Monday, August 25, 2025

संवेदनात्मक दृष्टि का परिचायक है उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है'


- ममता सिंह 
इस किताब को पढ़ते हुए कई पन्नों पर दृष्टि रुक गई,उन्हें दुबारा,तिबारा पढ़ा..गले में जैसे कुछ अटक सा गया..क्या था वह?

वह थी समाज की सच्चाई जिसे बड़ी चालाकी से यह कहकर टाल दिया जाता है कि अजी यह सब पिछले ज़माने की बातें हैं,अब कहां है जाति पांति की ऊंच नीच..अब तो सब बराबर हैं..जबकि हक़ीक़त में आज भी कोई बड़े से बड़ा अधिकारी हो या छोटे से छोटा कर्मचारी उसके आते ही पहले उसकी जाति देखी जाती है,प्रेम भी इससे अछूता नहीं होता(अपवादों की बात छोड़ दें तो)

प्रतिभा जी का यह उपन्यास महज मनोरंजन का विषय न होकर उनकी उस संवेदनात्मक दृष्टि का परिचायक है जो सामाजिक,आर्थिक,पारिवारिक समस्याओं की न केवल पड़ताल करती है बल्कि उसे हमारे सामने नग्न रूप में प्रस्तुत भी करती है जिससे हमें समाज की समता,समानता को लेकर बरती जा रहीं चालाकियों और क्षुद्रता के बारे में पता चलता है..इनके बीच में मुहब्बत एक ऐसी तरल तरंग के रूप में आती है जो हमें सुखांत कल्पना की ओर मोड़ती है किंतु इसका अंत यथार्थ के कठोर किंतु आत्मसम्मान पूर्ण धरातल पर होता है..

किताब की कुछ झलकियां
"कमलेश जी की नौकरी लग तो गई लेकिन जैसे अब तक ज़िन्दगी गले में अटकी रही, वैसी ही नौकरी भी अटक गई। बड़े बाबू शंखधर तिवारी और चपरासी विनोद श्रीवास्तव दोनों उन्हें साँस तक लेते देखकर खार खाते हों जैसे। विनोद का बर्ताव कमलेश जी के साथ वैसा ही था जैसे शीरे में डुबोकर कोई सुई चुभोए। तरीके ऐसे कि शब्दों पर जाएँ तो उन्होंने कुछ गलत कहा ही नहीं, 'अरे आप लोगों का जमाना है अब। हम लोग क्या हैं कीड़े-मकोड़े। देखिए कोई गलती-उलती हो जाए तो माफ कर दीजिएगा कमलेश बाबू। आप लोगों की बड़ी सुनी जाती है आजकल ।' या कोई जाति विरोधी वाट्सप फॉरवर्ड वीडियो को तेज आवाज़ में सुनना और मुस्कुराना।
कमलेश जी को सब समझ में आता है लेकिन वो चुप्पी को अपना एकमात्र हथियार बनाकर जीना सीख लिए हैं। उन्होंने मान लिया है कि सम्मान है ही कहाँ उनका। उनका जन्म अपमान सहने के लिए ही हुआ है। हालाँकि वो चाहते थे कि जो उन्होंने झेला वो उनके बच्चों को न झेलना पड़े। दलित राजनीति का हश्र जो भी हुआ हो लेकिन अरसे से वंचित, इस देश के एक बड़े वर्ग की आँखों में छोटे-छोटे सपने तो बोए ही हैं। हालाँकि अगड़ों की राजनीति उन इबारतों को मिटा देने पर भी आमादा है जहाँ दलित और पिछड़े वर्ग को जरा-सी राहत है। समानता-समानता की रट लगाकर गरीब सवर्णों को भी आरक्षण मिलना चाहिए का शोर मचानेवालो ये समझने को तैयार ही नहीं कि समता भी एक चीज होती है। उसके बिना समानता भी एक फरेब ही बनकर रह जाएगी। एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति एक मध्यवर्गीय दलित से हमेशा ऊँची रहती है, यह बात वे जानते हैं लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहते।
इन्हीं उलझावों के बीच कमलेश जी ने शिक्षा के महत्त्व को बखूबी समझ लिया था। उन्होंने अपने तीनों बच्चों को स्कूल पढ़ने भेजा। हालाँकि वो जानते थे कि इन बच्चों का जन्म गलत घर में हो गया है और इन्हें जीवन-भर अपमान तो सहना ही पड़ेगा। वो चाहते तो थे कि बच्चों को जातिगत अपमान न सहने पढ़ें लेकिन हक़ीक़त से भी वो वाक़िफ़ थे ही, इसलिए उनकी कोशिश होती कि बच्चों को अपमान सहने की आदत पड़ जाए।"

* * * *
"लड़ाई का सबका अपना तरीका होता है। मैं लड़ ही तो रही हूँ। मेरी पढ़ाई ही मेरी लड़ाई है। कुछ बन जाऊँगी तो बहुतों की आवाज बन पाऊँगी। वरना ऐसे ही गृह कलेश में जीवन बिताना पड़ेगा। तुझे एक बात बताऊँ, मुझे माँ-पापा किसी से शिकायत नहीं। उनसे क्या शिकायत करो, जो खुद विक्टिम हैं यार। मम्मी का बड़बड़ाना जिस दिन बन्द हो जाएगा न, माँ मर जाएगी। इसी बड़-बड़ में वो अपने भीतर की कड़वाहट को निकालती रहती है। मुझे तो लगता है ज्यादातर औरतों की बड़-बड़ में उनका फ्रस्टेशन ही निकल रहा होता है, जिसका लोग उपहास बनाते हैं।'
 
* * * *
"तुम अभी उस सवाल से तो नहीं जूझ रहे कहीं कि तुम्हारे प्रेम में सद्भाव ज़्यादा है?' कनिका ने अपने मोह के धागों को तोड़ते हुए तृप्ति और अनुभव पर फोकस किया।
'हरगिज नहीं। लेकिन देखो यह सवाल आया न तुम्हारे मन में। अगर मैं तुमसे प्यार करता तो भी क्या यह सवाल आता? नहीं न? बस यही लड़ाई है। बराबरी-बराबरी के शोर में ही कितनी गैर बराबरी है, यह हमें खुद ही नहीं पता चलता।' अनुभव एकदम स्पष्ट था। अपने भावों को लेकर भी और विचारों को लेकर भी।
'पता है कनिका ! जब मैं कॉलेज की डिबेट में इन मुद्दों पर बोलता था और जीतकर ट्रॉफी लेता था तो अन्दर से रुलाई फूटती थी। लोग हैं वो। हमने उन्हें, उनकी समस्याओं को मुद्दा बनाकर इस्तेमाल करना सीख लिया है, राजनीति में हो या कॉलेज की डिबेट में या एग्जाम में आनेवालो निबन्ध के विषय में क्या फर्क है।' आवाज़ बिखरने लगी थी अनुभव की और गला भर्राने लगा था।
'इतना भी मत परेशान हो यार, होगा एक दिन सब ठीक। हम मिलकर करेंगे न?' कनिका ने उसके कन्धे को धीरे से दबाते हुए आश्वस्ति देनी चाही।"

पुस्तक ...कबिरा सोई पीर है
लेखक ...प्रतिभा कटियार
प्रकाशक ...लोकभारती प्रकाशन
मूल्य ...299 रुपए

Sunday, August 10, 2025

पाठकों को बांधता है 'कबिरा सोई पीर है'


- केवल तिवारी 
जीवन रूपी रंगमंच में न जाने कितने किरदारों का हमें सामना करना पड़ता है। हम खुद भी तो अनेक तरह का नाटक करते हैं। लेकिन जब अच्छा होने का दंभ भरने वाला भी ‘नाटकबाज़’ निकले और सचमुच एक अच्छे इंसान को ग़लत साबित करने में दुनिया लग जाए, तो क्या हो? उपन्यास ‘कबिरा सोई पीर है’ में ऐसे ही ताने-बाने की बुनावट है। लेखिका हैं प्रतिभा कटियार। अलग-अलग शीर्षक से कहानीनुमा अंदाज़ में लिखा गया यह उपन्यास एक नया प्रयोग है। हर कहानी का पूर्व और बाद की कहानी से संबंध है। हर कहानी के बाद उसके कथानक से मेल खाती एक शायरी होती है— किसी मशहूर शायर की।

उपन्यास में दर्ज कहानी की नायिका तृप्ति की धीर-गंभीरता काबिल-ए-गौर है, लेकिन आखिरकार वह भी तो इंसान ही है। ऐसी लड़की, जिसे कदम-कदम पर दंश मिलता है— सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक। शायद इसीलिए वह ज़्यादा सोचने लगी है। उधर, अनुभव बहुत कोशिश करता तो है ‘हीरो’ बनने की, लेकिन इस ‘खतरनाक’ समाज में कहां संभव है यह सब। सीमा तो जैसे आदर्श लगती है। लेकिन उसके साथ रिश्ते में भाई लगने वाले ने क्या किया? सही रिपोर्ट तो होती है क्राइम ब्यूरो की, जिनका लब्बोलुआब होता है— ‘किस पर करें यक़ीन?’

चलचित्र की तरह आगे बढ़ती कहानी पाठक को बांधे रखती है। पाठक की कल्पनाओं के घोड़े दौड़ते हैं, लेकिन कहानी की जिज्ञासा तब और बढ़ जाती है, जब उसकी धारा दूसरी दिशा में बह निकलती है। यह ताकीद करते हुए कि ‘अब कहां होता है ऐसा’, मत बोलिए। सिर्फ कहना आसान है कि ‘अब तो सब ठीक है।’ कहानी के पात्रों से यह भी तो साफ होता है कि हर कोई एक जैसा नहीं होता। गंगा की लहरों, रातरानी की सुगंध और फूल-पंछियों का मानवीकरण ग़ज़ब अंदाज़ में किया गया है।

एक बेहतरीन लेखक की यही पहचान है कि उसका पाठक रचना को पढ़ने पर भी तृप्त न हो। इस उपन्यास की कहानी भी खत्म होते-होते पाठक कुछ ढूंढ़ता है। सुखांत ढूंढ़ने की हमारी फ़ितरत यहां भी कुछ समझ नहीं आती—सिवा इसके कि तृप्ति फिर उठ खड़ी होगी और इस उपन्यास का दूसरा भाग भी आएगा।

पुस्तक : कबिरा सोई पीर है लेखिका : प्रतिभा कटियार प्रकाशक : लोकभारती पेपरबैक, प्रयागराज पृष्ठ : 168 मूल्य : रु. 299.

Friday, August 1, 2025

टूटन



टूटी हुई नींद
चिड़िया का टूटा पंख है
जिसके किनारे 
टूटन के दुःख से सने हैं.

- प्रतिभा कटियार 



कोई ताज़ा हवा चली है अभी ...


हँसती खिलखिलाती, इठलाती, शरारतें करती लड़की उस रोज गुमसुम हो गई जब वो सांझ के काँधे से लगकर झील में बस उतरने जा रहे सूरज को ताक रही थी और साँझ ने उसके माथे  पर पोशीदा सा एक लम्स रख दिया था। उस ठंडी शाम में लड़की के माथे पर रखा गुनगुना सा वो लम्स दहक उठा था। कदंब के पेड़ के नीचे मटरगश्ती करते मुर्गियों के झुंड ने मानो न कुछ देखा, न सुना।

सांझ ने मुस्कुराकर पूछा,'तुम खुश तो हो न?' 
लड़की की आँखें झरना हो चली थीं।
'ख़ुश' यह शब्द उसे उदास करता है इन दिनों।
'ख़ुश...' कितना अवसाद है इसके सीने में।

कोई ख़ुशी अकेले कभी नहीं आती। अपने साथ ढेर सारा अकेलापन, उदासी और पीड़ा लेकर आती है। ख़ुशी कल्पना में अच्छी लगती है। कल्पना में, कविताओं में, कहानियों में, रील में, फेसबुक में, इन्स्टा में उफनाती फिरती है। ये ख़ुशी उदास करने वाली ख़ुशी नहीं है। ये ख़ुशी किसी नशे सी है, जब तक है, तब तक है। कभी-कभी तब तक भी नहीं है।

जैसे चारों तरफ ख़ुशी का कोई सैलाब बिखरा पड़ा है। जल्दी जल्दी ख़ुशी परोसने वाला सैलाब। 
न सुख के भीतर सुख है, न दुख के भीतर दुख। बस एक शोर है।
लेकिन इस शोर के साथ डील करना आसान है। मुश्किल है एक गहरी लंबी चुप्पी के साथ डील करना।
 
साँझ ने साथ चलती एक मीठी सी लंबी चुप्पी के बाद लड़की के माथे पर ये लम्स जड़कर उसे न सिर्फ हैरत में डाल दिया बल्कि उसके खुश होने के भीतर समाये तमाम डर को आज़ाद भी कर दिया। 

अब झील के किनारे 4 जन थे। लड़की, साँझ, ख़ुशी से जन्मा डर और लगभग ठंडी हो चुकी चाय।

सूरज झील में डूबकर बुझ चुका था।
सांझ की आँखें उनींदी होने को थीं और लड़की अपने तमाम डर, बेचैनी को समेट वापस लौट रही थी।

साँझ का उसके साथ लौटना नामुमकिन था, यह  वो जानती थी।
और यह जानना ही सृष्टि का समूचा कष्ट है।

अब न लड़की साँझ के करीब जा पा रही, न खिलखिला कर हंस पा रही है।
वो नरम सा लम्स जिसके भीतर पूरी क़ायनात का सुख समाया था, न जाने कैसे उदास एहसास में बदल गया। सुख के साथ भरोसे का आना जरूरी है, कि वो रहेगा।
लेकिन अफसोस कोई सुख यह भरोसा लेकर नहीं आता। इसलिए हर सुख की आहट असल में उसके बीत जाने की आहट भी है। और यही उस सुख का दुख है।

लड़की ने चाय का पानी चढ़ाया, बालकनी में उचकती धूप को 'हैलो' कहा और गुलाम अली की गज़ल की आवाज़ तेज़ कर दी...कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी...आवाज़ सुबह में घुलने लगी।  

सुबह ने लड़की के माथे पर आई शिकन को चूम लिया था। धूप बिखरने लगी थी.
गुलाम अली की आवाज़ मुस्कुरा उठी थी, कोई ताज़ा हवा चली है अभी....

