इस किताब को पढ़ते हुए कई पन्नों पर दृष्टि रुक गई,उन्हें दुबारा,तिबारा पढ़ा..गले में जैसे कुछ अटक सा गया..क्या था वह?
वह थी समाज की सच्चाई जिसे बड़ी चालाकी से यह कहकर टाल दिया जाता है कि अजी यह सब पिछले ज़माने की बातें हैं,अब कहां है जाति पांति की ऊंच नीच..अब तो सब बराबर हैं..जबकि हक़ीक़त में आज भी कोई बड़े से बड़ा अधिकारी हो या छोटे से छोटा कर्मचारी उसके आते ही पहले उसकी जाति देखी जाती है,प्रेम भी इससे अछूता नहीं होता(अपवादों की बात छोड़ दें तो)
प्रतिभा जी का यह उपन्यास महज मनोरंजन का विषय न होकर उनकी उस संवेदनात्मक दृष्टि का परिचायक है जो सामाजिक,आर्थिक,पारिवारिक समस्याओं की न केवल पड़ताल करती है बल्कि उसे हमारे सामने नग्न रूप में प्रस्तुत भी करती है जिससे हमें समाज की समता,समानता को लेकर बरती जा रहीं चालाकियों और क्षुद्रता के बारे में पता चलता है..इनके बीच में मुहब्बत एक ऐसी तरल तरंग के रूप में आती है जो हमें सुखांत कल्पना की ओर मोड़ती है किंतु इसका अंत यथार्थ के कठोर किंतु आत्मसम्मान पूर्ण धरातल पर होता है..
* * * *
"लड़ाई का सबका अपना तरीका होता है। मैं लड़ ही तो रही हूँ। मेरी पढ़ाई ही मेरी लड़ाई है। कुछ बन जाऊँगी तो बहुतों की आवाज बन पाऊँगी। वरना ऐसे ही गृह कलेश में जीवन बिताना पड़ेगा। तुझे एक बात बताऊँ, मुझे माँ-पापा किसी से शिकायत नहीं। उनसे क्या शिकायत करो, जो खुद विक्टिम हैं यार। मम्मी का बड़बड़ाना जिस दिन बन्द हो जाएगा न, माँ मर जाएगी। इसी बड़-बड़ में वो अपने भीतर की कड़वाहट को निकालती रहती है। मुझे तो लगता है ज्यादातर औरतों की बड़-बड़ में उनका फ्रस्टेशन ही निकल रहा होता है, जिसका लोग उपहास बनाते हैं।'
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"तुम अभी उस सवाल से तो नहीं जूझ रहे कहीं कि तुम्हारे प्रेम में सद्भाव ज़्यादा है?' कनिका ने अपने मोह के धागों को तोड़ते हुए तृप्ति और अनुभव पर फोकस किया।
'हरगिज नहीं। लेकिन देखो यह सवाल आया न तुम्हारे मन में। अगर मैं तुमसे प्यार करता तो भी क्या यह सवाल आता? नहीं न? बस यही लड़ाई है। बराबरी-बराबरी के शोर में ही कितनी गैर बराबरी है, यह हमें खुद ही नहीं पता चलता।' अनुभव एकदम स्पष्ट था। अपने भावों को लेकर भी और विचारों को लेकर भी।
'पता है कनिका ! जब मैं कॉलेज की डिबेट में इन मुद्दों पर बोलता था और जीतकर ट्रॉफी लेता था तो अन्दर से रुलाई फूटती थी। लोग हैं वो। हमने उन्हें, उनकी समस्याओं को मुद्दा बनाकर इस्तेमाल करना सीख लिया है, राजनीति में हो या कॉलेज की डिबेट में या एग्जाम में आनेवालो निबन्ध के विषय में क्या फर्क है।' आवाज़ बिखरने लगी थी अनुभव की और गला भर्राने लगा था।
'इतना भी मत परेशान हो यार, होगा एक दिन सब ठीक। हम मिलकर करेंगे न?' कनिका ने उसके कन्धे को धीरे से दबाते हुए आश्वस्ति देनी चाही।"
प्रतिभा जी का यह उपन्यास महज मनोरंजन का विषय न होकर उनकी उस संवेदनात्मक दृष्टि का परिचायक है जो सामाजिक,आर्थिक,पारिवारिक समस्याओं की न केवल पड़ताल करती है बल्कि उसे हमारे सामने नग्न रूप में प्रस्तुत भी करती है जिससे हमें समाज की समता,समानता को लेकर बरती जा रहीं चालाकियों और क्षुद्रता के बारे में पता चलता है..इनके बीच में मुहब्बत एक ऐसी तरल तरंग के रूप में आती है जो हमें सुखांत कल्पना की ओर मोड़ती है किंतु इसका अंत यथार्थ के कठोर किंतु आत्मसम्मान पूर्ण धरातल पर होता है..
