हर रोज उन्हें दुआ देती हूँ उनके सपनो को विस्तार मिले और हकीकत की धरती भी.  ये ग़ज़ल तुम्हारे लिए लगा रही हूँ मेरे बच्चे आसिम . खुदा तुम्हे सलामत रखे...


लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में  
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में 

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला 
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले बहार में 

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें 
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में 

इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां 
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में 

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन 
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में  

दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई 
फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में  

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये 
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में 

- बहादुर शाह ज़फ़र

9 comments:

Rangnath Singh said...

इस गज़ल में शाह ने जान निकाल के रख दी है...अलसुबह इसे पढाने के लिए शुक्रिया...

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम का कोई परिमाण नहीं है, परिणाम सुखद है।

रश्मि प्रभा... said...

संगीत से वो मुझे भर देना चाहते थे. मैं भी अंजुरी भर-भर के संगीत में घुला प्रेम पी रही थी. यूँ मेरी जान हर उस लम्हे में, हर उस व्यक्ति में बसती है जहाँ निश्छल प्रेम बसता है. लेकिन देहरादून में मिले इन बच्चों के असीम प्रेम को मैं हर रोज बूँद-बूँद किसी अमृत की तरह गटकती हूँ. ... main mahsoos ker rahi hun

varsha said...

यूँ मेरी जान हर उस लम्हे में, हर उस व्यक्ति में बसती है जहाँ निश्छल प्रेम बसता है.....vaah!!!

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर

वैसे भी ये गजल कितनी बार भी क्यों ना सुन लें, लगता है कि पहली बार सुन रहे हैं।

vandana gupta said...

वाह ……………खूबसूरत्।

Swapnrang said...

सुबह कुमार गन्धर्व के निर्गुण से शाम शाह की शायरी से इससे बेहतर दिन नहीं हो सकता.

Smart Indian said...

हृदयस्पर्शी!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

पहाड़ों से टकराकर कुछ आवाजें इतनी खूबसूरत हो उठी थीं कि मानो धरती ने अपने पैरो में कोई पायल बाँध ली हो. ....
आपका कायात्मक लेखन मोह लेता है... और ज़फर साहब की ग़ज़ल.... वाह...
सादर आभार...