Saturday, July 26, 2025

एक कोना धूप एक बूंद बारिश- पूरन जोशी


कविता पढ़ते हुए लोग मुझे बेहद पसंद हैं। कविताओं के बारे में ऐसा है कि उन्हें पढ़ने के बाद एक लंबी चुप्पी में उतरा जा सकता है। कविताओं के बारे में बात करना ऐसा ही है जैसा ख़ुशबू के बारे में बात करना, स्वाद के बारे में बात करना, मौसम के बारे में बात करना। हर बात वो कितने ही सलीके से की जाए असल में पूरी बात नहीं हो सकती। भीगना भीग कर ही महसूस किया जा सकता है। फिर भी साहित्य में वो ताक़त है कि आप पढ़ते हुए भीगने का सुख कुछ हद तक ले सकते हैं, कॉफी के बारे में पढ़ते हुए कॉफी की तलब महसूस कर सकते हैं और पढ़ने के बाद बारिश की ओर कदम बढ़ा सकते हैं, कॉफी बनाने के लिए उठ सकते हैं।  

शब्द...शब्द...शब्द...अच्छे, प्यारे शब्द, मीठे शब्द, ढंग से जमाये गए शब्द, शिल्प में सजे शब्द तब तक अधूरे हैं जब तक उनमें अपने समय की उलझन नहीं, बेचैनी नहीं, अधूरी रातों की जाग नहीं, अन्याय के खिलाफ़ प्रतिकार नहीं, कुछ न कर पाने की पीड़ा नहीं और सबसे इतर समय और काल को परख पाने की समझ नहीं। 

पूरन जोशी के पहले कविता संग्रह 'एक कोना धूप एक बूंद बारिश' को पढ़ते हुए मुझे यह सुख मिला। यक़ीन मानिए यह एक बड़ा सुख है। और मुझे हमेशा से यक़ीन था कि पूरन के यहाँ यह सुख मिलेगा। उसके लिखे से पहले से परिचय है। लेकिन उस परिचय से बड़ा परिचय है पूरन की शख्सियत का। बेहद सुलझी हुई संपन्न दृष्टि, उदार मन, विनम्र व्यवहार। जहां वो एक ही पल में किसी को भी अपना बना लेता है वहीं गलत के खिलाफ़ मुखर भी होता है। उसकी कविताओं में यह झलकता है। 
मैं बहुत सारी कविताओं पर बात कर सकती हूँ। लेकिन मैं फिलहाल उसकी कविता हे राम आपके साथ साझा कर रही हूँ- 
 
हे राम! 

तुम उस रोज मेरे देश आए थे बुद्ध 
तब तुम्हारे भेस में अचानक ही 
मैंने मोहम्मद को देख लिया था 

ये उसी दिन की बात है 
जब मैं जामा मस्जिद की उन ऊंची-ऊंची सीढ़ियों पर 
चढ़ते-चढ़ते ठिठक गया था एकाएक 

तभी तुम खुद सीढ़ियों पर आ गए 
और मेरे हाथ अपने समझदार हाथों में 
धरकर तुमने जिक्र किया था 
रामेश्वर के उस सात साला बेटे का 
जो कल के दंगों में खूनमखून हुआ 

फिर तुमने अपने साथ घटी 
उस घटना को भी बताया 
जब सच कहने की वजह से 
टांगा था सूली पर तुमको 
और फिर ईसा बनकर 
इस पूरी दुनिया के 
तारणहार बन गए थे तुम 

तभी लगभग दो हजार साल बाद 
कैसे एक सरफिरे हत्यारे ने 
तुम पर गोली चलाई थी 
और तुमने कहा था 
हे राम!  

पूरन की कवितायें उम्मीद की कवितायें हैं, प्रकृति की कवितायें हैं, अपनेपन की कवितायें हैं। इसमें एक कोना धूप है सदियों से सीले मन लिए लोगों का और एक बूंद बारिश है हालात के सूखे से बंजर होते सपनों  के लिए। आइये, इस संग्रह का स्वागत करें। किताब न्यू वर्ड पब्लिकेशन से आई है। अमेज़न पर उपलब्ध है।  

Wednesday, July 23, 2025

ये औरतें भी न, गज़ब हैं


स्टोव और सिलेन्डर फट चुकने के बाद 
सल्फास की गोलियों के ख़त्म होने के बाद 
अब औरतें तालाब में डुबोकर मारी जा रही हैं 
ठंडी रोटी परोसने पर कूटी जा रही हैं 
छत से सामान की तरह फेंकी जा रही हैं 
कई टुकड़ों में फ्रिज में रखी जा रही हैं 
धीरे-धीरे ठिकाने लगाई जा रहीं 

ओवन में ठूँसी जा रही हैं 
सड़कों पर घसीटी जा रही हैं 
घरों में कूची जा रही हैं 
डॉक्टर हों या कोमा में पड़ी मरीज 
6 महीने की नवजात हो 
या 70 बरस की दादी 
वे बस नोची जा रही हैं 

घर, सड़क, स्कूल, दफ़्तर   
हर जगह कई दर्जन निगाहें उनकी देह के 
हर हिस्से को खंगाल रहे हैं 

वे गर्भ में जिंदा बच जाने से लेकर 
जीवन के हर मोड़ पर 
शुक्रगुजार होना सीख रहीं 

शुक्रगुजार कि वे अब तक जिंदा हैं 
तो क्या हुआ कि उनके सपने मार दिये गए 

वे हर पल ठगी जा रही हैं 
फिर भी वे न प्यार करना छोड़ पा रही 
न भरोसा करना 

और एक आप हैं...?

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मरने से पहले 

मरने से पहले स्त्री के ज़ेहन में 
घूमता है पति का ख़्याल 
बच्चों की फिक्र 
घर के काम 
कुछ हिसाब जो अधूरे रह गए 
कुछ बिल जो पेंडिंग रहे 
कुछ वादे जो पूरे न हो सके 
कुछ पल जो कभी जी न सके 

मरने से पहले स्त्री सबको माफ करती है 
वो अपनी मौत का जिम्मेदार खुद को चुनती है
और पति के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है।  

मरने से पहले पुरुष को 
याद आते हैं पत्नी के सारे ऐब 
वो अपनी मौत से लेना चाहता है 
प्रतिशोध 
उसके ज़ेहन में नहीं आता 
बच्चे का ख़्याल 
न माँ-बाप की चिंता 
न घर के काम 
उसके ज़ेहन में आता है सिर्फ प्रतिशोध 
वो अपनी मौत को शस्त्र की तरह 
उपयोग में लाता है 
और गुहार लगता है पत्नी के लिए
कड़ी से कड़ी सजा की 

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Sunday, July 20, 2025

उनकी दुनिया में हम नहीं थे...


मन का उदास पंछी अपने ही डैने कुतरने लगा था। दिन बुझते ही नहीं थे। रात सुलगती ही रहती थी। हथेलियाँ खोलो तो झप्प से कोई नाउम्मीदी झरे जैसे। ऐसे ही उमस भरे दिनों में जब बदलियाँ आँखों में अटकी हुई थीं दूर बहुत दूर से बादलों ने आवाज़ दी। बादलों की आवारगी हमेशा लुभाती रही है। आवाज़ को मुट्ठियों में बंद कर लिया। पलकें मूँदीं तो भीतर के झरने को रिहाई मिल गई जैसे।

बहते झरने से पूछा, 'क्या कहते हो चलें क्या बादलों के देस' झरने की गति और तेज हो गई। गालों पर गड्ढे उतर आए। सुलगती रातों और न बुझे दिनों को सरकाकर किनारे किया। कुछ ही दिनों में बैक पैक के साथ मैं एयरपोर्ट पर थी। ख़्वाबिदा सी पाजेब अचानक विद्रोही मन में बदल गई। बोर्डिंग पास हाथ में हो तो दुनिया बदलने लगती है।

एयरपोर्ट से हम निकले पनशेट के लिए। शहर के ट्रैफिक को चकमा देते हुए हम जल्द ही शहर के बाहर खूबसूरत रास्तों की ओर निकल पड़े थे। न कोई ऐसा शहर है पुणे कि इसके बारे में कोई पढ़ना चाहे। सब जानते हैं इसे तो। लेकिन मेरे लिए यह यात्रा खास थी। किसी ने कहा था पुणे को इसके भरपूर रंग में देखना हो तो बारिशों में आओ। और मैं बारिशों में ही पहुंची। हमारा पहला पड़ाव था खड़गवासला डैम। नज़र की आखिरी हद तक पानी ही पानी। बादल भी बारिशें लेकर एयरपोर्ट से ही साथ थे। और मन तो था ही पानी पानी। तो पानी की दीवानी मस्त मगन हो चुकी थी। वड़ा पाव का स्वाद, गुड़वाली चाय और पानी के ये खेल...समझ आ गया था यह 5 दिन की यात्रा सुंदर होने वाली है।

खड़गवासला डैम के बारे में शायद कोर्स की किताबों में पढ़ा था कभी। क्या पढ़ा था यह याद नहीं, खड़गवासला नाम याद है। ऐसे न जाने कितने नाम हैं। चिकमंगलूर, कड़कड़डूमा, विशाखापट्टनम और भी बहुत से। ये नाम क्यों याद हैं इसका कोई पता नहीं। बहरहाल, खड़गवासला डैम से मेरी यह पहली मुलाक़ात थी। बारिश की बूंदों ने झालर तान दी थी। ठंडी हवा में पंक्षियों की उदुक फुदक जैसे कोई सुर लगाने की कोशिश कर रही थी। किनारों पर प्यार के जोड़े सिकुड़े, सिमटे हुए बैठे थे। जैसे कबूतर आँखें बंद कर लेता है वैसे ही। उनकी दुनिया में हम नहीं थे, हमारी दुनिया यक़ीनन उनके होने से रोशन थी।

पानी से पानी का मिलना कितना सुंदर होता है। मैं अपनी सजल आँखों के साथ दूर तक फैले पानी के विस्तार पर बरसती बूंदों को गिरते देख रही थी। सारी उथल पुथल ठहर गयी थी। सब शांत। हवा ने मेरे बालों और गालों को सहलाया तो मैंने चौंक के देखा, मेरी चाय आ चुकी थी।

कुदरत के पास कितने सबक हैं, हम सीखते क्यों नहीं। कि किन मसायल में उलझे रहते हैं। जबकि मसला कोई है ही नहीं, प्रकृति के पास भरपूर प्यार है, खाना है, जीवन है। और हम हैं कि जिस ठीहे पर अच्छा लगे वहीं अपने नाम की तख़्ती लगाने की फिराक में सारे सुख स्वाहा करते फिरते हैं। सुख छूटते जाते हैं, जीवन छूटता जाता है।

भूगोल की कच्ची इस लड़की को धरती के हर कोने से प्यार है, हर जीव से, सम्पूर्ण प्रकृति से। कभी कभी लगता है कि जानने ने किस कदर क्षरित किया हमारे सुखों को। फिलहाल मैं चाय के स्वाद में डुबकियाँ लगा रही थी, भीतर एक मीठी रुलाई फूट पड़ने को व्याकुल थी, मैंने अपनी कोरों को चुपके से पोंछते हुए माया आंटी को याद किया, इस बार जगमोहन जी को भी जो कहते हैं, इतना भी क्या सजल होना, हर बात पर। और माया आंटी इस बात को यूं कहती हैं, 'बड़ी-बड़ी आँखों में हमेशा मोटे मोटे आँसू बस टपक पड़ने की राह ताकते रहते हों जैसे।'

उस लम्हे में इन दोनों की याद ने मुस्कुराहट बिखेर दी। लेकिन आँखें कब किसी की सुनती हैं...आगे जाना था सो इस सम्मोहन से छूटना लाज़िम था। दृश्य से जैसे तैसे हाथ छुड़ाया और निकल गए पनशेट की ओर...
जारी....

