Thursday, August 1, 2024
तारिक का सूरज
तारिक का सूरज एक ऐसी कहानी है जो कल्पना के कैनवास पर अपने मन की दुनिया का एक कोना गढ़ती है। ऐसा कोना जहां रोशनी तनिक अधिक है। तारिक का सूरज दुनिया को थोड़ा ज़्यादा रोशन करती है।
कहानी कुछ यूं है कि तारिक को भी बाकी बच्चों की तरह खेलना बहुत पसंद है और उसका खेलना निर्भर है दिन पर। सूरज डूबा, रात हुई और खेल बंद। शाम होते ही अम्मी की पुकार कि तारिक शाम हो गयी आ जाओ, पढ़ाई करो, खाना खाओ सो जाओ के अनकहे निर्देश कहानी में हैं जो तारिक को खास पसंद नहीं। वो तो रात में भी खेलना चाहता है। इसलिए उसे रात में सूरज की कमी खलती है। अब तारिक कर भी क्या सकता है। एक रोज यूं ही वो कागज पर गोचागाची करते हुए सोचने लगा कि काश रात में भी सूरज उगता तो उसे खेलने को और समय मिलता। सोचते-सोचते तारिक कागज पर सूरज बना देता है और वो सूरज रात को चमकने लगता है। यही है इस कहानी की दुनिया।
तारिक का सूरज पढ़ते हुए हम कल्पना की ऐसी दुनिया में जा पहुँचते हैं जहां दुनिया के सारे बड़े और समझदार लोगों को पहुँच ही जाना चाहिए। क्योंकि असल में तो हम सब के भीतर भी एक तारिक है, जो कहीं खो गया है।
कल्पना, तर्क और संवेदनशीलता के बीच का समन्वय बनाती यह बाल कहानी बच्चों के लिए कल्पना के नए द्वार खोलती है। संवेदना के ऐसे महीन रेशे हैं इस कहानी में कि सूरज रात को उगे तो किसी को परेशानी भी न हो। तो कैसे सब संभाल लिया जाय सब यहाँ काम आती है तारिक की तरकीब।
किसी भी मनःस्थिति में पाठक इस कहानी के पन्ने पलटें कहानी से गुजरते हुए एक खामोशी से भर उठेंगे। ऐसी खामोशी जो दुनियादारी की तमाम पेचीदीगियों से दूर ले जाती है।
इस छोटी सी कहानी में बड़ी से दुनिया के तमाम बड़े-बड़े सवालों के जवाब मिलते दिखते हैं। जितनी बार इस कहानी को पढ़ते हैं एक संवरी हुई दुनिया का ख़्वाब मुस्कुराता नज़र आता है।
नन्हा तारिक रात में भी खेलने की ललक में अपने कागज पर बनाए सूरज को सेम की बेल पर टांग देता है। बेल चढ़ जाती है आम के पेड़ पर और उसका सूरज दिप दिप करने लगता है। तारिक की दुनिया में अब रात में भी सूरज उगने लगता है।
तर्क कहता है कि भला रात को भी कहीं सूरज उगता है? लेकिन कल्पना के आकाश पर क्या नहीं हो सकता। पिछले दिनों आई फिल्म ‘स्काई इज़ पिंक’ का एक संवाद याद आता है जिसमें माँ अपने बच्चे से कहती है, ‘अगर तुम्हारा स्काई पिंक है तो स्काई का कलर पिंक ही है। तुम्हें किसी के भी कहने से अपने स्काई का रंग बदलने की जरूरत नहीं है।‘
शिक्षक जब बच्चों को कल्पना और सृजनात्मक होने के अवसर देते हैं तब भी उसमें काफी दीवारें खड़ी होती हैं जो सामाजिक संरचना के तमाम कारणों ने मिलकर बनाई हैं जो खुलेपन को भी खुलने नहीं दे पाती। ऐसे में यह कहानी बताती है कि इस कहानी और ऐसी तमाम कहानियाँ, कक्षा में मौजूद बच्चों के जीवन के अनुभवों को किस तरह पिरोना है, किस तरह उनका हाथ थामकर आगे बढ़ना है।
बात सिर्फ तारिक के सूरज के रात में भी उगने तक सीमित नहीं रहती है बल्कि उल्लू की उस परेशानी तक जा पहुँचती है जब रात में उगे सूरज के कारण उल्लू जो रात में खाने की तलाश में निकलता है परेशान होकर तारिक की खिड़की पर जा बैठता है।
