Thursday, March 27, 2025

जब उदास होती हूँ


जब उदास होती हूँ
किसी नदी का हाथ थाम लेती हूँ
  
जब फफक कर रो पड़ने को होती हूँ 
किसी पेड़ को गले लगा लेती हूँ 

जब अन्याय की पराकाष्ठा होती है 
और मूर्खतापूर्ण बहसों का दौर शुरू होता है 
किसी मजदूर के पास बैठकर 
उसकी बीड़ी साझा करती हूँ।  

जब दुनिया नाउम्मीदी से भरने को होती है 
किसानों के साथ मिलकर 
उम्मीद के बीज बोने लगती हूँ 

जब नायक की विद्रूप हंसी भयभीत करती है 
बेहतर दुनिया के सपने देखने लगती हूँ 

जानती हूँ मेरे अकेले के बस का नही 
इस दुनिया को जीने लायक बना पाना 
फिर भी स्त्री हूँ, हार कैसे मानूँगी
इसलिए अपने हिस्से के काम 
और सुभीते से करने लगती हूँ...

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