किताब की कुछ झलकियां
"कमलेश जी की नौकरी लग तो गई लेकिन जैसे अब तक ज़िन्दगी गले में अटकी रही, वैसी ही नौकरी भी अटक गई। बड़े बाबू शंखधर तिवारी और चपरासी विनोद श्रीवास्तव दोनों उन्हें साँस तक लेते देखकर खार खाते हों जैसे। विनोद का बर्ताव कमलेश जी के साथ वैसा ही था जैसे शीरे में डुबोकर कोई सुई चुभोए। तरीके ऐसे कि शब्दों पर जाएँ तो उन्होंने कुछ गलत कहा ही नहीं, 'अरे आप लोगों का जमाना है अब। हम लोग क्या हैं कीड़े-मकोड़े। देखिए कोई गलती-उलती हो जाए तो माफ कर दीजिएगा कमलेश बाबू। आप लोगों की बड़ी सुनी जाती है आजकल ।' या कोई जाति विरोधी वाट्सप फॉरवर्ड वीडियो को तेज आवाज़ में सुनना और मुस्कुराना।
कमलेश जी को सब समझ में आता है लेकिन वो चुप्पी को अपना एकमात्र हथियार बनाकर जीना सीख लिए हैं। उन्होंने मान लिया है कि सम्मान है ही कहाँ उनका। उनका जन्म अपमान सहने के लिए ही हुआ है। हालाँकि वो चाहते थे कि जो उन्होंने झेला वो उनके बच्चों को न झेलना पड़े। दलित राजनीति का हश्र जो भी हुआ हो लेकिन अरसे से वंचित, इस देश के एक बड़े वर्ग की आँखों में छोटे-छोटे सपने तो बोए ही हैं। हालाँकि अगड़ों की राजनीति उन इबारतों को मिटा देने पर भी आमादा है जहाँ दलित और पिछड़े वर्ग को जरा-सी राहत है। समानता-समानता की रट लगाकर गरीब सवर्णों को भी आरक्षण मिलना चाहिए का शोर मचानेवालो ये समझने को तैयार ही नहीं कि समता भी एक चीज होती है। उसके बिना समानता भी एक फरेब ही बनकर रह जाएगी। एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति एक मध्यवर्गीय दलित से हमेशा ऊँची रहती है, यह बात वे जानते हैं लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहते।
इन्हीं उलझावों के बीच कमलेश जी ने शिक्षा के महत्त्व को बखूबी समझ लिया था। उन्होंने अपने तीनों बच्चों को स्कूल पढ़ने भेजा। हालाँकि वो जानते थे कि इन बच्चों का जन्म गलत घर में हो गया है और इन्हें जीवन-भर अपमान तो सहना ही पड़ेगा। वो चाहते तो थे कि बच्चों को जातिगत अपमान न सहने पढ़ें लेकिन हक़ीक़त से भी वो वाक़िफ़ थे ही, इसलिए उनकी कोशिश होती कि बच्चों को अपमान सहने की आदत पड़ जाए।"
"कमलेश जी की नौकरी लग तो गई लेकिन जैसे अब तक ज़िन्दगी गले में अटकी रही, वैसी ही नौकरी भी अटक गई। बड़े बाबू शंखधर तिवारी और चपरासी विनोद श्रीवास्तव दोनों उन्हें साँस तक लेते देखकर खार खाते हों जैसे। विनोद का बर्ताव कमलेश जी के साथ वैसा ही था जैसे शीरे में डुबोकर कोई सुई चुभोए। तरीके ऐसे कि शब्दों पर जाएँ तो उन्होंने कुछ गलत कहा ही नहीं, 'अरे आप लोगों का जमाना है अब। हम लोग क्या हैं कीड़े-मकोड़े। देखिए कोई गलती-उलती हो जाए तो माफ कर दीजिएगा कमलेश बाबू। आप लोगों की बड़ी सुनी जाती है आजकल ।' या कोई जाति विरोधी वाट्सप फॉरवर्ड वीडियो को तेज आवाज़ में सुनना और मुस्कुराना।
