झील में डुबकी लगाकर आई हवाओं में
कोई बेफिक्री तारी थी
देर रात की जाग
हवाओं की आँखों की चमक थी
उन्हें न सूरज से निस्बत
न पहाड़ से, न जंगल से
उन्हें बस हमारे करीब आना था
हम दोनों के बीच ही बैठना था
हम दोनों का हाथ थामना था
उन्हें हमारी सुबह की चाय में
किसी जादू सा घुल जाना था
वो जिद्दी हवाएँ थीं
सुबह बीत जाने के बाद भी
अपनी पूरी धज से इतरा रही हैं
उन जिद्दी हवाओं की खुशबू
रोज एक गीत लिखती है
कि दुनिया एक रोज
सबके जीने के लायक होगी
न कोई हिंसा होगी, न कोई नफरत
उन गीतों को
एक ख़्वाबिदा सी लड़की
रोज गुनगुनाती है
सूरज की किरणें उन गीतों को
लाड़ करती हैं
तुम मेरा माथा चूमते हो
और धरती आश्वस्ति की धुन पर
झूम उठती है।
3 comments:
दिलकश ...:)
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २५ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर सृजन।
बहुत सुंदर कविता
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