मासूम तारिक खुद के खेलने के लिए रात में सूरज तो चाहता है लेकिन वो यह भी नहीं चाहता कि उल्लू भूखा रहे। वह उसे खाने के लिए दूध रोटी देता है। अब यहाँ ठहरकर सोचने की बात यह है कि क्या यह सिर्फ उल्लू की बात है, उसकी भूख की बात है। तारिक का उसे दूध रोटी देना कितनी बड़ी रेंज खोलता है मासूमियत का हाथ थामे इस दुनिया को संवार देने की।
उल्लू का या कहना कि ‘लेकिन मैं तो कीड़े खाता हूँ’ तारिक को सोचने पर मजबूर कर देता है। खुद के लिए कुछ चाहना क्या सिर्फ खुद के लिए कुछ चाहना भर होना चाहिए। सवाल और जवाब दोनों इस नन्ही कहानी के बड़े से फ़लक में समाये हैं।
रात को भी तो परेशानी है न सूरज के रात में उगने से। वो हवा से शिकायत करती है। हवा समझती है उसकी बात।
ये जो एक-दूसरे को समझना, अलग होना स्वभाव में फिर भी सहगामी होना अलग-अलग होकर भी साथ मिलकर सुंदर दुनिया को बनाने में, बचाने में अपनी भूमिकाओं को निभाना कितना जरूरी है इसकी कहन है कहानी।
यह कहानी शिक्षकों को ढेर सारे अवसर उपलब्ध कराती है। वे इस कहानी के बहाने बच्चों के मन की दुनिया में क्या-क्या चलता है, कैसे वो सोचते हैं, क्या हो अगर जब वो सोचते हैं वो हो जाए तो जैसे बिन्दुओं पर चर्चा कर सकते हैं, उन्हें सोचने, तर्क करने, कल्पना के आसमान में ऊंची उड़ान लेने को मुक्त कर सकते हैं।
‘इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है...’ जैसे नीरस हो चुके वाक्य से दूर अगर इस कहानी के बारे में एक लाइन में कहें तो यह कहानी बच्चों को मजेदार लगने वाली और अपनी सी लगने वाली कहानी है।
दिन के सूरज में तारिक के सूरज की भी रोशनी है यह पंक्ति हम सबके हिस्से की पंक्ति है। हम सबका होना कहाँ-कहाँ शामिल है, कहाँ-कहाँ खिल रहा है। हमारे होने ने क्या इस दुनिया को जरा भी बेहतर बनाने में कोई भूमिका निभाई है। अगर नहीं तो सोचने की ओर इशारा करता है तारिक का सूरज।
लेखिका शशि सबलोक ने क्या ही तरल और सरल गद्य का प्रयोग इस कहानी में किया है। कम शब्दों के उपयोग के साथ कैसी एक बड़ी दुनिया में गोता लगाया जाता है यह इस कहानी में देखने को मिलता है।
तविशा सिंह ने सुंदर चित्र बनाए हैं। उन्होंने कहानी के मर्म को जस का तस पकड़ा है और कहानी के चित्र वैसे ही बनाए हैं जैसे तारिक ने बनाए हों। नन्हे मासूम हाथों की लकीरों की छुअन महसूस होती है इसमें। अनगढ़पन का भी एक रंग होता है उसकी भी एक खुशबू होती है लेकिन उसका उपयोग कम ही लोग कर पाते हैं। तविशा इन चित्रों को बनाते हुए सीधे तारिक के मन की दुनिया में प्रवेश करती हैं और धीरे से उनकी उँगलियाँ तारिक की उँगलियाँ होने लगती हैं। कहानी के चित्र कहानी का विस्तार हैं। रंगों और लकीरों का लिखी गयी कहानी से अच्छा सामंजस्य है।
तक्षशिला के अंतर्गत जुगनू प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है।
शिक्षकों को इस कहानी के जरिये कक्षा में काम करने के तमाम अवसर नज़र आएंगे। इस कहानी को बार-बार पढ़ने की जरूरत है। हर बार कुछ नयी समझ नए एहसास की परतें खुलती हैं। पढ़ते हुए हमें महसूस होगा कि आसमान में जो सूरज है उसमें तारिक के सूरज की रोशनी तो शामिल है ही थोड़ी सी हमारे मन के रोशन कोनों की खुशबू और चमक भी शामिल है।
-प्रतिभा कटियार
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1 comment:
अति सुन्दर
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