
दुनियादारी और जिम्मेदारियों के बोझ से
बस झुकने को थे कांधे
आँखों के नीचे सदियों के रतजगे
कि तुम्हारे स्पर्श के फाहे
राहत बन उतर आए थे उन पर
आँखों के नीचे सदियों के रतजगे
अपनी स्थाई पैठ बनाने ही वाले थे
कि तुम्हारी पोरों की छुअन ने
उन्हें गुलाबी पंखुड़ियों में बदल दिया था
भागते-दौड़ते पैरों में उग आए छालों तले
तुमने अपनी हथेलियाँ रख दी थीं
और पीड़ा का सुर
प्रेम के सुर में ढलने लगा था
तुम जानते हो कि
स्त्री के दुख का उपाय सिर्फ प्रकृति के पास है
इसलिए हमेशा
तुम तोहफे में कभी नदी, कभी जंगल
कभी समंदर तो कभी तारों भरा आसमान भेजा करते
कोई दुख कैसे टिकता भला जब
सामने प्यार से भरा सागर हो
और साथ हो तुम्हारा प्रेम...
सूरज ने थोड़ा ओवरटाइम किया था उस रोज
और पंछी भी घर देर से लौटे थे।
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