(पुणे प्रवास)

Thursday, July 17, 2025

तुम्हारी हथेलियों में जादू है क्या?

तुम्हारी हथेली में क्या कोई जादू है, 'लड़की ने लड़के की हथेली को खोलते हुए पूछा।'
लड़के ने हथेली खोली और हवा में उछाल दी। लड़की रूठ गई। लड़का मुस्कुरा दिया। उसने लड़की की पलकें मूँदीं और माथे पर आहिस्ता से चुंबन रखते हुए कहा, 'जादू मेरी हथेलियों में नहीं, तुम्हारे प्यार में है। देखना चाहोगी अपने प्यार का जादू?' लड़की के रूठने में तनिक लरज़ आई लेकिन उसने ठुनकते हुए ही कहा, 'नहीं मुझे कुछ नहीं देखना।' अच्छा? 'बारिश भी नहीं?' लड़के ने शरारत से पूछा।
 
इतनी धूप खिली है, बारिश कहाँ से लाएगा ये। बावला है एकदम। लड़की ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराकर बोली, 'हाँ बारिश ले आओ तो मान जाऊँगी।'
 
लड़के ने धीरे से लड़की की पलकों पर रखी अपनी हथेलियों को हटाया। सामने एक बड़ी सी झील थी जिसके किनारे पर बादलों की गुटर-गूँ चल रही थी।

कुछ ही पलों में पूरा मौसम ही बदल चुका था। झील को छूकर आती ठंडी हवा लड़की के गालों से टकराते हुए लाड़ कर रही थी।

तुम तो सच में जादूगर हो...लड़की ने सारा रूठना बिसरा दिया और लड़के के सीने में धंस गयी। तभी गुटर गूँ करते बादलों में से कुछ बादल उठे, अंगड़ाई ली और निकल पड़े अपनी बूंदों की पोटली लिए। नन्ही फुहार समूची झील पर ऐसे झर रही थीं जैसे झरती है उम्मीद।


लड़का भीग रहा था, लड़की भीग रही थी....दूर कहीं पाखी अपनी उड़ान की तैयारी में थे...
(पुणे, पनशेट)

Tuesday, July 15, 2025

पुणे...दोस्त शहर


पुणे शहर की एक ख़ास बात है। यह शहर दोस्ती करने को अकुलाया हुआ सा लगता है। जैसे शहर के सीने में छुपकर मीठी मुलाक़ात की हसरत रहती हो। जैसे ढेर सारे लोगों से, अपनेपन से भरे हुए लोगों से घिरे होने के बावजूद कोई कोना एकांत का सुख तलाश हो, किसी एक निगाह का मुंतज़िर हो जो निगाह उसे ही ढूंढ रही हो।

देर रात बरसती रात में बेवजह सड़कों पर टहलते हुए मैंने शहर से गुलज़ार साहब के शब्द चुराकर पूछा, 'इतने लोग तो हैं, फिर तन्हा क्यों हो?' शहर चुप रहा। वो मेरे साथ हो लिया मानो बांह थामना चाहता हो। मानो कांधे पर सर रखकर थोड़ा रोना चाहता हो, मुस्कुराना चाहता हो। मैंने उसकी मासूम आँखों में अपनी आँखों को रख दिया। हम दोनों साथ चलने लगे। चलते-चलते उसने मेरा हाथ थाम लिया था। यूं हाथ थामकर चलना मुझे भी तो कितना ज्यादा पसंद है, सफ़र ख़ूबसूरत हो उठा था। बारिशें और तेज होती गईं...हम तब तक टहलते रहे जब तक नींद ने उठाकर हमें बिस्तर पर फेंक नहीं दिया।

सुबह उठी हूँ तो मुस्कुराहट खिली हुई है। अब इस शहर में मेरा एक पक्का दोस्त है। शहर ख़ुद। 'चाय पियोगे?' मैंने  शहर से पूछा। उसने हामी भरने के लिए बारिश की लौ तेज कर दी।

इस सुबह में मैं 3 कप चाय बना रही हूँ। मेरी, शहर की और अदिति की। अदिति, हाँ उससे ही तो मिलने आई हूँ। अदिति ख़ुशबू है, ऐसी ख़ुशबू जो सबको बांध लेती है। बरसों पहले इसी शहर में वो अपने प्रेम की मन्नत के बीज बो गई थी। वो बीज अब दरख़्त बन चुके हैं। हम सब उसके प्रेम के दरख़्त के नीचे बैठकर सुकून पाते हैं। हर टूटे बिखरे को, हर छूटते लम्हे को संभाल लेने का शऊर इस लड़की में बहुत है। खयाल का भी खयाल रखने की मानो कोई जिद है अदिति में। हिम्मत, मेहनत और प्यार से बनी यह प्यारी लड़की हमारे घर की लाइफलाइन है। इसलिए, मैं पुणे घूमने नहीं आई, रहने आई हूँ अदिति के पास। अब यहाँ भी एक घर है मेरा।

इस शहर के पास प्यार है, बारिशें हैं, हरियाली है, सुंदर मौसम है और अब अदिति भी है। इस सुबह में सुकून है, सुख है, प्यार है और ढेर सारी उम्मीद है...आख़िर इस दुनिया को प्यार ही तो संवार सकता है। सारे मसायल का हल प्यार के ही तो पास है।

चाय की ख़ुशबू रजनीगंधा के फूलों की ख़ुशबू से आँख मिचौली खेल रही है...बारिश यह खेल देखकर मुस्कुरा रही है। चलो न, चाय पीते हैं।

(पुणे डायरी)

Sunday, June 29, 2025

एवरेस्ट गर्ल मेघा परमार: ज़िद का जादू

कोई दिन, कोई लम्हा ज़िन्दगी का हासिल होता है। यूं महसूस होता है कि शायद इसी लम्हे की तो तलाश थी। कल ऐसा ही एक लम्हा हासिल हुआ। एवरेस्ट गर्ल मेघा परमार से मिलने का, उसे सुनने का, उसे गले लगाने का लम्हा। दैनिक जागरण के संवादी में शिरकत करने आयीं मेघा ने हम सब देहरादून वालों को खूब रुलाया। भीतर उनकी एवरेस्ट यात्रा के अनुभव सुनकर सभागार में बैठे हर व्यक्ति आँखें बेतरह बरस रही थीं। बाहर बरस रही थीं देहरादून की बारिशें। 

ओह, क्या लड़की है मेघा। कोई इतना साहसी भी हो सकता है। ज़िंदगी, जिजीविषा, चुनौतियाँ का सामना करने की  ललक, सपने देखने की हिम्मत और उन्हें पूरा करने की ज़िद से मिलकर बनती है ये एवरेस्ट गर्ल। मेघा, तुम्हारी उपलब्धि एवरेस्ट तक पहुंचना तो है ही लेकिन वहाँ से लौटने की जो यात्रा है उसे लेकर तुम्हारी जो समझ है, हर एक सांस की जो कीमत तुमने हमें बताई, तुमने बताया कि जब सब साथ छोड़ दें, यहाँ तक कि हिम्मत भी टूटने लगे तब भी कोई उम्मीद बची रहती है। 

तुम जब स्टेज से उतरी तुम्हें लोगों ने घेर लिया, तसवीरों का सैलाब, सेल्फ़ी लेने वालों की भीड़ के बीच मुझे तुम्हारी सांसों को छूना था।मैंने तुम्हारी आँखों में देखा और गले लगा लिया। देर तक लगाए रही। तुम्हें चूमती रही। नहीं, कोई तस्वीर नहीं ली बस तुम्हें छू रही थी। वो सांसों की छुअन, वो स्पर्श अपने साथ लेकर लौटी हूँ, मन की तिजोरी में संभाल कर रख रही हूँ। जब भी हिम्मत टूटेगी मैं तुम्हारी सांस की आंच से अपनी टूट रही हिम्मत की मरम्मत कर लूँगी। 

तुम्हारी किताबें सारी बिक चुकी थी, तुम लगातार सबको साइन करके दे रही थीं। मैं तुम्हारी किताब मंगवाउंगी और तुम्हारे साइन लेने तुमसे मिलने तुम्हारे पास आऊँगी। देखो न, यह सब लिखते हुए भी कैसे बारिश हो रही है बाहर भी, भीतर भी। बहुत प्यार तुम्हें मेघा, दुनिया भर की उन स्त्रियों की ओर से जो सपने देखने से अब भी बहुत घबराती हैं...मिलते हैं।    

Friday, June 13, 2025

कुछ सवाल, कुछ बेचैनियों का संसार है ‘कबिरा सोई पीर है’



'कबिरा सोई पीर है' उपन्यास पर जगमोहन सिंह कठैत जी ने आत्मीय और मौजूं टिप्पणी लिखी है। जगमोहन जी लंबे समय से सामाजिक मुद्दों पर गहराई से काम कर रहे हैं। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन में कार्यरत हैं और मुख्य रूप से संवैधानिक मूल्यों को युवाओं के माध्यम से जन जन तक कैसे पहुंचाया जाय, किस तरह जीवन में उतारा जाय ताकि एक ऐसे समाज की संरचना हो सके हो जिसका ख़्वाब संविधान के पैरोकारों ने देखा था इस कार्य की केंद्रीय भूमिका में हैं । इस उपन्यास पर उनकी समृद्ध दृष्टि और विचार अतिरिक्त महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि यह उपन्यास इसी राह में हिचकोले खाते किरदारों की कथा है। प्रतिभा की दुनिया की तरफ से जगमोहन जी का आभार। 

- जगमोहन सिंह कठैत
“कबिरा सोई पीर है” को पढ़कर पूरा किये काफी दिन हो गए हैं लेकिन यह किताब दिमाग से उतर नहीं रही है। तो इसके बारे में लिखना जरूरी लगा। शुरू में ही इस बात को स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि यह किताब कबीर के बारे में नहीं है ताकि मेरी तरह कोई दूसरे पाठक भी पुस्तक के शीर्षक ये अपेक्षा न लगा लें कि पुस्तक कबीर के बारे में है। यह प्रतिभा कटियार का उपन्यास है। ऐसा उपन्यास जिसे एक बैठकी में पूरा पढ़ा तो जा सकता है लेकिन उपन्यास में आए पात्र, घटनाएँ दिमाग में चलते रहते हैं।

यह उपन्यास किस बारे में है इसके लिए तो उपन्यास पढ़ना होगा फिर भी इसे पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद जो प्रतिबिम्ब दिलोदिमाग पर बने उन्हें दर्ज करना जरूरी लग रहा है। कुछ हिस्से ऐसे थे जिन्होंने शांति को तोड़ा। कुछ जगह पात्रों की पीड़ाओं को महसूसने के बाद दिल बैठ गया तो कुछ पात्रों ने विपरीत परिस्थितियों मे भी न्यायोचित समाज के आस बँधाये रखी।

उपन्यास जाति से उपजे भेदभावों की पीड़ा को बखूबी उभारता है। न केवल जाति बल्कि जाति में भी महिलाओं की पीड़ाओं को और उनकी मनोदशाओं को किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के दिल के तारों मे झंकार पैदा करता है। एक तरफ वंचित तबके को मिलने वाली सुविधाएं और आरक्षण का उजला एहसास करवाता है तो दूसरी तरफ सफलता चाहे अपनी ही काबलियत से मिली हो लेकिन दलित और वंचित होने के तमगे से निकलने वाले ताने-बाने इतने निर्दयी होते हैं कि उनके घाव ऐसे रिसते हैं कि एक बार को इंसान होने पर ही शक होने लगे।

