उदास होना बुरा नहीं. मैं खुद अपने कंधों पर अपनी उदासी को रोज लादती हूँ और उसे दूर कहीं फेंक आने को निकल पड़ती हूँ. लेकिन इस कोशिश में खुद को ज्यादा थका हुआ पाती हूँ. उदासी कहीं नहीं जाती, वो उन्हीं कन्धों पर सवार रहती है. फिर मैं और उदासी एक समझौता कर लेते हैं. वो मुझे ज्यादा परेशान न करे और मैं उसके होने की ज्यादा शिकायत न करूं. इस समझौते को अक्सर उदासी ही तोड़ती है.
आज...अभी...इस वक़्त मैंने उदासी से झगड़ा कर लिया है. देर तक रो चुकने के बाद, देर तक चुपचाप छत ताकते रहने के बाद सूनी आँखों से उदासी को झाड़ दिया है...अब वहां एक स्याह दुःख है. जानती हूँ यह आसानी से जाने वाला नहीं.
हमेशा सोचती हूँ कि एक इंसान दूसरे इंसान इतनी नफरत कैसे कर सकता है कि वो उसकी जान ले ले. यह बात मुझे कभी समझ नहीं आई. यहाँ तक किसी को पीटने वाली बात भी कभी समझ नहीं आई. मैंने कुछ झगड़ों में खून बहते देखा है लोगों का, एक मर्डर देखा है अपनी इन्हीं आँखों से. झगड़ने वालों में से किसी को नहीं जानती थी फिर भी स्मृतियाँ विचलित करती हैं. और इन दिनों तो यह आम बात सी हो चली है.
देश, धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल, रंग, लिंग क्या ये कोई वजह है किसी से नफरत करने की. इतनी नफरत करने की उनकी हत्या कर दी जाए. क्या सचमुच? जबकि इसमें से कुछ भी हमने खुद नहीं चुना, यह हमें मिला है जन्म से. जन्म जिस पर हमारा कोई अख्तियार ही नहीं. हम इत्तिफ़ाकन हैं उस पहचान में जिस पर गर्व करते हुए हम हिंसक हुए जा रहे हैं.
अनुराधा बेनीवाल की किताब 'लोग जो मुझमें रह गये' के आखिरी पन्ने, आखिरी वाक्य, आखिरी शब्द के आगे सर झुकाए फूट फूट कर रो रही हूँ. शब्द सब झूठ हैं, बातें सब बेमानी...कि कुछ दर्द इतने गहरे होते हैं कि उन्हें दर्ज किया ही नहीं जा सकता...
हिटलर...होलोकास्ट...अमानवीयता...और हमारा उस दर्द के तूफ़ान से कुछ न सीखना. ऐसा लग रहा है सब कुछ अब भी है...
अनुराधा इतिहास की जिस वेदना के रू-ब-रू हैं हम उनके लिखे के रू-ब-रू. वो बस रोती जा रही हैं...लिखती जा रही हैं...मैं सिर्फ रोती जा रही हूँ, पढ़ती जा रही हूँ. पढ़ चुकने के बाद और ज्यादा रोती जा रही हूँ...दो बच्चे, टोपी लगाये, एक-दूसरे का हाथ पकड़े जा रहे थे...एक बच्चा जा रहा था एक मटकी से पानी पीने...
हम सब किसी हैवान में बदल चुके हैं...समझ नहीं आता कैसे बदलेगा यह सब..कैसे? कब?
मेरी रुलाई आज छुट्टी के दिन का फायदा उठाकर फूट पड़ी है.
देश, धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल, रंग, लिंग क्या ये कोई वजह है किसी से नफरत करने की. इतनी नफरत करने की उनकी हत्या कर दी जाए. क्या सचमुच? जबकि इसमें से कुछ भी हमने खुद नहीं चुना, यह हमें मिला है जन्म से. जन्म जिस पर हमारा कोई अख्तियार ही नहीं. हम इत्तिफ़ाकन हैं उस पहचान में जिस पर गर्व करते हुए हम हिंसक हुए जा रहे हैं.
अनुराधा बेनीवाल की किताब 'लोग जो मुझमें रह गये' के आखिरी पन्ने, आखिरी वाक्य, आखिरी शब्द के आगे सर झुकाए फूट फूट कर रो रही हूँ. शब्द सब झूठ हैं, बातें सब बेमानी...कि कुछ दर्द इतने गहरे होते हैं कि उन्हें दर्ज किया ही नहीं जा सकता...
हिटलर...होलोकास्ट...अमानवीयता...और हमारा उस दर्द के तूफ़ान से कुछ न सीखना. ऐसा लग रहा है सब कुछ अब भी है...
अनुराधा इतिहास की जिस वेदना के रू-ब-रू हैं हम उनके लिखे के रू-ब-रू. वो बस रोती जा रही हैं...लिखती जा रही हैं...मैं सिर्फ रोती जा रही हूँ, पढ़ती जा रही हूँ. पढ़ चुकने के बाद और ज्यादा रोती जा रही हूँ...दो बच्चे, टोपी लगाये, एक-दूसरे का हाथ पकड़े जा रहे थे...एक बच्चा जा रहा था एक मटकी से पानी पीने...
हम सब किसी हैवान में बदल चुके हैं...समझ नहीं आता कैसे बदलेगा यह सब..कैसे? कब?
मेरी रुलाई आज छुट्टी के दिन का फायदा उठाकर फूट पड़ी है.
(जारी )
7 comments:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 23 अगस्त 2022 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
संवेदना का अभाव ही पशुता का भाव है।
सुंदर सृजन
सत्य कहा आपने इंसान इंसानियत को भूलकर व्यर्थ की बातों में उलझकर जीवन को जहन्नुम बना रहा है।
सत्य कहा आपने इंसान इंसानियत को भूलकर व्यर्थ की बातों में उलझकर जीवन को जहन्नुम बना रहा है
आपका लेखन हृदय में उतर जाता है।
बहुत ही सुंदर।
यथार्थ पर सटीक और सामयिक चिंतन ।
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