खिलखिला कर हंस रहे हैं फूल
पंछियों का झुण्ड
कलरव से भर रहा है सन्नाटा
तमाम बारिशों से गुजरने के बाद भी
पेड़ों ने बचायी हुई हैं
अपनी शाखों पर बौर
सुन सकती हूँ धडकन
आज फिर से
अपनी भी, तुम्हारी भी
नब्ज के चलने की आहटों पर
धर सकती हूँ ध्यान
वो जमा कर रहे हैं आटा, दाल, चावल
मैं जमा कर रही हूँ स्मृतियां...
पंछियों का झुण्ड
कलरव से भर रहा है सन्नाटा
तमाम बारिशों से गुजरने के बाद भी
पेड़ों ने बचायी हुई हैं
अपनी शाखों पर बौर
सुन सकती हूँ धडकन
आज फिर से
अपनी भी, तुम्हारी भी
नब्ज के चलने की आहटों पर
धर सकती हूँ ध्यान
वो जमा कर रहे हैं आटा, दाल, चावल
मैं जमा कर रही हूँ स्मृतियां...
1 comment:
सटीक और सामयिक प्रस्तुति
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