उपन्यास में यह बात बहुत खूबसूरती से उभरी है कि सत्ता में जो व्यक्ति होते हैं, ये सत्ता चाहे किसी पद की, जाति की, जेंडर या वर्ग किसी भी प्रकार की हो वो आसानी से अपने से नीचे ग्रुप/तबके की प्रगति को अपने से आगे होने की स्थिति को पचा नहीं पाते। यह बात अनुभव और तृप्ति के संवाद मे साफ तरीके से उभर कर आती है जब तृप्ति (दलित लड़की) प्रशासनिक सेवा की मुख्य परीक्षा तो पास कर लेती है लेकिन अनुभव नहीं कर पाता है। परीक्षा की तैयारी दोनों साथ ही करते हैं और लोगों का अनुमान था कि अनुभव तो पास कर ही लेगा लेकिन परिणाम ऐसे नहीं आए। लोगों को लगता है कि तृप्ति दलित होने के कारण परीक्षा पास कर पायी। एक लड़की की प्रगति एक संवेदनशील लड़का जो कि घनिष्ठ दोस्त है कैसे देखता है और क्या महसूस करता है, अनुभव के मन की उथल-पुथल से हम सहज महसूस कर सकते है। 'मैं खुद के भीतर चल रही इस उलझन को समझ नहीं पा रहा हूँ तृप्ति। मुझे लगता था मैं काफी लिबरल हूँ, लेकिन इस एक घटना ने मेरी अब तक अपने बारे में बनाई गई राय को खंडित कर दिया। मुझे महसूस हुआ कि मेरे भीतर काफी पाखंड भरा है, लिबरल होने का पाखंड। मैं आम आदमी ही हूँ, आम पुरुष, बल्कि उनसे भी बुरा। क्योंकि मैंने अपने भीतर लिबरल होने का झूठ पाल रखा है।‘’ अपने मन के भावों को पढ़ पाने के लिए भी तो इंसान को संवेदनशील ही होना पड़ता है नहीं तो ये भाव भी कब लोग पढ़ पाते हैं। लेखिका ने इस भाव को बखूबी उभरा है। और यह वाक्य कि 'देख, है तो वो आदमी ही न और ऊपर से सवर्ण। जाते-जाते जाएगा जो भीतर भरा हुआ ईगो है सुपीरियटी का। यही सब तो दिख नहीं पाता सामान्य दिनों में’ भी एक समझदार व्यक्ति ही महसूस ही समझ सकता है उस व्यक्ति के बारे में जो बदलाव की ईमानदार कोशिश कर रहा है नहीं तो किसी की ईमानदार कोशिश भी धुल सकती है। यह बात तो कोई संवेदनशील लेखक ही उभार कर ला सकता है। एक बात और लेखिका यह लिखकर ‘इंसान का व्यक्तित्व उसके मज़ाक में सबसे ज्यादा खुलता है’ ने मुझे मेरे मज़ाक के अंदाज़ के प्रति मुझे सजग और संवेदनशील कर दिया। कई बार लगा कि बहुत सारे पात्र मेरे आसपास और मेरे घर में ही उपलब्ध हैं।

ईमानदारी एक बड़ा मूल्य है। अकसर तो लोग रुपये पैसे के लेन-देन की ईमानदारी को ही ईमानदारी मानते है लेकिन जो थोड़े समझदार लोग होते हैं वे पॉलिटिकल करेक्टनेस के साथ आचार-व्यवहार को ही ईमानदारी मान लेते हैं। सही मायने में तो ईमानदारी दिल की ईमानदारी होती है और वो भी अपने साथ। अपने विचारों को देख पाने की कि मेरा दिल क्या कह रहा है और दिमाग क्या कह रहा है और अंततः दिल की आवाज़ के साथ का रास्ता चुन लेते हैं। यदि कभी व्यावहारिक रूप से दिल की आवाज़ का रास्ता नहीं भी चुन पाते हैं तो वे दिल और दिमाग की इस बात के प्रति सजग और सवेदनशील होते हैं। इस ईमानदारी की ख़ुशबू आप इस उपन्यास में विभिन्न पात्रों के जरिए महसूस कर पाएंगे।



ऐसा नहीं है कि ये मूल्य लेखिका ने केवल अपनी बौद्धिक कौशलता से पिरो दिये हों बल्कि जो लेखिका को जानते हैं वे उनकी इस संवेदनशीलता की समृद्धि को समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। ऐसा नहीं होता है कि लेखन में लेखक के मजबूत पक्ष ही दिखते हैं और ये संभव भी कैसे हो सकता है, ईमानदार लेखन में तो लेखक का पूरा व्यक्तित्व उघड़ आता है। यहाँ भी आप जब उपन्यास से गुजरेंगे तो बहुत जगह पाएंगे कि लेखिका ने बहुत बार पात्रों के नेत्रों को ‘सजल’ किया है। कई जगह ऐसा भी लगता है कि नेत्रों की सजलता या आँखों से दो बूंदों का लुढ़कना कुछ ज्यादा तो नहीं हो गया। इस शब्द की आधिक्यता कभी पात्रों की कमजोरी की तरफ इशारा करती है तो कुछ जगह पठन के वेग को भी हिचकोले लगा देते हैं लेकिन अंततः पढ़ने में आनंद की अनुभूति ही देती है।

अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि जो भी साथी विचार के साथ नहीं भाव के साथ यात्रा करना चाहते हैं, जो साथी दिमाग नहीं दिल की आवाज़ के सहयात्री बनने की यात्रा में हैं यह उपन्यास उन्हें निखारने और सँवारने की यात्रा में सहयोगी रूप में काम करेगी।

(यह टिप्पणी आज जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित हुई है। सुभाष राय जी का शुक्रिया। )

Monday, June 9, 2025

विकल्प क्या है सिवाय नई उम्मीद उगाने के


‘व्हेन लाइफ़ गिव्स यू टैंजरीन्स’ (कोरियन ड्रामा)

देर से प्यास लगी थी। नहीं जानती ये प्यास कितनी पुरानी थी। लेकिन रोम-रोम प्यास से पीड़ित था हालांकि होंठ हमेशा मुस्कुराते रहते थे। सूखे होंठों वाली खुरदुरी मुस्कुराहट। बीते शनिवार, इतवार इस प्यास पर एक झरना फूट पड़ा। उस झरने का नाम था, ‘‘व्हेन लाइफ़ गिव्स यू टैंजरीन्स’’।

16 एपिसोड वाली इस कोरियन सीरीज़ में ज़िंदगी के वो तमाम फलसफे हैं जिन्हें हम किताबों में नहीं हर रोज का जीवन जीते हुए समझते हैं। हर वो चोट जब हम लड़खड़ाकर गिरते हैं, और वो चोट भी जिसे जानबूझकर दुनियादार लोग हमारे हवाले करते हैं। दर्द कितना ही गहरा हो, चोट कितनी भी बड़ी हो, जीवन का क्या विकल्प है सिवाय जीने के। उम्मीद टूटने पर हम क्या कर सकते हैं सिवाय एक नई उम्मीद उगाने के।

जो लोग ज़्यादा समझदार होते, उन्हें दर्द कम होता है या वो ज़्यादा मजबूत होते हैं ऐसा समझना ठीक नहीं है। असल में विकल्पहीनता उन्हें इसके सिवा कुछ होने ही नहीं देती। हालांकि चाहते वो भी हैं कि एक जरा सी खरोंच पर कोई थाम ले, कोई पैरों के छाले देखे और उसकी आँखें भर आयें, कोई दुख के आवेग में जब कुछ न सूझे तो गले लगकर रो पड़े, सर पर हाथ फिरा दे, बिना कुछ कहे आँखों में उतार दे ‘मैं हूँ, हमेशा रहूँगा/रहूँगी’ की आश्वस्ति।

ये दुनिया जीने लायक तभी बनेगी जब हमारे सुख और दुख साझे होंगे। जब कोई बिना किसी जताहट के चुपके से हमारी बरनी में चावल रख जाएगा, हम चौंक कर देखेंगे कि हमारे बहते आंसुओं को कौन पोंछ गया। ये कौन है जिसे हमारे दुख में हमसे ज़्यादा दुख होता है, और हमारे सुख में हमसे ज़्यादा ख़ुश।

चार मौसमों का खेल है जीवन। लेकिन इन चारों मौसमों में साथ निभाने का हुनर हमें सीखना है। हमें सीखना है मनुष्य होना, और मनुष्य होना, और मनुष्य होना। हमें सीखना है किसी की ख़्वाहिशों को पलकों में समेट लेना और उन्हें हक़ीकत का मोती बनाकर उसके माथे पर सजा देना।
  


कभी-कभी लगता है यह प्रेमिल मुस्कान जो 16 एपिसोड तक हर मौसमों के रंग देखते हुए पीढ़ियों में ट्रांसफर होती रहती है वह कोई यूटोपिया है। लेकिन अगले ही पल सर्वेश्वर की वह पंक्ति मुसकुराती है कि ‘सामर्थ्य सिर्फ इच्छा का दूसरा नाम है’।

मैं इस कहानी के बारे में नहीं लिख रही, लिखना चाहती भी नहीं, शायद लिख पाऊँगी भी नहीं। मैं उस असर को उतारकर रख रही हूँ जो लगातार पलकों के भीतर डब-डब कर रहा है। कल शाम एक दोस्त से मैंने कहा, ‘कितनी अच्छी बारिश हो रही है न 2 दिन से’ उसने हैरत से पूछा कहाँ? मैंने यहीं। उसने कहा बाहर तो धूप ही खिली रही दिन भर, रात भी कोई बारिश न थी। मैं हंस दी, चुप रही। असल में बारिश मेरे भीतर हो रही थी। उस बेचारे को नाहक परेशान किया।

माँ के लिए कविता लिखती, बेटी के लिए हर किसी से लड़ जाने वाली, टेबल सजाना नहीं, टेबल पलट देने की ताकीद देने वाली माँ, कभी साथ न छोड़ने वाले प्रेमी, प्रेमियों का साथ देने वाली गाँव की स्त्रियॉं, पहले परेशान करने वाली फिर भर अँकवार गले लगाने वाली सास, चुपके से मदद करने वाली सौतेली माँ, अपनी तमाम पूंजी को आँचल के कोने से छुड़ाकर बच्चों के साथ खड़ी दादी, चावल की बरनी भरते रहने वाले और ऊपर ऊपर गुस्सा दिखाते बुजुर्ग दम्पति, बच्चे, बच्चों के प्रेम और सामने से जीवन की मुश्किलों, गरीबी आदि के लिए माँ-बाप से नाराज़ होते बच्चों का अपने माँ-बाप के लिए कुछ भी कर जाने की इच्छा का एक ऐसा मीठा झरना है कि आप भर अंजुरी अपनी प्यास बुझा लीजिये। 

ज़ेहन से दृश्य उतरते ही नहीं। जैसे कोई लंबी कविता हिचकियों में ढल गई है। ए-सुन और ग्वान सुक की इस कहानी का सार सिर्फ इतना सा है कि जब ये दोनों एक अनजान स्त्री की मदद करते हैं कि उसका सामान चोरी न हो जाए और वो पूछती है, तुमने हमारी मदद की क्यों की, तुम तो मुझे जानते भी नहीं’ और ये मासूम जोड़ा पलकें झपकाकर कहता है, ‘हमें अच्छा लगता है’। इस अच्छा करने को सांस लेने की तरह कर पाना कहाँ सीख पाये हम कि जो सांस हम ले चुके उसे क्या याद रख पाते हैं, फिर किसी के काम आने का एहसास क्यों उठाए फिरते हैं।

ए-सुन और ग्वान-सुक एक दूसरे पर भरोसे की ऐसी सिंफनी है जो एक-दूसरे को हर हाल में जिलाए रहती है, उम्मीद बनाए रखती है। सपने देखते समय सिर्फ भरपूर सपने देखो । उन सपनों को कुदरत के हवाले कर दो। क्या पता कौन सा सपना हक़ीक़त बन लौट आए और मिल जाए एक पुरानी पगडंडी, कोई बिछड़ी हुई कविता या ए-सुन टीचर की जेब को प्यार से भर देती नरम हथेलियाँ।

ग्वान सुक का यह कहना, ‘इतने सुंदर चेरी के फूल खिले हैं, तुम इन्हें देखती क्यों नहीं, मेरे पैरों को ही देखती हो। और ए-सुन कहती है, ‘तुम्हारे पैर इसलिए देखती हूँ कि कहीं तुम गिर न जाओ’।

तो रुक जाओ और देखो इस दृश्य को...आइये तनिक रुक जाते हैं और हिंसा, प्रतिशोध, अहंकार, प्रतियोगिता से ब्रेक लेते हैं। थोड़ा जी लेते हैं...जीवन।

(सीरीज नेटफ्लिक्स पर है)  

Sunday, May 11, 2025

युद्ध के बाद की कुछ कवितायें

झरती हुई पत्तियां 
-MARGARET POSTGATE COLE 
(November 1915)



आज एक ठहरी हुई दोपहर में मैंने
पेड़ों से झरते हुए देखा
कत्थई पत्तियों को
कोई हवा नहीं थी वहां
जो उन झरी हुई पत्तियों को उड़ाकर
ले जा सकती आसमान तक
वीरान सी ख़ामोशी थी उनके गिरने में
वो झरीं जैसे झरती है पहाड़ों पर बर्फ
जिनके झरते ही भरी दोपहर
सिमट जाती है उदास सांझ के साये में
वो झरीं और भटकती फिरीं यहाँ से वहां
सोचते हुए वीरता, युद्ध और जीत के गर्व में डूबी भीड़ के बारे में
वो सारी उदास मुरझाई हुई पत्तियां
जानती हैं कि युद्ध में मारे गये लोगों
उम्र और महामारी की कोई दवा नहीं
लेकिन उन उदास पत्तियों का गिरना भी
धरती को खूबसूरत ही बना रहा है
जैसे मिट्टी को सुंदर बना देते हैं
झरते हुए चमकीले बर्फ के टुकड़े


युद्ध के बाद 
MAY WEDDERBURN CANNAN

युद्ध के बाद शायद फिर बैठ सकूं
उस टेरेस पर जहाँ बैठती थी तुम्हारे साथ
और जी सकूं गुजरती हुई दोपहर को
देखते हुए आसमान के बदलते हुए रंग
मन के किसी उदास कोने में याद है तुम्हारी
और उन खोए हुए सुख के दिनों की जो हमने साथ जिए
कामना है इतनी सी कि काश कोई होता
जो पुकारता मेरा नाम
ठीक वैसे ही जैसा पुकारते थे तुम.

