- Pratibha Katiyar
जब मेरा पड़ोसी
मेरे खून का प्यास हो गया
मैं समझ गया
राष्ट्रवाद आ गया.
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वे हमारे सभ्य होने के इंतजार में हैं
और हम उनके मनुष्य होने का.
----
पहाड़ पर लोग पहाड़ का पानी पीते हैं
सरकार का पानी वहां तक नहीं पहुँचता
मातृभाषा में कोई स्कूल नहीं पहुँचता
अस्पताल में कोई डाक्टर नहीं पहुँचता
बिजली नहीं पहुँचती इंटरनेट नहीं पहुँचता
वहां कुछ भी नहीं पहुँचता
साब! जहाँ कुछ भी नहीं पहुँचता
वहां धर्म और गाय के नाम पर
आदमी की हत्या के लिए
इतना ज़हर कैसे पहुँचता है?
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किसी आदिवासी गाँव से गुजरती कविता में
कुछ लोग ढूंढ रहे हैं
नदी में नहाती किसी आदिवासी स्त्री की नंगी पीठ
एक कपड़े में लपेट अपनी पूरी देह
भीगी-भीगी सी घर लौटती कोई जवान लड़की
बंद करो कविता में ढूंढना आदिवासी लड़कियां.
----
जबसे इन कविताओं से गुजरी हूँ स्तब्ध हूँ, मौन हूँ. खुश हूँ ऐसा नहीं कह सकती लेकिन एक सुकून सा तारी है मन पर. जैसे बाद मुद्दत वह मिला हो जिसकी कबसे तो तलाश थी. मैं जसिंता केरकेट्टा की कविताओं की बात कर रही हूँ. यूँ जसिंता की कवितायें फुटकर पढ़ती रही हूँ. उनकी पोस्ट भी पढ़ती रहती हूँ और हर बार वो हाथ थाम लेती हैं मानो कहती हूँ, थोड़ी देर ठहरो न, जो पढ़ा है उसके संग.
जब मैंने इन कविताओं के बारे में लिखने का सोचा तब असल में मैंने इन्हें पढ़ने के बारे में ज्यादा सोचा. मुझे इन्हें पढ़ते हुए कैसा लगा. कविताओं पर, समीक्षा या आलोचकीय टिप्पणी करने की मेरी कोई हैसियत नहीं. मैं बस अपनी पाठकीय यात्रा और अनुभवों की बाबत लिख सकती हूँ. अक्सर मैं वही करती हूँ.
इन दिनों चारों ओर मानो कविताओं का सैलाब आया हुआ है. बहुत सारी अच्छी कवितायें भी होती होंगी ही. लेकिन मेरे लिए कविता मतलब मेरे संग उसका ठहरना. ईमानदारी से कहूँ तो वैभव विहाग की कविताओं के बाद जसिंता की कविताओं को ढूंढकर पढ़ने की इच्छा होती है. कविता पढ़कर किताब पलटकर रख देती हूँ लेकिन कविता साथ चलती रहती है. ये कवितायें नसों को तड़का देती हैं, जैसे देह पर खरोंचें उभर रही हों पढ़ते हुए, कभी गुस्सा, कभी ग्लानि और अक्सर प्रतिरोध के भाव आ घेरते हैं.
सोचती हूँ कविता क्यों लिखी जानी चाहिए आखिर? जसिंता की कवितायें पढ़ते हुए महसूस होता है कि ठहरे हुए समय में प्रतिरोध का कंकड़ फेंकने का काम तो कविता कर ही सकती है. खाये अघाए संसार की आँखों के आगे उन दृश्यों को सामने लाने का काम जो जानबूझकर छुपा दिए गये.
मैं निजी तौर पर जसिंता को नहीं जानती. उनकी कविताओं के जरिये जानती हूँ और वो मुझे बेहद सच्ची, ईमानदार और निर्भीक लगती हैं. वो जो लिखती हैं वो उनका जिया हुआ देखा हुआ, महसूस किया हुआ सच है. उस सच की चमक उनकी कविताओं में है. उस सच से उपजे सवाल, अन्तर्द्वन्द्व इन कविताओं में है. मेरे लिए कविता का असल अर्थ यही है कि वो हमारी आरामतलब चमड़ी को थोड़ा पिघला दे, थोड़ी बेचैनी बहुत सारे सवाल ज़ेहन में पैदा करे. भाषा विन्यास, शैली, बुनावट सब उनकी कविताओं के सच के आगे घुटने टेक देते हैं. ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं कि शैली, विन्यास और बुनावट में ये कहीं भी कम हैं बस कि उसके लिए सायास प्रयास नहीं दिखता कवि की तरफ से. उनके सच की अपनी एक अलग ही शैली है.
