Monday, October 13, 2025

विसंगतियों को रूपायित करता उपन्यास


जितेन ठाकुर जी की टिप्पणी राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुई है। आभार!
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प्रतिभा कटियार का सद्य प्रकाशित उपन्यास जातीय दंश से अभिशप्त एक ऐसी युवती की कथा है जिसमें सामाजिक संरचना के विकृत स्वरूप को नकारने और छोटा साबित कर पाने के नैसर्गिक गुण मौजूद हैं। विषम पारिवारिक परिस्थितियों, अपमानित और तिरस्कृत करने वाली सामाजिक वर्जनाओं और हतोत्साहित कर देने वाले परिवेश में भी उसकी अदम्य इच्छाशक्ति सारे अवरोधों और बाधाओं पर भरी पड़ती है। नकारात्मकता को नकार देने वाला उसका मानसतंत्र सकारात्मकता का एक ऐसा सुदृढ़ कवच गढ़ लेता है जो विषमताओं और विसंगतियों को सहज ही ध्वस्त करता चला जाता है। पर नियति के कुचक्र का शिकार होकर वह उसी कारा में कैद रह जाती है, जिसमें युगों से सम्भावनाएं दम तोड़ती आई हैं।
 
अपनी इस यात्रा में मिले अनेक पात्र उसे जीवन मूल्य समझाते और आगे बढ्ने का हौसला देते हुए भी दिखलाई देते हैं। पर सामाजिक संरचना में लुके छुपे अनेक ऐसे कारण भी समय-समय पर प्रकट होते हैं जो समाज में फैले जातीय गरल की विभीषिका को स्पष्ट करते हैं। ये कारण हमारी नागरिक चेतना को आहत भी करते हैं और लांछित भी। टूट जाने की संभावनाओं के बावजूद विद्रूप का यह पाश पूर्ववत ही जकड़ा रह जाता है और आकाश में टिमटिमाने की कामना लिए हुए एक सितारा अनजान, अपरिचित खला में खो जाता है। यहीं पर उम्मीद के टूट जाने का दंश पाठक को भी त्रस्त करता है।

लेखिका ने बहुत ही सरल, सहज शैली में काव्यात्मक स्पर्श देते हुए इस उपन्यास को रचा है। उपन्यास में यथार्थवाद नहीं केवल यथार्थ है, इसलिए यह उपन्यास एक बदली हुई रचनाशीलता का एहसास देता है। इस उपन्यास में अमानवीय मानसतंत्र के कुछ ऐसे त्रासद विवरण मौजूद हैं जो परिवर्तनकामी घोषणाओं का शंखनाद करके गाल बजाने वाले समाज को मुंह चिढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। उपन्यास अपने समय की विसंगतियों को रूपायित भी करता है और त्रासदी को रेखांकित भी करता है। कहा जा सकता है कि यह उपन्यास अपने समय को विश्लेषित करने वाले एक विचारशील रचनकर का ऐसा रचनाकर्म है जो समाज की तमाम भयावहता और बेचैनियों को वहन करते हुए पाठक को अपने समय को समझाने की दृष्टि देता है।

उपन्यास की चेतना, कथा के स्तर पर जिस प्रकार हमें दंशित करती है और हमारी संवेदनाओं को विगलित करती है, उसके लिए प्रतिभा कटियार बधाई की पात्र हैं परंतु अपेक्षा के अनुरूप कारायी साँचा न टूट पाने की पीड़ा पाठक को आहात करती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले प्रयास में लेखिका इस साँचे को तोड़ पाने का यत्न करती हुई पुनः दिखलाई देंगी।

पुस्तक का नाम- कबिरा सोई पीर है (उपन्यास)
लेखिका- प्रतिभा कटियार
प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन
मूल्य- 300 रुपए

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