वार गर्ल्स 
JESSIE POPE

एक लड़की तुम्हारे लिए काट रही है ट्रेन की टिकट
एक लड़की है जो तुम्हारे लिए चलाती है लिफ़्ट
एक लड़की है जो बरसते दिनों में भी
पहुँचाती है तुम तक दूध
और तुम्हारी ज़रूरत के सामान के ऑर्डर लेती है
ये मज़बूत, सौम्य, समझदार लड़कियाँ
बाहर निकली हैं यह बताने 
कि कितना धैर्य है उनके भीतर
कि वो संभाल सकती हैं सारे काम
पूरी समझदारी और ऊर्जा से
कुछ भी रुका नहीं है यहाँ
उन्होंने संभाल रखा है सब कुछ
कि एक दिन लौटेंगे योद्धा युद्ध से

एक लड़की है जो भारी वाहन चला रही है
एक लड़की ने संभाल रखा है बूचड़खाना
एक लड़की हिसाब रखने की खातिर चिल्लाती है
तेज़ आवाज़ में बिलकुल पुरुषों की तरह
एक लड़की है जो सड़क पर सीटी बजाती है

वो जानती हैं कि हर वर्दी के नीचे
एक धड़कता हुआ कोमल दिल है
हालाँकि उस कोमल दिल को
कुछ भी गलत नहीं लगता
लेकिन यह एक गम्भीर बयान है
कि उनके पास आलिंगन और चुम्बनों के लिए समय नहीं है
तब तक, जब तक कि खाकी वर्दी वाले योद्धा लौट न आयें...

अनुवाद- प्रतिभा कटियार


Friday, May 9, 2025

शिक्षा और सम्मान पर तो सबका बराबर हक़ है- संगीता फ़रासी



उत्तराखंड के श्रीनगर शहर की एक ख़ूबसूरत पहाड़ी पर एक स्कूल है, राजकीय प्राथमिक विद्यालय बहड़। इस स्कूल में एक कहानी लिखी जा रही है। लिख रही हैं स्कूल की शिक्षिका संगीता फ़रासी। शिक्षा और सम्मान इस कहानी के मुख्य पात्र हैं। यह कहानी है शहर में भीख माँगकर गुज़ारा करने वालों की बस्ती की। दो वक़्त की रोटी की जुगाड़ को भटकते इस समुदाय की ज़रूरतों में शिक्षा सपना ही रही। फिर इस समुय पर चोरी, पॉकेटमारी जैसे आरोप भी लगे। उनकी चुनौतियों को समझने, और उनका भरोसा हासिल करने की। साथ ही यह कहानी है बच्चों का हा]थ थाम स्कूल तक लाने, उन्हें राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं तक पहुँचाने, और पढ़ने-लिखने में रुचि पैदा करने वाली शिक्षिका और आत्मविश्वास से भरे बच्चों की।

‘‘स्कूल में विविध सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (जैसे— प्रवासी समुदाय, निम्न आय वाले परिवार, असहाय परिस्थिति में रहने वाले बच्चे, बाल तस्करी के शिकार, अनाथ, भीख माँगने वाले बच्चे); अलग-अलग सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान (जैसे— अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, महिला व ट्रांसजेंडर); विविध धार्मिक अस्मिताओं; और भाषाई व भौगोलिक पहचान (जैसे— गाँव, क़स्बे, विशेष आवश्यकता वाले); आदि विभिन्न परिवेश से आने वाले हर बच्चे को स्कूल उसकी अपनी प्रिय जगह महसूस हो।” एनसीएफ़एसई 2023


समावेशन को समझने और उसपर काम करने के लिए जिन दो मुख्य बातों की ज़रूरत है, उन दोनों पर संगीता मैडम लगातार काम करने का प्रयास कर रही हैं। पहली बात समावेशन की ज़रूरत को समझना, यानी उन मुद्दों को देख पाना जो बहिष्करण का कारण बनते हैं, समाज में भी और स्कूल में भी। दूसरी बात है प्रक्रिया। समावेशन इतने सहज ढंग से हो कि किसी को कुछ पता ही न चले, और तमाम विविध अस्मिताएँ अपनी पहचान के साथ आपस में घुल-मिलकर रहें। दस बरस पहले जब संगीता मैडम ने इस दिशा में क़दम उठाया था तो उन्हें नहीं पता था कि सफ़र कितना लम्बा चलेगा, कितना बदलाव आएगा। समावेशन के लिए उनके प्रयासों को दो हिस्सों, सामाजिक बदलाव और अकादमिक प्रयास, के रूप में देखा जा सकता है:


सामाजिक बदलाव
सन्दर्भों को समझना: किसी भी समस्या का निवारण जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है उसके कारणों को समझना। संगीताजी ने यही किया। तब उनके सामने खुली एक ऐसी बस्ती की दुनिया, जहाँ तिरस्कार, शोषण और अन्याय से उपजी ग़रीबी के लिए अभिशप्त लोग भीख माँगकर गुज़ारा करके रहते हैं। मैडम को बात समझ में आई कि जिनके लिए मूल प्रश्न अपना पेट भरने और पहचान का हो, उनसे शिक्षा की बात करने से पहले बहुत कुछ करना होगा। कुछ ऐसा जिससे यह समुदाय अपनी बदहाली के कारणों को समझे और हमपर भरोसा कर सके।

भरोसा जीतना: समुदाय का भरोसा जीतना बहुत चुनौतीपूर्ण था। संगीताजी ने समुदाय की ज़रूरत को समझा और कहा, “आप सबके बच्चे जितना दिनभर में भीख माँगकर कमाते हैं, उतनी आर्थिक मदद आप सबकी करूँगी। आप अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू करो।” और संगीताजी ने बच्चों के अभिभावकों को राशन देना शुरू किया। यह उन्होंने अपने निजी बजट से किया। यह सब करने से पहले मैडम ने बस्ती में रोज़ जाकर उनकी समस्याओं को सुना, समझा, और कुछ हद तक उन्हें हल करना शुरू किया।
 

नियमितता एक अड़चन: बच्चों का मैडम के पास नियमित आना अभी भी समस्या थी। वे बार-बार भीख माँगने चले जाते थे। कुछ आदत के चलते और कुछ अभिभावकों के दबाव के चलते। इस समस्या पर मैडम ने दो तरह से काम किया। पहला, जिसका बच्चा नियमित स्कूल आएगा उसकी माँ को ‘बेस्ट मॉम अवॉर्ड’ दिया जाएगा। इस अवॉर्ड में राशन और कपड़े भी दिए जाएँगे। यह सब खर्च संगीताजी खुद वहन कर रही थीं। दूसरे, उन्होंने सब इंस्पेक्टर संध्या को अपनी समस्या के बारे में बताया। उपाय के तौर पर सब इंस्पेक्टर संध्या को जब भी बच्चे भीख माँगते दिखते, वे उन्हें प्यार से समझाकर मैडम के पास भेज देतीं।

इन उपायों से बच्चों की नियमितता बढ़ी। ज़ाहिर है, इसका बहुत असर उनके अच्छा पढ़ने-लिखने और अन्य बातें सीखने के अवसरों पर भी पड़ा। बेस्ट मॉम का पहला अवॉर्ड मिला था अंकुल की माँ को। अंकुल अब हाई स्कूल की परीक्षा दे रहा है और बस्ती के बाक़ी बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ ही उनकी मदद भी करता है।

स्कूल के लिए तैयारी: बच्चों का नियमित आना अभी मैडम के घर तक ही था। यहाँ मैडम बच्चों के साथ कुछ खेल खेलतीं, कहानियाँ सुनातीं, पढ़ने-लिखने के मायने समझातीं। स्कूल जाने का सिलसिला अभी शुरू नहीं हुआ था। स्कूल जाने की तैयारी में उन्हें आपस में व शिक्षकों बात और व्यवहार करना सिखाना। उनके लिए स्कूल ड्रेस, बस्ता, किताबें, जूते, आदि की व्यवस्था की जानी थी। इनमें सामान की व्यवस्था करना अब आसान होने लगी थी क्योंकि शहर के कुछ लोग इस मुहिम में साथ देने आगे आने लगे थे। मुख्य दिक़्क़त थी व्यवहार की, भाषा की। बातचीत में गाली देना सामान्य बात थी क्योंकि बच्चे इसी माहौल में पले-बढ़े थे। बड़ों से कैसे बात करनी होती है नहीं जानते थे। चिंता यह भी थी कि अगर यह सब बदला नहीं तो स्कूल में जो बाकी बच्चे आ रहे हैं, उन्हें और उनके अभिभावकों को परेशानी भी हो सकती है। संगीताजी बताती हैं, “मेरे पास इसके लिए दो ही चीज़ें थीं— एक धैर्य और दूसरा प्रेम। मैं जानती थी इस बदलाव में वक़्त लगेगा। हालाँकि कई बार मैं भी कमज़ोर पड़ जाती थी, लेकिन फ़िर मासूम चेहरे याद आ जाते और मुझे ऊर्जा मिलती।”

 कुछ तो लोग कहेंगे: एक तरफ़ चुनौती थी बच्चों को स्कूल लाना, पढ़ाना, इसके लिए उन्हें तैयार करना, उनके घर वालों की मुश्किलें समझना, समाधान निकालना और भरोसा जीतना। दूसरी तरफ़ चुनौती थी लोगों का यह कहना, “यह तो पागलपन है।” संशय करना, “ज़रूर इनाम लेने के लिए कर रही होंगी, ज़्यादा दिन नहीं करेंगी”; ‘‘घर से पैसे लगाकर कितने दिन कर पाएँगी’’ “इसके पीछे ज़रूर कोई और मंशा होगी”; आदि। ऐसा भी नहीं कि संगीताजी पर इसका कोई असर न पड़ता हो, वो उदास न हुई हों, टूटी न हों, लेकिन उनका साथ दिया उनके परिवार ने। वे मन-ही-मन सोचतीं, “कुछ तो लोग कहेंगे”, और मुस्कुराकर बस्ती की तरफ़ चल पड़तीं...।

बच्चों को नए अनुभव देना: पढ़ना सिर्फ़ स्कूल में नहीं होता है, न सिर्फ़ किताबों से? संगीताजी इस बात को जानती थीं, और उन्होंने बच्चों की ज़िन्दगी में नए अनुभवों को शामिल करना शुरू किया। ऐसे अनुभव जो उनके जीवन में अब तक नहीं थे। मसलन, आसपास की जगहों को देखने जाना, उनके बारे में बच्चों से बातचीत करना, कार में बैठकर घूमना, मेज़-कुर्सी पर बैठकर खाना, टीवी देखना, आदि। ऐसे ही अनुभवों में एक अनुभव था बच्चों को कुछ खिलाने के लिए होटल ले जाना। जिस होटल के दरवाज़े के बाहर से ही भगा दिए जाते हों, वहाँ निडरता से जाना, टेबल पर मिल-बैठकर खाना, पार्टी करना एक नई दुनिया के खुलने जैसा था। वो बताती हैं, “उस दिन मैं बच्चों के साथ एक होटल में थी। तेज़ बारिश हो रही थी। एक बच्चा होटल के शीशे के इस पार से बारिश देख रहा था। एकदम चुप, एकटक। मैंने उससे पूछा, ‘इतने ग़ौर से क्या देख रहे हो?’ उसने भरी-भरी आँखों से मुझे देखा और कहा, “आज आपकी वजह से हम यहाँ हैं। बारिश में जब सारा शहर भीग रहा है, हम नहीं भीग रहे। कोई और दिन होता तो हमें सिर छुपाने के लिए भी कोई यहाँ खड़ा भी नहीं होने देता। हर कोई हमें डाँटकर भगा देता है। लेकिन आज हमें भगाने वाले ख़ुद भीग रहे हैं ।” उस बच्चे की आँखों में क्या था, पता नहीं। लेकिन संगीता मैडम की आँखें आज भी उस घटना के ज़िक्र होने-भर से छलक पड़ती हैं।
 