ये कवितायें बार-बार पढ़ी जानी चाहिए और खुद से सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर हम लिखते क्यों हैं? मेरे लिए जसिंता की कवितायें उस उम्मीद की कवितायें हैं जिसके सहारे इस बीहड़ समय के सामने हिम्मत से खड़ा हुआ जा सकता है. अपनी बात को मुखरता से कहा जा सकता है.
'ईश्वर और बाज़ार' कवि का तीसरा संग्रह है और यकीनन उनके पहले दोनों संग्रहों 'अंगोर' और 'जड़ों की जमीन' की तरह यह भी की पढ़ने वालों की आत्मा को तनिक चमक देगा, कुछ सवालों से भरेगा और सोचने पर मजबूर करेगा.
सिर्फ कुछ कविताओं के अंश और दे रही हूँ ताकि इन कविताओं को पढ़ने की भूख जगा सकूँ
'मंदिर मस्जिद गिरजाघर टूटने पर
तुम्हारा दर्द कितना गहरा होता है
कि सदियों तक लेते रहते हो उसका हिसाब
पर जंगल जिनका पवित्र स्थल है
उनको उजाड़ने का हिसाब , कौन देगा साब?'
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'एक दिन ईश्वर
मेरी आदत में शामिल हो गया
अब मेरी आदत में ईश्वर था
जैसे मेरी आदत में तंबाकू'
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'वह मजदूरों की नहीं सुनता
पर यह जरूर कहता है
ईश्वर पर भरोसा रखो'
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'उन्होंने अपना ईश्वर हमारी ओर बढ़ाया
कहा यह तुम्हें मुक्त करेंगे पापों से
हमने पूछा
कौन से पाप किये हमने?'
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'क्यों स्त्री के पास सबसे ज्यादा ईश्वर हैं
और उनमें से एक भी काम का नहीं?'
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'जिस देश के भीतर देस
भूख, गरीबी, बीमारी से मरता है
और देश अपने बचे रहने के लिए
किसी पूजा स्थल की ओर ताकता है
तब असल में वह अपनी असाध्य बीमारी के
उस चरम पर होता है
जहाँ वह खुद को सबसे असहाय पाता है'
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'एक शातिर आदमी है
जो जनता और सत्ता दोनों तरफ खड़ा रहता है
उसकी किताब के लिए इस बार
किसी पुरस्कार की घोषणा तय है.'
इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है मुझे ऐसी ही कवितायें पढ़नी थीं, ऐसी ही कविताओं की मुझे कबसे तलाश थी. शुक्रिया दोस्त जसिंता, तुमसे प्यार है.
मेरे खून का प्यास हो गया
मैं समझ गया
राष्ट्रवाद आ गया.
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वे हमारे सभ्य होने के इंतजार में हैं
और हम उनके मनुष्य होने का.
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पहाड़ पर लोग पहाड़ का पानी पीते हैं
सरकार का पानी वहां तक नहीं पहुँचता
मातृभाषा में कोई स्कूल नहीं पहुँचता
अस्पताल में कोई डाक्टर नहीं पहुँचता
बिजली नहीं पहुँचती इंटरनेट नहीं पहुँचता
वहां कुछ भी नहीं पहुँचता
साब! जहाँ कुछ भी नहीं पहुँचता
वहां धर्म और गाय के नाम पर
आदमी की हत्या के लिए
इतना ज़हर कैसे पहुँचता है?
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किसी आदिवासी गाँव से गुजरती कविता में
कुछ लोग ढूंढ रहे हैं
नदी में नहाती किसी आदिवासी स्त्री की नंगी पीठ
एक कपड़े में लपेट अपनी पूरी देह
भीगी-भीगी सी घर लौटती कोई जवान लड़की
बंद करो कविता में ढूंढना आदिवासी लड़कियां.
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जबसे इन कविताओं से गुजरी हूँ स्तब्ध हूँ, मौन हूँ. खुश हूँ ऐसा नहीं कह सकती लेकिन एक सुकून सा तारी है मन पर. जैसे बाद मुद्दत वह मिला हो जिसकी कबसे तो तलाश थी. मैं जसिंता केरकेट्टा की कविताओं की बात कर रही हूँ. यूँ जसिंता की कवितायें फुटकर पढ़ती रही हूँ. उनकी पोस्ट भी पढ़ती रहती हूँ और हर बार वो हाथ थाम लेती हैं मानो कहती हूँ, थोड़ी देर ठहरो न, जो पढ़ा है उसके संग.
जब मैंने इन कविताओं के बारे में लिखने का सोचा तब असल में मैंने इन्हें पढ़ने के बारे में ज्यादा सोचा. मुझे इन्हें पढ़ते हुए कैसा लगा. कविताओं पर, समीक्षा या आलोचकीय टिप्पणी करने की मेरी कोई हैसियत नहीं. मैं बस अपनी पाठकीय यात्रा और अनुभवों की बाबत लिख सकती हूँ. अक्सर मैं वही करती हूँ.
