- मेघना
दो दिन हुये उपन्यास को आये पर कुछ था जो कह रहा था कि अभी नहीं, बाद में पढ़ना, क्योंकि इसके बाद शायद काफी कुछ सोचना पड़ेगा. अपनी छोटी सी नौकरी और उसके साथ वाली रिसर्च के छोटे से दायरे में सिमटा मेरा छोटा सा विश्व (जिसे मैं अक्सर "बबल" कहती हूँ, क्योंकि इसके बाहर क्या होता है, कभी-कभार ही पता चलता है) भी "आजकल कहाँ होता है ऐसा" वाली मान्यता के हैं। देर सबेर खुद को लिबरल भी कहला ही लेती हूँ। पर यह उपन्यास दिमाग के दरवाज़े ही नहीं खोलता, पर हथौड़े के माफिक वार कर सच्चाई के सामने खड़ा करता है...
अन्त आते आते अवसाद हुआ, रुलाई नहीं फूटी!! दो या तीन मिनटों बाद आँसू रिसे, जो मुश्किल से ज़ब्त हुये, एक नयी तैयारी के लिये।
फिलहाल जिस मन:स्थिति में हूँ, हर दिन एक नया दिन है! ये उपन्यास् एक शाम में पढ़ लेने वाला तो है, पर शायद एक बार में समझ आने वाला नहीं है!! मेरी; शायद हम सभी की कंडिशनिंग ऐसी ही है...
फिलहाल जिस मन:स्थिति में हूँ, हर दिन एक नया दिन है! ये उपन्यास् एक शाम में पढ़ लेने वाला तो है, पर शायद एक बार में समझ आने वाला नहीं है!! मेरी; शायद हम सभी की कंडिशनिंग ऐसी ही है...
ज़्यादा कुछ रिवील नहीं करना चाहती, (चूँकि चाहती हूँ कि प्रतिभा जी ने जिस तरह से एक thought process को गूंथा है, आप सभी भी उससे लाभान्वित हों) पर हां प्रतिभा जी ने अपने काफी सारे निशान इसमें चिन्हित किये हैं, सुबह, फूल, खुशबू, चाय और नदी... और क्या चाहिये?
प्रतिभा जी, मेरे जैसे लोगों के लिये हो चुके एक आम विषय (जो सिर्फ खबर हो गया है) को सतह पर लाने के लिये, हम सबको sensitize करने के लिये आपको साधुवाद!
(मेघना बिट्स पिलानी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)