अकादमिक प्रयास
स्कूल जाने से पहले, स्कूल से आने के बाद: बच्चे संगीताजी से हिल-मिल गए थे, अभिभावक भी उनपर भरोसा करने लगे थे, लेकिन इतना-भर काफ़ी नहीं था। बच्चों की स्कूल जाने की तैयारी भी होनी थी। तो कभी बस्ती में जाकर और कभी बच्चों को घर बुलाकर उनकी पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई। इस मुहिम में रेखा और अनिल नाम के युवाओं ने साथ दिया, और शांतिजी ने न सिर्फ दिया, हौसला भी दिया। संगीताजी ने बताया “हम लोग बच्चों को रोज़ थोड़ी देर पढ़ाते थे। कोशिश यह होती कि इस पढ़ाई-लिखाई से उन्हें ऊब न हो। कभी उनकी पसन्द के खेल होते, कभी गाने होते, खाना-पीना होता, लेकिन साथ में होतीं किताबें। कहानियों और कविताओं से बात शुरू होती और अक्षर पहचान व रोज़मर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले गणित से जा जुड़ती। बच्चों के लिए यह मज़ेदार था कि किसने किसको कितने धक्के मारे, किसने कितनी रोटी खाईं, यह भी गणित है ।” बच्चों का जीवन बदलने लगा था। स्कूल की यूनिफ़ॉर्म में तैयार बच्चे मैडम द्वारा लगाई गई मोटरगाड़ी में बैठकर स्कूल जाते, दिनभर स्कूल में खेलकूद, पढ़ाई, और वापस मैडम के घर जहाँ मिलता बढ़िया भात। ये सिलसिला बरसों से ऐसे ही चल रहा है। अब भी बच्चे स्कूल के बाद मैडम के घर में देखे जाते हैं, जहाँ खाना खाते हैं, पढ़ाई होती है, खेलते हैं, टीवी देखते हैं। बच्चों के बस्ते मैडम के घर पर ही रहते हैं। यहीं से सुबह फिर बच्चे बस्ते लेकर गाड़ी में बैठकर स्कूल जाते हैं।

इन बच्चों के स्कूल आने से पहले स्कूल में बच्चों की संख्या 11 थी और अब 23 है। लेकिन यहाँ बात नामांकन बढ़ने से आगे की है। बच्चों में कोई भेदभाव नहीं है, अभिभावकों को भी कोई परेशानी नहीं है, सब मिलकर प्रेम से खेलते हैं, पढ़ते हैं।

सन्दर्भ से जोड़कर पढ़ाना: मैडम हर बच्चे को गले लगाती हैं, सिर पर हाथ फेरती हैं, और उनका हौसला बढ़ाती हैं। हाँ, यही है उनकी शिक्षण विधि का पहला हिस्सा। यही है उनका अपनी पेडागोजी के लिए बालमित्र वातावरण बनाना। बच्चे मैडम से अपनापन महसूस करने लगे हैं कि उनके द्वारा सीखने-सिखाने के लिए करवाई जा रही हर गतिविधि में उत्साह से भागीदारी करने लगे हैं।

जब तक बच्चों के सन्दर्भों को नहीं समझेंगे, सीखने-सिखाने के बीच एक दूरी रहेगी ही। इसका एहसास मुझे उस रोज़ स्कूल पहुँचकर हुआ। दो कमरे और एक छोटे से बरामदे वाले स्कूल में बच्चे व्यवस्थित ढंग से अलग-अलग समूहों में पढ़ रहे थे। संगीताजी बच्चों के बीच बैठी हुई थीं। उनके चारों तरफ़ अलग-अलग घेरे थे। ये अलग-अलग दक्षता स्तर के बच्चे थे, और वो सबके साथ, बारी-बारी से काम कर रही थीं। मैंने बच्चों से दोस्ती की, कुछ बच्चे शरमाए, लेकिन जल्दी ही दोस्त बन गए। मैं कक्षा 1 के बच्चों के उस समूह के पास बैठ गई जो अभी वर्णों से शब्द बनाना और शब्दों में वर्ण पहचानना सीख रहे थे। सोचा, जो ये पढ़ रहे हैं उसी के बारे में क्यों न बात की जाए! मैंने पूछा, “अच्छा, ‘ब’ से और क्या-क्या होता है?” बच्चों ने ज़रा भी देर किए बिना बताना शुरू किया... बारिश, बकरी, बेकार, बकबक, बदबू, बेर। फिर ‘क’ से कबूतर कहीं जा उड़ा, और जो शब्द आए वो थे... कूड़ा, कचरा, काना, कल्लू, कचूमर, कद्दू। बच्चों को उनके सन्दर्भ से जोड़कर पढ़ाया जाना ज़रूरी है, यह सन्दर्भ यहाँ ठीक-ठीक खुल रहा था। फिर कुछ देर गणित के मौखिक सवालों पर काम किया जिससे बच्चे जोड़-घटाना समझ सके। बाद में बच्चों से पूछा, “तुम्हें खाने में क्या पसन्द है?” बच्चों ने कहा... दाल, चावल, भात, दाल, दाल-भात, खिचड़ी... बस इतना ही।

 टीएलएम का उपयोग और एक दूसरे से सीखना: संगीता मैडम बच्चों के मन को समझने की कोशिश करतीं जिससे उन्हें पढ़ना अच्छा लगे। उन्होंने खेल गतिविधियाँ, खिलौने और साथ में टीएलएम आदि का इस्तेमाल करना शुरू किया। कुछ जोड़ना था, कुछ घटाना था, कुछ शब्दों के खेल खेलने थे, कहानियाँ सुननी थीं, सुनानी थीं और लिखने-पढ़ने की ओर बढ़ना था। प्रोत्साहन का जादू ख़ूब चल रहा था। एक बच्चा कुछ सीखता तो उसे वही बात दूसरे को सिखाने को कहतीं। उन्होंने ऐसे समूह बनाए जिनमें अलग-अलग दक्षता वाले बच्चे भी थे जो एक दूसरे से सीख रहे थे। पढ़ना और लिखना बोझ न लगे, मज़ेदार लगे, इसका पूरा ध्यान उन्होंने रखा। तमाम समस्याओं के बीच अब बच्चों को सहजता से लिखना-पढ़ना आने लगा है।

स्कूल संसाधन और प्रबन्धन सब बच्चों के हवाले: स्कूल में दो कमरे हैं। एक कमरा मिला-जुला रीडिंग रूम व लाइब्रेरी का है जिसमें आयु समूह अनुसार बच्चों के लिए विविध रोचक किताबें हैं। यहाँ बच्चों के पढ़ने के लिए अच्छी बैठक व्यवस्था है। लाइब्रेरी का संचालन बच्चे ही करते हैं। दूसरे कमरे में हिन्दी, अँग्रेज़ी, गणित, ईवीएस, आदि विषयों के तरह-तरह के टीएलएम, प्रोजेक्ट, मॉडल हैं जिन्हें बच्चों ने मैडम के साथ मिलकर बनाया है। बच्चे इनके बारे में विस्तार से बात कर लेते हैं, और बता पाते हैं कि किस प्रोजेक्ट का मतलब क्या है। इस कमरे में एक कम्प्यूटर है जिसका उपयोग बच्चे ही करते हैं। उन्हें पता है किस लिंक पर कौन-सी कहानी मिलेगी, और कहाँ सवालों के बारे में बात होगी। वे पूरे आत्मविश्वास से कम्प्यूटर चलाते हैं, और डेटा के लिए मैडम का फ़ोन ले आते हैं। मैडम का फ़ोन तो जैसे बच्चों का अधिकार क्षेत्र है। मैडम भी ख़ुशी-ख़ुशी अपना फ़ोन उन्हें दे देती हैं। और हाँ, बच्चों की पढ़ाई बाहर बरामदे में होती है क्योंकि वहाँ रोशनी बेहतर है।

इस तरह आपसी समन्वय से यहाँ शिक्षण भी होता है और खेल भी। यही वजह है कि स्कूल के 4 बच्चे राज्य स्तरीय खेलों में प्रतिभाग करने जा रहे हैं। समाज में भले ही तरह-तरह के भेदभाव का व्यवहार हो, लेकिन स्कूल में इसकी कोई जगह नहीं है। सारे बच्चे एक दूसरे के साथ खेलते हैं, पढ़ते हैं और खाते हैं। वे एक दूसरे की सीखने में मदद करते हैं। इसके लिए मैडम ने बच्चों के अलग-अलग समूह बनाए हैं। इनमें सारी अस्मिताओं के बच्चे शामिल हैं। पढ़ाई के समूह खेल के समूहों से अलग हैं। महत्त्वपूर्ण है कि स्कूल के वातावरण में भेदभाव की कोई गुंजाइश ही नहीं। बच्चे कहने से ज़्यादा देख समझकर सीखते हैं, और इसे यहाँ बख़ूबी देखा जा सकता है।

“यहाँ एक बगिया है जिसे बच्चों ने बनाया है”, बताते हुए संगीताजी ने मेरे सामने लाल चाय का गिलास बढ़ा दिया। “इसमें बच्चों के लगाए पेड़ का नींबू है”, कहते हुए मैडम की आँखें मुस्कुरा रही थीं, और सामने मुस्कुरा रहा था बच्चों के हाथों से रोपा और सहेजा गया नींबू का पेड़।



हर बच्चे का सम्मान है: ‘ये बच्चे’, ‘इनके घर वाले’, ‘इनसे’, ‘ये लोग’ जैसे सम्बोधन बच्चों या उनके घरवालों के लिए करना ठीक नहीं। बच्चे कहते कुछ नहीं, लेकिन सुनते तो हैं, और उन्हें इस बात का बुरा भी लगता है। इस तरह के सम्बोधन उन्हें अलग तरह से श्रेणीबद्ध करते हैं। संगीताजी इस तरह के सम्बोधनों का न तो ख़ुद उपयोग करती हैं न किसी को करने देती हैं। बच्चों के सम्मान में ज़रा-सी भी कमी उन्हें एकदम सहन नहीं।

पढ़ने-लिखने में अलग से सहयोग: पढ़ने-लिखने का सफ़र भी आसान नहीं रहा। लेकिन ये बच्चे किसी से कम नहीं हैं यह बात समझना भी ज़रूरी था। मैंने लोगों के साथ मिलकर बच्चों को अलग से पढ़ाना शुरू किया। इस पहल ने ब्रिजिंग का काम किया। धीरे-धीरे बच्चों का सीखना गति पकड़ने लगा। जब कोविड आया तो लगा अब यह सिलसिला टूट जाएगा। लेकिन भरोसे की हिम्मत से कोविड में भी सारे नियमों का पालन करते हुए बच्चों का पढ़ना-लिखना जारी रहा।

जो शहर बहुत कुछ कहता था: संगीताजी कहती हैं, “शहर जो मेरे काम को एक पागलपन का नाम दिया करता था, या कुछ को लगता था कि ये सब ज़्यादा दिन नहीं चलेगा, या मैं यह सब वाहवाही लेने या पुरस्कार पाने के उद्देश्य से कर रही हूँ, लेकिन धीरे-धीरे इन सारी ग़लतफ़हमियों से पर्दा हटता गया, और जो लोग सन्देह करते थे अब साथ देने लगे हैं। बच्चों ने मुझे इतना प्यार दिया है, मुझ पर इतना भरोसा किया है कि मेरी आँखें भीग जाती हैं। एक बार मैं बीमार पड़ी, स्कूल नहीं जा सकी तो स्कूल के बाद बच्चों ने मेरा खूब ध्यान रखा। कोई जूस निकालकर ला रहा था, कोई फल काटकर खिला रहा था, और कोई मेरे लिए चाय बना रहा था।” लोगों के मन में सवाल आ सकता है कि अपने पास से पैसे खर्च करके, अपना समय और ऊर्जा लगाकर कोई क्यों काम करेगा भला लेकिन मुझे जो संतुष्टि मिलती है बच्चों को पढ़ते देख वो बेशकीमती है। मेरे लिए यह आसान नहीं होता अगर मेरा परिवार मेरा साथ न देता। साथ देते हैं स्कूल के बाकी साथी भी। प्रिंसिपल ललित मोहन बिष्ट कहते हैं, ‘मैडम बहुत अच्छा काम कर रही हैं। मैं जितना संभव हो उनके प्रयासों में साथ देने का प्रयास करता हूँ’।

 


कुछ अफ़सोस, कुछ उम्मीद: सब ठीक चल रहा है, लेकिन अभी बहुत कुछ ठीक होना बाक़ी है। आसपास के स्कूल इन बच्चों को अपने यहाँ दाख़िला नहीं देते। अभी और बच्चे हैं जिनका स्कूल जाना बाक़ी है। टुकड़ों में मदद करना या प्रशंसा करना अलग बात है, लेकिन बच्चों को दिल से अपनाना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। उसमें अभी कमी है। मेरे पास बच्चे पाँचवीं तक ही तो पढ़ सकते हैं, लेकिन उनका सफ़र तो लम्बा है। सबको यह बात समझना ज़रूरी है कि शिक्षा उनका अधिकार है। मुझे बहुत अफ़सोस है कि मेरे स्कूल का एक बच्चा, अंकुल, किसी और स्कूल में दाख़िला न मिलने के कारण दसवीं की प्राइवेट परीक्षा दे रहा है, जबकि उसे किसी भी स्कूल में दाख़िला मिलना चाहिए था।

मैं चाहती हूँ कि अंकुल की पढ़ाई पूरी हो, उसे नौकरी मिले जिससे इस समुदाय को भरोसा हो कि इस दुनिया में उनका भी उतना ही हिस्सा है जितना बाक़ी सबका। सम्मान की रोटी कोई ख़्वाब नहीं है। अभी तो शुरुआत है, यह सफ़र अभी लम्बा है...

