Monday, September 22, 2025

मन प्यार में डूबा रहा


कहीं भी जाती हूँ लौटकर आना चाहती हूँ, वहाँ जहां मेरे इंतज़ार में होता है मेरी खिड़की में टंका आसमान। मुस्कुराता हुआ हरसिंगार, सिरहाने रखी बिना पढ़ी गयी किताबों की ख़ुशबू और देर तक छाया रहने वाला सन्नाटा। इस बार लौटी हूँ तो हरसिंगार मुस्कुराकर नहीं खिलखिलाकर मिले। देर तक उसकी छाया में खड़ी रही। ख़ुशबू महसूस करती रही। दो बित्ते के थे जनाब जब इन्हें 4 बरस पहले घर लाई थी। माशाअल्लाह, बाँके जवान हो गए हैं जनाब। पहले मैं इनका ख़याल रखती थी अब ये मेरा रखने लगे हैं। ख़ुशबू साँझ से दुलराने लगती है। रात के बढ़ते ही जैसे सितारे उतर आए हों...देखती हूँ तो देखती ही जाती हूँ।
 
सितारों की ओढ़नी लेकर सो जाती हूँ और सुबह उनींदी आँखों से देखती हूँ, वो मुस्कुराकर कहता है, 'गुड मॉर्निंग'। मैं अलसाई हंसी उसे सौंपकर चाय का पानी चढ़ाती हूँ कि तभी कानों में जैसे कोई कोमल सुर घुलता है। चौंकती हूँ, कहीं कोई नहीं, कोई भी तो नहीं...ये कैसी आवाज़। जैसे किसी की सांस की आवाज़ हो।

ओह भ्रम होगा, माथे पर अपना ही हाथ मारते हुए हंस देती हूँ लेकिन वह आवाज़ फिर सुनाई देती है। इस बार सिहरन सी दौड़ जाती है। चाय लेकर बालकनी में आती हूँ, वह आवाज़ वहम नहीं थी, वो हरसिंगार के झरने की आवाज़ थी। कैसे हौले से शाखों से उतरकर झूमते हुए धीरे धीरे ज़मीन पर बिछ रहे हैं। कभी किसी दूसरी शाख पर अटक जाते हैं जैसे कुछ कहना रह गया हो, कहकर फिर झर जाते हैं। जहां झरते हैं उस जगह को सुफेद और नारंगी रंग की ओढ़नी सा सजा रहे हैं।

कश्मीर यूनिवर्सिटी की वो दोपहर याद हो उठी जब ऐसे ही झरते देखे थे चिनार के पत्ते। जैसे झरने का सुर लगा हो कोई। मध्धम, कोमल सुर।

जीवन जब सूचनाओं का अम्बार हो चुका हो, सूचनाओं पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का सैलाब बहा ले जाने को आतुर हो तब ऐसी सुर लगी सुबहों के प्रति मन कृतज्ञ हो उठती हूँ। तमाम ख़बरों के बीच ज़ुबिन गर्ग के लिए आसाम के लोगों के प्यार ने कल दिन भर थामे रखा। इस सुबह की मखमली छुअन मैं ज़ुबिन की याद के हवाले करना चाहती हूँ, उन सबके हवाले जो किसी न किसी रूप में दुनिया में प्रेम सहेज रहे हैं।

चाय के कप के करीब रखी कुँवर नारायण की कविता मुस्कुरा रही है-

इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने-झगड़ने को

पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा

और जीवन बीत गया...

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