Wednesday, August 17, 2022

इस समाज को बदलना नहीं, फूंकना पड़ेगा...


'लोग जो मुझमें रह गए' किताब ने इन दिनों मुझे थाम रखा है. मैं अच्छी लगने वाली किताबों को धीमे पढ़ती हूँ. मन में एक डर होता है कि कहीं यह खर्च न हो जाए. खर्च हो जायेगी, खत्म हो जायेगी फिर क्या करूंगी. लिखना क्या है आखिर, क्यों है यह सवाल मन में कब नहीं चलता. शब्दों का इतना ढेर है चारों ओर कि कभी-कभी लगता है कि घुटन हो रही है. इतना सारा 'मैं' शब्दों का ऐसा उफ़ान ऐसा शोर कि किसी सूनी डगर पर चले जाने का जी चाहता है और किताबों को कहने का दिल चाहता है कि मुझे पढ़ना नहीं आता, वरना जरूर पढ़ती तुम्हे. लेकिन इसी सब उथल-पुथल के बीच कोई किताब रास्ता बनाते हुए सामने आ जाती है...हम उसे पढ़ते हैं और लगता है कि यही...बस यही तो पढ़ना चाहती थी, यही सुनना चाहती थी. अनुराधा की पहली किताब आज़ादी मेरा ब्रांड दिल के करीब है और अब यह दूसरी किताब भी. किताबें क्यों लिखी जानी चाहिए, उन्हें क्यों पढ़ा जाना चाहिए इस सवाल पर वान गॉग को पलटना अच्छा लगता है. रिल्के को भी. अनुराधा के लेखन में जो रौशनी है उसकी आज समाज को बहुत जरूरत है. चैप्टर 3 पढ़ रही हूँ और अनुराधा को गले लगाने की इच्छा से भर उठी हूँ. 

तीसरे चैप्टर का एक अंश-
इस गाँव (इसिकारो-फिनलैंड) में जितने भी कपल्स के घर मैं गई, उनमें से किसी की भी शादी नहीं हुई है. क्या शादी सिर्फ समाज की देन है? क्या सच में इसकी कोई ठोस जरूरत नहीं है? जब तक न हो, लगता है कब होगी? जब हो जाए तो लगता है इतनी भी क्या जरूरी थी. शादी के दस बारह साल बाद शायद ही कोई ऐसा जोड़ा होगा जो शादी के गुण गाता हो लेकिन हम सब कुंवारों की शादी करा देना चाहते हैं.

अजीब बात है कि हमारे समाज ने इस शादी नाम की संस्था का कोई दूसरा विकल्प नहीं ढूँढा/स्वीकारा जबकि बहुतेरी दुनिया में शादी धीरे-धीरे बीते जमाने की बात होती जा रही है. जाने क्यों हमें लगता है कि इसके बिना पूरा समाज बिखर जाएगा. क्या बिन ब्याहे हम हेडलेस चिकन की तरह इधर-उधर घूम रहे होंगे? क्यों करते हैं हम शादी?

हमारे समाज में दो तरह की शादियाँ हैं अरेंज और लव. अरेंज में उम्र पहला कारण है; 'उम्र हो गई शादी की. जल्दी कर दो.' -यह उम्र 18 से 30 के बीच कोई भी हो सकती है. दूसरा कारण ख़ास तौर पर लड़कों से जुड़ा है- 'सुधर जाएगा ,शादी करा दो' ; टाइम पर रोटी खा लेगा ब्याह कर दो! ' लड़कियों के लिए तो ज्यादातर घरवालों की इज्जत का मसला होता है- 'जवान बेटियां हैं घर पर!' 'लड़की बड़ी हुई, मतलब हमने मान लिया कि अब हमें बाहर वालों से खतरा है. कौन हैं ये बाहर वाले? घर से बाहर तो समाज ही है न! मतलब हमें समाज से खतरा है? फिर भी हम उसी समाज को वैसे का वैसा बचाए रखना चाहते हैं. गज़ब बात है! हमें पता है, हमारे समाज में हर उम्र की लड़की को खतरा है, क्या जवान, क्या बच्ची. शादी शुदा को भी खतरा है. अकेली का हाल क्या कहना...हर समय हर जगह खतरा है. घर में, बाहर- ये कौन लड़कियां हैं. ये हमारी लड़कियां हैं. ये खतरा पैदा करने वाले कौन हैं? यह हमारे ही बाप भाई, अपने रिश्तेदार हैं. फिर भी हम इस समाज को बदलते देखना नहीं चाहते हैं. जाति, धर्म, गोत्र और तो और, क्लास की जकड़बंदी से बाहर निकलकर नहीं सोचना चाहते.

दूसरी तरह की शादी है हमारे यहाँ- लव मैरिज: जिसे ज्यादर प्रेमी साथ रह पाने के लिए करते हैं. हमारे समाज में प्यार करने के लिए, एक साथ होने के लिए, सेक्स करने के लिए परमिशन लगती है. एक लड़के और एक लड़की का प्रेम में होना काफी नहीं है. लड़की किसके साथ प्रेम में है, किसके साथ होना चाहती है- इससे उसके भाई, बाप, चाचा, ताऊ सबको फर्क पड़ता है. बहन अपने प्रेमी के साथ रहने लगे तो भाई की इज्ज़त को खतरा हो जाता है. भाई नहीं है तो बाप की पगड़ी उछल जाती है. बाप भी नहीं है तो रिश्तेदार. यहाँ तक की पड़ोसी भी अपनी-अपनी नाक की फ़िक्र में पड़ जाते हैं.

मैं अपने समाज के एक ऐसे आदमी को जानती हूँ, जिसने आज तक अपनी बेटी से इसलिए बात नहीं की क्योंकि उसने प्रेम विवाह किया और उनकी 'इज्जत' मिट्टी में मिला दी. और यह वही आदमी है जिसने मुझे बचपन में मेरे ही घर में मॉलेस्ट किया था. ऐसे समाज को आप बचाना चाहते हैं? गज़ब ही है! मैं तो माचिस लिए तैयार रहती हूँ. कई बार लगता है इसे बदलना नहीं, फूंकना पड़ेगा. तब जाकर एक नए समाज की जगह बनेगी...

लव यू अनुराधा.

(जारी...)

4 comments:

Abhilasha said...

बेहतरीन सृजन

विभा रानी श्रीवास्तव said...

कई बार लगता है इसे बदलना नहीं, फूंकना पड़ेगा. तब जाकर एक नए समाज की जगह बनेगी...

–सहमत हूँ... प्रलय के बाद ही दुनिया बदलेगी..

रेणु said...

बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति।एक समीक्षा के माध्यम से शादी पर अनमोल चिंतन से साक्षात्कार हुआ।शादी नाम की संस्था को नयी पीढी ठेंगा दिखा रही है।माता पिता के लिए बच्चों की शादियाँ चुनौती बन चुकी।आज दो दिन में शादी तोड़ने की हिम्मत रखते हैं युवा।उन्हें अनचीन्हे दायरों में जीना मंजूर नहीं।फिर भी शादी के बिना जीवन की कल्पना शायद हम सनातनी भारतीयों के लिए बहुत दुष्कर कार्य है।फिर भी समय के साथ इसकी परिभाषा और महत्व बदल गया है यही कडवा सच है।आपकी समीक्षा दृष्टि और अदा दोनों ही बेमिसाल हैं आदरणीया प्रतिभा जी।🙏🙏

TOP TALWARA said...

बहुत शानदार प्रस्तुति।
सभी रचनाकारों को बधाई।
Free Download Diwali Image