Monday, March 16, 2020

क्योंकि वो जी भरके जीना चाहती हैं....


स्त्रियों की दुनिया बदल रही है. उनकी दुनिया के सवाल बदल रहे हैं, चुनौतियाँ बदल रही हैं. यह एक सकारात्मक तस्वीर है. लेकिन यह समूची तस्वीर भी नहीं है. अभी उन स्याह घेरों को भी इस उजली तस्वीर में शामिल होना है जहाँ जन्म लेने से लेकर मरने तक हर लम्हा जूझना पड़ता है. मुठठी भर भात के लिए लड़ना पड़ता है, पहले पढने के लिए फिर अपनी पसंद के विषयों को पढने के लिए लड़ना पड़ता है.

यह सच है कि कुछ महिलाओं ने तमाम चुनौतियों को पार कर लिया है लेकिन बहुत सी स्त्रियों को अभी मामूली बातों के लिए बोलने की भी आज़ादी नहीं है. शिक्षा एक बड़ा हथियार है जिससे आधी दुनिया के अंधेरों को काटा जा सकता है, काटा जा रहा है.

आज भी तमाम बदलावों के बावजूद महिलाअधिकारी से आदेश लेने में सहज नहीं होते हैं पुरुष. जहाँ यह सहजता है वहां पावर का बड़ा रोल है. पितृसत्ता के गहरे निशान स्त्रियों में भी देखे जा सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे कुछ पुरुष स्त्रियों के प्रति ज्यादा संवेदनशील भी होते हैं. हालाँकि यह 'कुछ' काफी कम है. तो महिला मुद्दों की बात में हमें सायास अपने पुरुष मित्रों को भी जरूर शामिल करना चाहिए....तभी बात बनेगी...

कमोबेश इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द अपनी बात रखी दूरदर्शन के कार्यक्रम में. मेरे साथ एसपी सिटी देहरादून श्वेता चौबे, शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी इरा कुकरेती भी इस बातचीत में शामिल रहीं. कार्यक्रम का प्रसारण 8 मार्च को दोपहर 1 बजे हुआ.

इस मौके पर यह कविता भी पढ़ी-

एक रोज लड़कियां तमाम ख्वाहिशें तह करके
करीने से सूटकेस में लगाती हैं
कच्चे-पक्के ख्वाब रखती हैं साथ में
हिम्मत रखती हैं सबसे ऊपर वाली पॉकेट में
कमर तक लटकते पर्स में रखती हैं मुसुकराहटे

उदास रातों का मोह बहुत है
लेकिन बड़ा सा गठ्ठर है उनका
बार-बार उन्हें छूकर देखती हैं
और सूटकेस में बची हुई जगह को भी
फिर सबसे ज्यादा जागी
और भीगी रातों को रख ही लेती हैं खूब दबा-दबाकर

कागज के कुछ टुकड़े रखती हैं
जिनमें दर्ज है लड़-झगड़ के कॉलेज जाने पर मिले पास होने के सुबूत
हालाँकि जिंदगी में फेल होने के सुबूत बिखरे ही पड़े थे घर भर में
जिंदगी के इम्तहान में बैकपेपर देकर एक बार पास होने की इच्छा
रखती हैं किनारे से सटाकर

कुछ सावन रखती हैं छोटे से पाउच में
एक पुड़िया में रखती हैं जनवरी का कोहरा और कॉफी की खुशबू
जेठ की दोपहरों में घर के ठीक सामने
ठठाकर हँसते अमलताश की हंसी रखती हैं

कुछ किताबों को रखने की जगह नहीं मिलती
तो ठहरकर सोचती हैं कि क्या निकाला जा सकता है
सब रखने की चाहत में जबरन ठूंसकर सब कुछ
सूटकेस के ऊपर बैठकर बंद करने की कोशिश करती हैं

रिहाई का तावीज़ बना टिकट संभाल के रखती हैं पर्स में

पानी पीती हैं गिलास भर सुकून से
घर को देखती हैं जी भरके

एक खत रखती हैं टेबल पर
जिसमें लिखा है कि
लड़कियां घर से सिर्फ किसी के इश्क़ में नहीं भागती
वो भागती हैं इसलिए भी कि जीना ज़रूरी लगने लगता है
कि बंदिशों और ताकीदों के पहरेदारियों में
अपने ख्वाबों का दम घुटने से बचाना चाहती हैं

क्योंकि वो जी भरके जीना चाहती हैं....

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (18-03-2020) को    "ऐ कोरोना वाले वायरस"    (चर्चा अंक 3644)    पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
अपनी पोस्ट लिखने के साथ दूसरों के ब्लॉग पर भी तो कभी कमेंट दीजिए आदरणीया।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

आपने सही कहा आज भी कई जगह अपनी बात रखने के लिए छटपटाती रहती हैं लड़कियाँ। यह छटपटाहट कईयों में देखी है मैंने। सुंदर कविता। मन को छू लेती है।

Anita said...

जी भर के जीने का सुकून जिसे मिल जाये वही सबको जीने का अवसर दे सकता है, सुंदर आलेख