अगर समकालीन लेखकों में मुझे मेरे प्रिय दो लेखकों के नाम लेने हों तो बिना एक भी सेकेण्ड का समय लगाये मैं मानव कौल और अनुराधा बेनीवाल का नाम लूंगी. अनुराधा बेनीवाल की किताब 'लोग जो मुझमें रह गए' के साथ आज की सुबह हुई.
मन उदास हो तो छुट्टी वाली सुबहों से डर लगता है कि किस तरह इतना बड़ा दिन काँधे पर लादकर काटूँगी भला. मैंने खुद से वादा किया है कि उदासी से दूर रहूंगी तो सारे टैंट्रम करती रहती हूँ. आज सुबह उठी तो जन्मदिन में मिले तोहफों के ढेर में घुस गयी. ढेर में सबसे ज्यादा किताबें हैं. उनमें से काफी तो पढ़ चुकी हैं लेकिन बहुत सी अभी बची हैं. आज अनुराधा बेनीवाल की किताब उठा ली. दोस्त की किताब जो दोस्त ने गिफ्ट की है. सुबह से आँख मिलाते हुए मुस्कुराई और किताब को कवर से आज़ाद किया. उसकी खुशबू उँगलियों में तैरने लगी. किताब पढ़ने से पहले उसे देर तक उलट-पुलट कर देखना, उसे महसूस करना मुझे पसंद है. सुबह की चाय से पहले ही किताब की भूमिका पढ़ चुकी थी. मेरे भीतर एक उत्साह दौड़ रहा था. आज का दिन सुंदर हो गया है. सुबह सुंदर हो गयी है.
बस सुबह से अनुराधा साथ हैं. चाय बनाने से लेकर पीने से लेकर बालकनी, ड्राइंग रूम, लॉन हर जगह मैं अनुराधा के साथ टहल रही हूँ जबकि अनुराधा घूम रही हैं तमाम देश. तमाम देशों की संस्कृतियों को, लोगों को वो एक सूत्र में बांधती चल रही हैं यही बात उन्हें ख़ास बनाती है. कि यह किताब देशों की यात्राओं के साथ हमारे बनने और मंझने की यात्रा की बाबत बात करती है.
'दुनिया का कोई भी कोना ऐसा नहीं, जहाँ इन्सान प्रेम न चाहता हो. कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ धोखे को अच्छा माना जाए और करुणा को बुरा. दुनिया में ब्याह करने के चाहे पचीस हजार तरीके हों, ब्याह में प्रेम हर कोई ढूंढता है. एक से सम्बन्ध बनाओ या हजार से, दुनिया में अलग-अलग नियम कानून हैं लेकिन हर सम्बन्ध में एक-दूसरे का आदर हो यह पूरी दुनिया में कॉमन है. घरों के डिज़ाइन हज़ारों होंगे लेकिन घर क्या है, उसकी परिभाषा पूरी दुनिया में एक ही है. हर कोई साथ चाहता है, प्रेम चाहता है, चैन चाहता है. बाकी के नियम कानून, सरकार, समाज और राजनीति है, बदलती रहती है.'
ट्रैवेल का असल अर्थ क्या है, उसे कैसा होना चाहिए इसकी समझ अनुराधा को पढ़ते हुए साफ़ होती है. अनुराधा अपनी भूमिका में लिखती हैं-
'मैं जैसे-जैसे दुनिया घूमती गई, अलग-अलग देशों में फिरती गई, नए-नए लोगों से मिलती गई, वैसे-वैसे दुनिया छोटी और अपनी होती गई. सब तरह के लोगों से मिलकर मैंने जाना कि जो एक चीज़ सब चाहते हैं, वह है प्रेम. प्रेम ही आज़ादी है.'
ये पढ़कर. कोई सुख रेंग रहा है देह पर, मन पर. हाँ, यही पढ़ना चाहती थी, एकदम ऐसा ही. कि जीवन क्या है सिवाय प्रेम के.
'होटलों से सिर्फ नदी, पहाड़, पार्क, इमारतों तक रास्ता जाता है, लोकल लोगों के दिलो-दिमाग तक का रास्ता उनके घरों में जाने रहने से मिलता है.'
'अकेले होने ने मुझे कभी परेशान नहीं किया, न घर में न बाहर. मेरे लिए अकेला होना कभी उदासी का पर्याय नहीं रहा, लेकिन ऐसा भी नहीं कि मुझे उदासियों से परहेज है. एक गहरी में एक उथली हंसी से कहीं ज्यादा सुख है.'
'क्या आज़ादी प्रेम से बड़ी है? क्या है आगे बढ़ पाना? कोई क्यों किसी के साथ रहता है, कोई क्यों किसी से दूर चला जाता है यह उस इन्सान का बेहद निजी मामला है. चाहे वह शादीशुदा हो या बच्चों वाला. एक इन्सान कैसे जीना चाहता है, यह निर्णय सिर्फ़ उसी का होना चाहिए और कम से कम कोई नैतिकता उसके आड़े नहीं आनी चाहिए,'
'आज़ादी प्रेम से बड़ी है या उसके बगैर अधूरी है?
अगर आप प्रेम में एक-दूसरे को आज़ाद नहीं करते तो क्या वह प्रेम है? किसी का हो पाना प्रेम है, लेकिन क्या निभाना भी प्रेम है? निभाना तो मजबूरी है, प्रेम को निभाना थोड़े न होता है! कुढ़ते-कुढ़ते निभाने में प्रेम की जगह कहाँ है? प्रेम तो आज़ादी में ही है, लेकिन आज़ादी? क्या अपनी इच्छा से जी पाना भर आज़ादी है? यह 'अपनी इच्छा' क्या है? क्या बदलती नहीं रहतीं इच्छाएं हर पल? तो फिर क्या इच्छाओं की कूद-फांद में प्रेम भी बदलता रहता है? मेरे पास बस सवाल हैं...जवाब जीवन है.'
'अपने आप को जाने बिना न प्रेम है, न आज़ादी. अपने आपको जानने की यात्रा सबकी अपनी है...'
(जारी)
4 comments:
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-8-22} को राष्ट्र उमंगें वेगवान हुई"(चर्चा अंक 4521) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर पोस्ट।
पुस्तक लोग जो मुझ में रह गये हैं पर सुंदर व्याख्यात्मक समीक्षा।
साथ ही पुस्तकों के प्रति प्रेम की झलक।
प्रेम पर सुंदर गहन व्याख्या।
दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ आदमी प्रेम न चाहता हो. बहुत सही कहा आपने. मैंने मानव कौल की एक कहानी संग्रह पढ़ी है. बहुत अच्छा लिखते हैं. अनुराधा बेनीवाल को मैंने नहीं पढ़ा है. मैं पढूँगा. साधुवाद!--ब्रजेन्द्र नाथ
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