इन दिनों चारों ओर मानो कविताओं का सैलाब आया हुआ है. बहुत सारी अच्छी कवितायें भी होती होंगी ही. लेकिन मेरे लिए कविता मतलब मेरे संग उसका ठहरना. ईमानदारी से कहूँ तो वैभव विहाग की कविताओं के बाद जसिंता की कविताओं को ढूंढकर पढ़ने की इच्छा होती है. कविता पढ़कर किताब पलटकर रख देती हूँ लेकिन कविता साथ चलती रहती है. ये कवितायें नसों को तड़का देती हैं, जैसे देह पर खरोंचें उभर रही हों पढ़ते हुए, कभी गुस्सा, कभी ग्लानि और अक्सर प्रतिरोध के भाव आ घेरते हैं.
सोचती हूँ कविता क्यों लिखी जानी चाहिए आखिर? जसिंता की कवितायें पढ़ते हुए महसूस होता है कि ठहरे हुए समय में प्रतिरोध का कंकड़ फेंकने का काम तो कविता कर ही सकती है. खाये अघाए संसार की आँखों के आगे उन दृश्यों को सामने लाने का काम जो जानबूझकर छुपा दिए गये.
मैं निजी तौर पर जसिंता को नहीं जानती. उनकी कविताओं के जरिये जानती हूँ और वो मुझे बेहद सच्ची, ईमानदार और निर्भीक लगती हैं. वो जो लिखती हैं वो उनका जिया हुआ देखा हुआ, महसूस किया हुआ सच है. उस सच की चमक उनकी कविताओं में है. उस सच से उपजे सवाल, अन्तर्द्वन्द्व इन कविताओं में है. मेरे लिए कविता का असल अर्थ यही है कि वो हमारी आरामतलब चमड़ी को थोड़ा पिघला दे, थोड़ी बेचैनी बहुत सारे सवाल ज़ेहन में पैदा करे. भाषा विन्यास, शैली, बुनावट सब उनकी कविताओं के सच के आगे घुटने टेक देते हैं. ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं कि शैली, विन्यास और बुनावट में ये कहीं भी कम हैं बस कि उसके लिए सायास प्रयास नहीं दिखता कवि की तरफ से. उनके सच की अपनी एक अलग ही शैली है.
ये कवितायें बार-बार पढ़ी जानी चाहिए और खुद से सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर हम लिखते क्यों हैं? मेरे लिए जसिंता की कवितायें उस उम्मीद की कवितायें हैं जिसके सहारे इस बीहड़ समय के सामने हिम्मत से खड़ा हुआ जा सकता है. अपनी बात को मुखरता से कहा जा सकता है.
'ईश्वर और बाज़ार' कवि का तीसरा संग्रह है और यकीनन उनके पहले दोनों संग्रहों 'अंगोर' और 'जड़ों की जमीन' की तरह यह भी की पढ़ने वालों की आत्मा को तनिक चमक देगा, कुछ सवालों से भरेगा और सोचने पर मजबूर करेगा.
सिर्फ कुछ कविताओं के अंश और दे रही हूँ ताकि इन कविताओं को पढ़ने की भूख जगा सकूँ
'मंदिर मस्जिद गिरजाघर टूटने पर
तुम्हारा दर्द कितना गहरा होता है
कि सदियों तक लेते रहते हो उसका हिसाब
पर जंगल जिनका पवित्र स्थल है
उनको उजाड़ने का हिसाब , कौन देगा साब?'
----
'एक दिन ईश्वर
मेरी आदत में शामिल हो गया
अब मेरी आदत में ईश्वर था
जैसे मेरी आदत में तंबाकू'
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'वह मजदूरों की नहीं सुनता
पर यह जरूर कहता है
ईश्वर पर भरोसा रखो'
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'उन्होंने अपना ईश्वर हमारी ओर बढ़ाया
कहा यह तुम्हें मुक्त करेंगे पापों से
हमने पूछा
कौन से पाप किये हमने?'
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'क्यों स्त्री के पास सबसे ज्यादा ईश्वर हैं
और उनमें से एक भी काम का नहीं?'
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'जिस देश के भीतर देस
भूख, गरीबी, बीमारी से मरता है
और देश अपने बचे रहने के लिए
किसी पूजा स्थल की ओर ताकता है
तब असल में वह अपनी असाध्य बीमारी के
उस चरम पर होता है
जहाँ वह खुद को सबसे असहाय पाता है'
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'एक शातिर आदमी है
जो जनता और सत्ता दोनों तरफ खड़ा रहता है
उसकी किताब के लिए इस बार
किसी पुरस्कार की घोषणा तय है.'
इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है मुझे ऐसी ही कवितायें पढ़नी थीं, ऐसी ही कविताओं की मुझे कबसे तलाश थी. शुक्रिया दोस्त जसिंता, तुमसे प्यार है.
1 comment:
सुन्दर प्रस्तुति।
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