“शिक्षा, सामाजिक न्याय और समानता प्राप्त करने का एकमात्र और सबसे प्रभावी साधन है। समतामूलक और समावेशी शिक्षा न सिर्फ़ स्वयं में एक आवश्यक लक्ष्य है बल्कि समतामूलक और समावेशी समाज निर्माण के लिए भी अनिवार्य क़दम है, जिसमें प्रत्येक नागरिक को सपने सँजोने, विकास करने, और राष्ट्र हित में योगदान करने का अवसर उपलब्ध हो।”

— नई शिक्षा नीति 2020

“संगीता फ़रासी एक मेहनती अध्यापिका हैं। उन्होंने जिस तरह अभिभावकों को विश्वास में लेकर बच्चों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया है वो वस्तुतः किसी संस्था के पूर्णकालिक काम के समान कहा जा सकता है। बच्चों के लिए अपने संसाधनों से स्कूल आने-जाने की व्यवस्था सुनिश्चित करना, और शाम को अपने घर पर उन्हें पढ़ाना प्रेरणा देता है। बस्ती के परिवारों से उन्होंने जो आत्मिक रिश्ता बनाया है, उनका भरोसा जीता है वो अपने-आप में विशेष है।” — अश्विनी रावत, खण्ड शिक्षा अधिकारी खिर्सू, ज़िला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड

“संगीता मैडम ने एक मिसाल क़ायम की है। जो बच्चे पहले इधर-उधर भटकते थे अब वो स्कूल जाते हैं, पढ़ते हैं, कितना सुन्दर है ये!”

— संध्या नेगी, सब इंस्पेक्टर महिला थाना, श्रीनगर, उत्तराखंड

(प्रतिभा कटियार 14 वर्ष हिन्दी प्रिंट मीडिया में पत्रकारिता करने के बाद अज़ीम प्रेमजी फ़ाउण्डेशन के साथ जुड़कर काम कर रही हैं। इनकी 4 पुस्तकें प्रकाशित हैं और दो कहानियों पर लघु फ़िल्मों का निर्माण हुआ है। अंडमान पर लिखा यात्रा संस्मरण और कविता ओ अच्छी लड़कियो कर्नाटका के रानी चेनम्मा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। इनकी कविताओं का गुजराती, मराठी और अँग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है।)

सम्पर्क: pratibha.katiyar@azimpremjifoundation.org

Monday, May 5, 2025

'कबिरा सोई पीर है'- अनसुनी आवाजों की दास्तान


सूरज की किरन सिर पर से टप्पा खाकर जमीन पर लुढ़क गयी थी। ठीक उसी जगह जहां रात भर खिलखिलाने के बाद ऊँघते हुए मोगरे झरे पड़े थे और गिलहरियों की उदुक-फुदुक चल रही थी। अरसे से कैद एक लंबी सिसकी के रिहा होने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था जैसे तपती दोपहर पर किसी ने पानी के छींटे मारे हों।

नहीं जानती कि कैसे लिखा जाता है कोई उपन्यास, कोई कहानी, कोई कविता या कुछ भी। कभी-कभी तो लगता है कि कैसे जिया जाता है जीवन यह भी तो नहीं जानती। बस हर दिन एक इरेज़र और एक पेंसिल लिए घूम रही हूँ कि ज़िंदगी की कॉपी पर दर्ज अनचाही इबारतें मिटाकर कुछ सलोनी सी इबारतें लिख सकूँ। फिर एक रोज समझ आता है कि ऐसा इरेज़र इस सामंती सामाजिक व्यवस्था ने बनने ही नहीं दिया जिससे अन्याय, पीड़ा और जुल्म की इबारतों को मिटाया जा सके। और पेंसिल ऐसी मिली कि उसे जितना छीलो वो टूटती जाती है। कच्ची पेंसिल। कि इसे बनाकर बमुश्किल दो-चार शब्द लिखते ही यह फिर टूट जाती है। लिखने, मिटाने के इस खेल में ज़िंदगी की कॉपी में काफी गचर-पचर हो गयी। जो मिटाया वो मिटा नहीं, जो लिखा वो दिखा नहीं। कुछ लोग, कुछ अस्मितायें ज़िंदगी का वही पन्ना हैं जो इरेज़र लगातार घिस रहे हैं इतना कि कॉपी का पन्ना ही कई बार फट जाता है और लिखने की कोशिश में पेंसिल ही नहीं उँगलियाँ तक छील चुके हैं।

जबकि इसी बीच कुछ लोगों के पास थे बढ़िया जेल पेन और अच्छे से चिकने कागज़ वाली डायरी। जिस पर उन्होंने लिखा कि 'सब ठीक है' 'कहीं कोई अन्याय नहीं' या फिर राजनैतिक लाभ के लिए तमाम अस्मिताओं के जीवन के लिए जो जरूरी एहबाब था उसे मुद्दों में तब्दील कर लिया। परीक्षा में निबंध का विषय, कविता, कहानी या उपन्यास का विषय और...और बस।

गिलहरियों की उदुक-फुदुक को देखते हुए आसमान की ओर देखा तो आँखें भर आयीं। गर्दन सीधी करके चलना भी कहाँ सीखा था जो यूं आंख भर आसमान देखते। आज इस देखने में जीवन की लंबी यात्रा, न जाने कितनी चुभी, अनचुभी किरचें शामिल हैं। वो कितनी ही चुप्पियां जो आवाज़ बन पाने की आस में मुरझाती रहीं।

एक रोज सदियों से दरकिनार की गयी अस्मिताओं ने अपनी चुप्पियों को खाली बंजर जमीन पर बो दिया था। उनके आंसुओं की बरसात और संघर्षों की धूप ने उन चुप्पियों के बीजों की परवरिश की और उस बंजर जमीन पर अंकुर फूटे। यह उपन्यास वही अंकुर है। नारों, भाषणों, विमर्शों के शोर में अनसुनी आवाजों के अंकुर। जो बुदबुदाते हुए कहती हैं, 'जिस बारे में आप सब बात कर रहे हैं वो मैं हूँ।' विमर्श और चर्चाओं में व्यस्त लोग उन आवाज़ों को मुंह पर उंगली रखने का इशारा करते हुए चुप रहने का संकेत करते हैं।

वही आवाजें इस उपन्यास में सुस्ताने चली आई हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए शायद पाठक उन आवाज़ों को देख पाएँ, महसूस कर पाएँ, उनकी तरफ हाथ बढ़ा सकें, गले लगा सकें।

सबको उनके हिस्से की धूप, बारिशें और जीवन पूरे अधिकार के साथ मिले इसी कामना के साथ पहला उपन्यास आप सबके हवाले है।

link of the book- https://shorturl.at/47uu7

Monday, April 21, 2025

मेरे भीतर पाखंड भरा है



'मैं ख़ुद के भीतर चल रही इस उलझन को समझ नहीं पा रहा हूँ तृप्ति। मुझे लगता था मैं काफी लिबरल हूँ, लेकिन इस एक घटना ने मेरी अब तक अपने बारे में बनाई गई राय को खंडित कर दिया। मुझे महसूस हुआ कि मेरे भीतर काफी पाखंड भरा है, लिबरल होने का पाखंड। मैं आम आदमी ही हूँ, आम पुरुष, बल्कि उनसे भी बुरा। क्योंकि मैंने अपने भीतर लिबरल होने का झूठ पाल रखा है।'
 
कबिरा सोई पीर है • प्रतिभा कटियार
#साथजुड़ेंसाथपढ़ें #लोकभारतीप्रकाशन

Wednesday, April 16, 2025

कबिरा सोई पीर है- सामाजिक विषमताएं उभरती हैं पात्रों के अंतर्द्वंद्व में


- सुरेखा भनोट 

इंतजार के बाद आ ही गया 'कबिरा सोई पीर है' मेरे हाथों में भी। और एक ही दिन में चार बार शांत वातावरण ढूंढकर इस बेहद सुंदर कृति को पढ़ लिया। पूरा दिन तृप्ति ,अनुभव ,सीमा, कनिका,उनके परिवारजन, उनके संघर्ष, अन्तर्द्वन्द महसूस करती रही। प्रतिभा, तुमने प्रत्येक पात्र जो विविध मानसिकता, विभिन्न परिस्थितियों में जी रहे हैं, अपने संघर्ष, अन्तर्द्वन्द के साथ, उनके आपसी संबंधों को कुछ ऐसा गढ़ा है कि हम हर पात्र को बिना किसी मूल्यांकन के समझ पाते हैं। इन पात्रों के माध्यम से तुमने बेबाक उभारा है जाति का दंश, दंभ, पितृसत्ता की साजिश, स्त्री की निरहिता , सामाजिक विषमताएं। 

भाषा बहुत सुंदर ,सरल कवितामय है।  हर प्रसंग एक उपयुक्त शेर से शुरू होता है, अंत में पूरा शेर। यह शैली मुझे बहुत रास आई। ऋषिकेश शहर, उसमे बहती गंगा का विवरण और उसका सबके साथ एक अपना ही प्यार सा रिश्ता है जो भी मन को छू जाता है। 

प्रतिभा का कवि मन, उसकी कल्पना, प्रकृति के साथ तादात्म्य झलकता है पूरे उपन्यास में। कनिका और तृप्ति की दोस्ती स्वयं प्रतिभा के अनन्य लोगो के साथ खूबसूरत दोस्ती की झलक है। ये किताब तो बार-बार, कोई भी पृष्ठ खोलकर स्वयं को , समाज को सुंदर, भरोसेमंद बनाने के लिए प्रेरित करेगी, मार्गदर्शन देगी। 

शाबाश, बधाई, प्यार प्रतिभा इतना सुंदर उपन्यास लिखने के लिए! 🥰

(सुरेखा जी बिट्स पिलानी की प्रोफेसर रही हैं। सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक कार्यों से जुड़ी हैं।)

Monday, April 14, 2025

बेहद प्रासंगिक है 'कबिरा सोई पीर है'



- श्रुति कुशवाहा 
(पत्रकार, कवि)
आजकल एक ट्रेंड सा चल पड़ा है…आप किसी मुद्दे को उठाइए और कई लोग मंत्र की तरह जपने लगेंगे ‘अब ऐसा कहा होता है’ ‘दुनिया बदल गई है’ ‘आप किस ज़माने की बात कर रहे हैं’ ‘ये सब गुज़रे समय की बात हो गई’। मुद्दों को डाइल्यूट/डिस्ट्रेक्ट/डायवर्ट करने का ये सबसे आसान तरीका है।
 
आपके घर में..आपके मोहल्ले में..आपकी सोसाइटी में या आपके आसपास का माहौल बदल जाने भर का अर्थ ये नहीं कि सारी दुनिया बदल गई है। दुनिया उतनी रंगीन नहीं है..जितनी आपके चश्मे से दिखाई देती है।
दुनिया आज भी बेतरह चुनौतीपूर्ण, संघर्षों और समस्याओं से भरी हुई है..जिसे Pratibha Katiyar के उपन्यास ‘कबिरा सोई पीर है’ में पूरी मुखरता से दर्शाया गया है।

‘जाति’ पर बात करना आज के समय में कुछ आउटडेटेड मान लिया गया है। बार-बार वही जुमला सुनाई देता है…’अब कहा होता है भेदभाव’ ‘अब तो *उनको* सारी सुविधाएं मिला हुई हैं, रिजर्वेशन है, हम *उनके* हाथ का खा भी लेते हैं, *उनके* घर आना-जाना भी है*’। लेकिन इन सबमें ये जो “उनके” है न…यही भेदभाव है। आज भी रिजर्वेशन के नाम पर कितने लोग मुँह बिचकाते हैं..कभी गौर किया है आपने ?