कमलेश जी को सब समझ में आता है लेकिन वो चुप्पी को अपना एकमात्र हथियार बनाकर जीना सीख लिए हैं। उन्होंने मान लिया है कि सम्मान है ही कहाँ उनका। उनका जन्म अपमान सहने के लिए ही हुआ है। हालाँकि वो चाहते थे कि जो उन्होंने झेला वो उनके बच्चों को न झेलना पड़े। दलित राजनीति का हश्र जो भी हुआ हो लेकिन अरसे से वंचित, इस देश के एक बड़े वर्ग की आँखों में छोटे-छोटे सपने तो बोए ही हैं। हालाँकि अगड़ों की राजनीति उन इबारतों को मिटा देने पर भी आमादा है जहाँ दलित और पिछड़े वर्ग को जरा-सी राहत है। समानता-समानता की रट लगाकर गरीब सवर्णों को भी आरक्षण मिलना चाहिए का शोर मचानेवालो ये समझने को तैयार ही नहीं कि समता भी एक चीज होती है। उसके बिना समानता भी एक फरेब ही बनकर रह जाएगी। एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति एक मध्यवर्गीय दलित से हमेशा ऊँची रहती है, यह बात वे जानते हैं लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहते।
इन्हीं उलझावों के बीच कमलेश जी ने शिक्षा के महत्त्व को बखूबी समझ लिया था। उन्होंने अपने तीनों बच्चों को स्कूल पढ़ने भेजा। हालाँकि वो जानते थे कि इन बच्चों का जन्म गलत घर में हो गया है और इन्हें जीवन-भर अपमान तो सहना ही पड़ेगा। वो चाहते तो थे कि बच्चों को जातिगत अपमान न सहने पढ़ें लेकिन हक़ीक़त से भी वो वाक़िफ़ थे ही, इसलिए उनकी कोशिश होती कि बच्चों को अपमान सहने की आदत पड़ जाए।"
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"लड़ाई का सबका अपना तरीका होता है। मैं लड़ ही तो रही हूँ। मेरी पढ़ाई ही मेरी लड़ाई है। कुछ बन जाऊँगी तो बहुतों की आवाज बन पाऊँगी। वरना ऐसे ही गृह कलेश में जीवन बिताना पड़ेगा। तुझे एक बात बताऊँ, मुझे माँ-पापा किसी से शिकायत नहीं। उनसे क्या शिकायत करो, जो खुद विक्टिम हैं यार। मम्मी का बड़बड़ाना जिस दिन बन्द हो जाएगा न, माँ मर जाएगी। इसी बड़-बड़ में वो अपने भीतर की कड़वाहट को निकालती रहती है। मुझे तो लगता है ज्यादातर औरतों की बड़-बड़ में उनका फ्रस्टेशन ही निकल रहा होता है, जिसका लोग उपहास बनाते हैं।'
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"तुम अभी उस सवाल से तो नहीं जूझ रहे कहीं कि तुम्हारे प्रेम में सद्भाव ज़्यादा है?' कनिका ने अपने मोह के धागों को तोड़ते हुए तृप्ति और अनुभव पर फोकस किया।
'हरगिज नहीं। लेकिन देखो यह सवाल आया न तुम्हारे मन में। अगर मैं तुमसे प्यार करता तो भी क्या यह सवाल आता? नहीं न? बस यही लड़ाई है। बराबरी-बराबरी के शोर में ही कितनी गैर बराबरी है, यह हमें खुद ही नहीं पता चलता।' अनुभव एकदम स्पष्ट था। अपने भावों को लेकर भी और विचारों को लेकर भी।
'पता है कनिका ! जब मैं कॉलेज की डिबेट में इन मुद्दों पर बोलता था और जीतकर ट्रॉफी लेता था तो अन्दर से रुलाई फूटती थी। लोग हैं वो। हमने उन्हें, उनकी समस्याओं को मुद्दा बनाकर इस्तेमाल करना सीख लिया है, राजनीति में हो या कॉलेज की डिबेट में या एग्जाम में आनेवालो निबन्ध के विषय में क्या फर्क है।' आवाज़ बिखरने लगी थी अनुभव की और गला भर्राने लगा था।
'इतना भी मत परेशान हो यार, होगा एक दिन सब ठीक। हम मिलकर करेंगे न?' कनिका ने उसके कन्धे को धीरे से दबाते हुए आश्वस्ति देनी चाही।"
पुस्तक ...कबिरा सोई पीर है
लेखक ...प्रतिभा कटियार
प्रकाशक ...लोकभारती प्रकाशन
मूल्य ...299 रुपए
लेखक ...प्रतिभा कटियार
प्रकाशक ...लोकभारती प्रकाशन
मूल्य ...299 रुपए
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