सूरज की किरन सिर पर से टप्पा खाकर जमीन पर लुढ़क गयी थी। ठीक उसी जगह जहां रात भर खिलखिलाने के बाद ऊँघते हुए मोगरे झरे पड़े थे और गिलहरियों की उदुक-फुदुक चल रही थी। अरसे से कैद एक लंबी सिसकी के रिहा होने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था जैसे तपती दोपहर पर किसी ने पानी के छींटे मारे हों।
नहीं जानती कि कैसे लिखा जाता है कोई उपन्यास, कोई कहानी, कोई कविता या कुछ भी। कभी-कभी तो लगता है कि कैसे जिया जाता है जीवन यह भी तो नहीं जानती। बस हर दिन एक इरेज़र और एक पेंसिल लिए घूम रही हूँ कि ज़िंदगी की कॉपी पर दर्ज अनचाही इबारतें मिटाकर कुछ सलोनी सी इबारतें लिख सकूँ। फिर एक रोज समझ आता है कि ऐसा इरेज़र इस सामंती सामाजिक व्यवस्था ने बनने ही नहीं दिया जिससे अन्याय, पीड़ा और जुल्म की इबारतों को मिटाया जा सके। और पेंसिल ऐसी मिली कि उसे जितना छीलो वो टूटती जाती है। कच्ची पेंसिल। कि इसे बनाकर बमुश्किल दो-चार शब्द लिखते ही यह फिर टूट जाती है। लिखने, मिटाने के इस खेल में ज़िंदगी की कॉपी में काफी गचर-पचर हो गयी। जो मिटाया वो मिटा नहीं, जो लिखा वो दिखा नहीं। कुछ लोग, कुछ अस्मितायें ज़िंदगी का वही पन्ना हैं जो इरेज़र लगातार घिस रहे हैं इतना कि कॉपी का पन्ना ही कई बार फट जाता है और लिखने की कोशिश में पेंसिल ही नहीं उँगलियाँ तक छील चुके हैं।
जबकि इसी बीच कुछ लोगों के पास थे बढ़िया जेल पेन और अच्छे से चिकने कागज़ वाली डायरी। जिस पर उन्होंने लिखा कि 'सब ठीक है' 'कहीं कोई अन्याय नहीं' या फिर राजनैतिक लाभ के लिए तमाम अस्मिताओं के जीवन के लिए जो जरूरी एहबाब था उसे मुद्दों में तब्दील कर लिया। परीक्षा में निबंध का विषय, कविता, कहानी या उपन्यास का विषय और...और बस।
गिलहरियों की उदुक-फुदुक को देखते हुए आसमान की ओर देखा तो आँखें भर आयीं। गर्दन सीधी करके चलना भी कहाँ सीखा था जो यूं आंख भर आसमान देखते। आज इस देखने में जीवन की लंबी यात्रा, न जाने कितनी चुभी, अनचुभी किरचें शामिल हैं। वो कितनी ही चुप्पियां जो आवाज़ बन पाने की आस में मुरझाती रहीं।
एक रोज सदियों से दरकिनार की गयी अस्मिताओं ने अपनी चुप्पियों को खाली बंजर जमीन पर बो दिया था। उनके आंसुओं की बरसात और संघर्षों की धूप ने उन चुप्पियों के बीजों की परवरिश की और उस बंजर जमीन पर अंकुर फूटे। यह उपन्यास वही अंकुर है। नारों, भाषणों, विमर्शों के शोर में अनसुनी आवाजों के अंकुर। जो बुदबुदाते हुए कहती हैं, 'जिस बारे में आप सब बात कर रहे हैं वो मैं हूँ।' विमर्श और चर्चाओं में व्यस्त लोग उन आवाज़ों को मुंह पर उंगली रखने का इशारा करते हुए चुप रहने का संकेत करते हैं।
वही आवाजें इस उपन्यास में सुस्ताने चली आई हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए शायद पाठक उन आवाज़ों को देख पाएँ, महसूस कर पाएँ, उनकी तरफ हाथ बढ़ा सकें, गले लगा सकें।
सबको उनके हिस्से की धूप, बारिशें और जीवन पूरे अधिकार के साथ मिले इसी कामना के साथ पहला उपन्यास आप सबके हवाले है।
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