‘कबिरा सोई पीर है’ उपन्यास में इस विषय पर बहुत गहनता से गौर किया गया है। एक प्रेम-कहानी है जिसके इर्द-गिर्द वास्तविक दुनिया कितनी प्रेम-विहीन और निष्ठुर है..ये उकेरा गया है। यकीन मानिए प्रेम की भी राजनीति होती है। प्रेम भी समय और समाज के कलुष से अछूता नहीं रह पाता। चाहे जितना प्रगाढ़ हो..प्रेम पर भी कुरीतियों के कुपाठ का प्रभाव पड़ता है।

प्रतिभा जी के उपन्यास को पढ़ते हुए मन बार-बार व्यथित होता है। मैंने कई बार चाहा कि पन्ना पलटने के साथ काश कोई जादू हो जाए। लेकिन ये चाहना वास्तविकता से मुँह फेरना ही तो है। और उपन्यास वास्तविकता से बिल्कुल भी मुँह नहीं फेरता है। इसमें कई मुद्दों को छुआ गया है लेकिन जाति व्यवस्था मूल विषय है। यहाँ कोई लागलपेट नहीं है..कोई छद्म आडंबर नहीं है..शब्दों की चाशनी नहीं है..भाषा का खेल नहीं है..सौंदर्य का कृत्रिम आवरण नहीं है। 

इस उपन्यास में आपको खरा सच मिलेगा..और सच से आँख मिलाने की कठिन चुनौती भी।
बहुत सुंदर कविताएँ और कहानियाँ लिखने वालीं प्रतिभा कटियार जी का ये पहला उपन्यास है जिसमें सरोकार, ईमानदारी और बेबाकी के साथ इस गंभीर मुद्दे को उकेरा गया है। ये उपन्यास आपकी संवेदनाओं को झकझोरता है और कई प्रश्नों के साथ छोड़ जाता है। इसे पढ़ने के बाद कोई भी संवेदनशील व्यक्ति बेचैनी से भर जाएगा। जब तक मनुष्य को जाति के पैमाने पर तौला जाता रहेगा..इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी रहेगी। और आज के विद्रूप होते समय में ये उपन्यास बेहद प्रासंगिक है।

‘कबिरा सोई पीर है’ पढ़ा जाना चाहिए और इसमें उठाए सवालों पर मनन होना चाहिए।

Saturday, April 12, 2025

समाज की सच्चाई की परतें खुलती हैं कबिरा सोई पीर है में



- जयंती रंगनाथन 
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक )

प्रतिभा कटियार बेहद अजीज है, सालों का रिश्ता है। अंदर-बाहर से बेहद प्यारी। हम कम मिले हैं, पर जब भी मिले हैं, झूम कर, प्यार से और ऐसे कि कोई बेहद पुराना सा रिश्ता हो।
प्रतिभा बहुत प्यारी और गहरी कविताएं लिखती हैं। उसका पहला उपन्यास आया है कबिरा सोई पीर है, लोकभारती पेपरबैक्स से। बिलकुल प्रतिभा की ही तरह है उसका उपन्यास, बोलता हुआ और बहुत कुछ कहता हुआ। जितना लिखा है, उससे भी गहरा।

प्रतिभा ने अपने पहले उपन्यास का विषय साहस से उठाया है, समाज का वो वर्ग, जो सालों से दबा-कुचला रहा है। उस वर्ग की दो बहनें तृप्ति और सीमा अलग-अलग तरह से अपने परिवेश और घुटन से लड़ती हैं। तृप्ति पढ़ने में होशियार, सीमा व्यवहारकुशल। सांवली और औसत दिखने वाली तृप्ति सिविल सर्विस के मुहाने पर खडी है, प्रिलिम्स क्लीयर कर चुकी है। कोचिंग क्लास का साथी सवर्ण लड़का उसे चाहता है। पर जाति की दीवार इतनी लंबी-चौंडी-संकरी है जिससे पार पाना मुश्किल। उपन्यास पढ़ते हुए कई बार मैंने पन्नों को मोड़ कर रख दिया, इस दुआ के साथ कि आगे के पन्नों पर बहनों के साथ सब अच्छा हो। भरे मन के साथ पन्ने खोलती। वहां तो सच की चादर तनी थी। एक गुस्सा सा व्याप्त होने लगा कि हम जिस जमीन पर खड़े हैं, वहां से एक गज नीचे हमने दूसरों को रहने लायक छोड़ा ही नहीं।

इस उपन्यास की कई परतें हैं। किरदारों की भी। आप अंत तक यही मनाते हैं कि सब ठीक हो जाए।
एक बात और, मैंने जो जिंदगी देखी और आसपास देख रही हूं, वहां अब जाति को ले कर इतने खूंखार मसले नहीं रहे। हमारी बिल्डिंग में ही गाड़ी साफ करने वाले आदमी को जब किसी गाड़ी के मालिक ने गाली दी, तो हंगामा हो गया। अंतत: पुलिस आई, गाली देने वाले को उठा कर ले गई और उसे माफी मांगनी पड़ी। इस चेतावनी के साथ कि आगे से वो गाली-गलौच नहीं करेगा। माली, काम वाली, क्लीनर सबके बच्चे घर आते हैं, बिल्कुल हमारे बच्चों की तरह रहते हैं। सबके बच्चे मिल कर खेलते हैं। मैंने कभी किसी माता-पिता को यह कहते नहीं देखा कि तुम माली या ... के बच्चे के साथ नहीं खेलोगे
माहौल बदल रहा है। सकारात्मक बदलाव।
इस समाज का सालों से हमें इंतजार था
बड़े पदों पर एससी एसटी काम कर रहे हैं, पूरी इज्जत के साथ।
किसकी हिम्मत है कि उनके कहे की अवहेलना करे

यह भी अहम बात है कि गांव-कस्बों में दलितों खासकर लड़कियों के साथ होने वाली नृशंस घटनाओं की खबर लगभग रोज अखबारों में छपती हैं। दिल दहलाने वाली। खून खौलता है कि कैसे उन्हें बचाया जाए
ऐसे परिप्रेक्ष्य में तृप्ति और उसके परिवार का संघर्ष पढ़ना भारी कर जाता है

पर हमारे यहां की तमाम तृप्तियों और सीमाओं को उनकी मनचाही जिंदगी जीने का हौसला मिले यही कामना है।
प्रतिभा ने कबिरा सोई पीर है में अपना दिल उडेला है, कलेजा छलनी कर देता है इसका विवरण और इसके किरदार। मन ही मन खूब दुआ तुम्हारे लिए प्रतिभा। सच को सुनना और लिखना हर किसी के बस की बात नहीं है।

Thursday, March 27, 2025

जब उदास होती हूँ


जब उदास होती हूँ
किसी नदी का हाथ थाम लेती हूँ
  
जब फफक कर रो पड़ने को होती हूँ 
किसी पेड़ को गले लगा लेती हूँ 

जब अन्याय की पराकाष्ठा होती है 
और मूर्खतापूर्ण बहसों का दौर शुरू होता है 
किसी मजदूर के पास बैठकर 
उसकी बीड़ी साझा करती हूँ।  

जब दुनिया नाउम्मीदी से भरने को होती है 
किसानों के साथ मिलकर 
उम्मीद के बीज बोने लगती हूँ 

जब नायक की विद्रूप हंसी भयभीत करती है 
बेहतर दुनिया के सपने देखने लगती हूँ 

जानती हूँ मेरे अकेले के बस का नही 
इस दुनिया को जीने लायक बना पाना 
फिर भी स्त्री हूँ, हार कैसे मानूँगी
इसलिए अपने हिस्से के काम 
और सुभीते से करने लगती हूँ...

Wednesday, March 26, 2025

मनोकामिनी सा मन



बीतती नहीं वो रात 
जब आसमान झील में औंधा पड़ा था 
और जुगनू हमारे साथ 
झील में पड़े सितारों से बतिया रहे थे 

हवाओं में एक खुनक थी 
और तुमने मेरी देह पर 
ख़ामोशी की चादर लपेट थी 

तुम्हारी आँखों से सारा अनकहा 
मनोकामिनी की ख़ुशबू सा झर उठा था 
झील की सतह पर हवाएँ नृत्य कर रही थीं 
जैसे नृत्य करती है स्त्री की अभिलाषा 

हमने साँसों के सम पर मुस्कुराहटें पिरो दीं थीं 
सितारों भरा आसमान 
आसमान काँधों से आ लगा था

कोई तारा टूटने नहीं दिया तुमने उस रोज 
कि हर ख़्वाब को आहिस्ता से सहेज लिया 

इन जिये हुए लम्हों ने दुनिया संभालने की ताक़त दी है 
इन उम्मीद भरे लम्हों ने मज़लूमों का साथ देने 
और मगरूर शासक से आँख मिलाने की हिम्मत दी है 

हाँ, प्रेम जरूरी है दुनिया को सुंदर बनाने के लिए 
इंसानियत में आस्था बनाए रखने के लिए। 

Monday, March 24, 2025

जिद्दी हवाओं के गीत



झील में डुबकी लगाकर आई हवाओं में 
कोई बेफिक्री तारी थी 

देर रात की जाग 
हवाओं की आँखों की चमक थी 

उन्हें न सूरज से निस्बत 
न पहाड़ से, न जंगल से 
उन्हें बस हमारे करीब आना था 
हम दोनों के बीच ही बैठना था 
हम दोनों का हाथ थामना था 
उन्हें हमारी सुबह की चाय में 
किसी जादू सा घुल जाना था 

वो जिद्दी हवाएँ थीं 
सुबह बीत जाने के बाद भी 
अपनी पूरी धज से इतरा रही हैं 

उन जिद्दी हवाओं की खुशबू 
रोज एक गीत लिखती है 
कि दुनिया एक रोज 
सबके जीने के लायक होगी 
न कोई हिंसा होगी, न कोई नफरत 

उन गीतों को 
एक ख़्वाबिदा सी लड़की 
रोज गुनगुनाती है 
सूरज की किरणें उन गीतों को 
लाड़ करती हैं 

तुम मेरा माथा चूमते हो 
और धरती आश्वस्ति की धुन पर 
झूम उठती है। 

Sunday, March 23, 2025

पंछी घर देर ले लौटे थे उस रोज...



दुनियादारी और जिम्मेदारियों के बोझ से
बस झुकने को थे कांधे 
कि तुम्हारे स्पर्श के फाहे 
राहत बन उतर आए थे उन पर
 
आँखों के नीचे सदियों के रतजगे 
अपनी स्थाई पैठ बनाने ही वाले थे 
कि तुम्हारी पोरों की छुअन ने 
उन्हें गुलाबी पंखुड़ियों में बदल दिया था 

भागते-दौड़ते पैरों में उग आए छालों तले 
तुमने अपनी हथेलियाँ रख दी थीं 
और पीड़ा का सुर 
प्रेम के सुर में ढलने लगा था 

तुम जानते हो कि 
स्त्री के दुख का उपाय सिर्फ प्रकृति के पास है 
इसलिए हमेशा 
तुम तोहफे में कभी नदी, कभी जंगल 
कभी समंदर तो कभी तारों भरा आसमान भेजा करते 

कोई दुख कैसे टिकता भला जब 
सामने प्यार से भरा सागर हो 
और साथ हो तुम्हारा प्रेम...

सूरज ने थोड़ा ओवरटाइम किया था उस रोज 
और पंछी भी घर देर से लौटे थे। 

Saturday, March 22, 2025

हम मिलेंगे


 हम मिलेंगे 
जब सूरज डूबा नहीं होगा 
और साँझ 
नदी में झिलमिलाते दिन की परछाईं 
एकटक देख रही होगी 

हम मिलेंगे जब नफ़रतें 
अपना सामान समेटकर जाने को होंगी 
और दुनिया के सारे रास्ते 
इश्क़ गली की ओर मुड़ रहे होंगे 

हम मिलेंगे 
जब शाखें उम्मीदों से भर उठेंगी 
तारों भरा आसमान 
हथेली पर उतर आएगा 
और तुम सप्तऋषि मण्डल को 
मेरे माथे पर सजाते हुए कहोगे 
कि देखो पल भर को ही सही 
हमारे प्यार ने 
दुनिया को सुंदर बना तो दिया है। 

गुजराती अनुवाद- 
|| આપણે મળીશું ||
આપણે મળીશું
જ્યારે
સૂર્ય હજુ ડૂબ્યો નહીં હોય
અને સાંજ
નદીમાં ઝબકતા દિવસના ઓળા
એકીટશે નિહાળતી હશે
આપણે મળીશું
જ્યારે નફરત પોતાનો સામાન સંકેલીને જવામાં હશે
અને દુનિયાના બધાં રસ્તા
પ્રેમ - ગલી તરફ વળતાં હશે
આપણે મળીશું
જ્યારે શાખાઓ આશાઓથી લચી પડી હશે
તારા - ખચિત આકાશ
હથેળીમાં ઉતરી આવ્યું હશે
અને તું
સપ્તર્ષિ - મંડળને મારી સેંથીમાં પૂરીને કહીશ
' જો, ભલે પળવાર માટે હો
પણ આપણા પ્રેમથી
દુનિયા સુંદર બની તો ખરી ને ! '
- પ્રતિભા કટિયાર
- હિન્દી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી