मित्र आलोक श्रीवास्तव की एक और कविता...
तुम्हारे पास आकाश था
मेरे पास एक टेकरी
तुम्हारे पास उड़ान थी
मेरे पास
सुनसान में हिलती पत्तियां
तुम जन्मी थीं हँसी के लिए
इस कठोर धरती पर
तुमने रोपीं
कोमल फूलों की बेलें
मैं देखता था
और सोचता था
बहुत पुराने दरख्तों की
एक दुनिया थी charon or
थके परिंदों वाली
शाम थी मेरे पास
कुछ धुनें थीं
मैं चाहता था की तुम उन्हें सुनो
मैं चाहता था की एक पूरी शाम तुम
थके परिंदों का
पेड़ पर लौटना देखो
मैं तुम्हें दिखाना चाहता था
अपने शहर की नदी में
धुंधलती रात दुखों से भरी एक दुनिया
मैं भूल गया था
तुम्हारी भी एक दुनिया है
जिसमे कई और नदियाँ हैं
कई और दरखत
कुछ दूसरे ही रंग
कुछ दूसरे ही स्वर
शायद कुछ दूसरे ही
दुःख भी।
2 comments:
Pratibha ji
Achchhee kavita! Ek doosare ki dunia ko log samajhane lagen, to aadhee samasyaye khatm ho jayen.
Vivek Bhatnagar
कविता के भाव पहचाने से लगे...!सबकी अपनी दुनिया और अपने दुःख हैं... निर्विवाद सत्य है यह!
सुंदर रचना पढवाने के लिए आभार!
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