Sunday, March 22, 2020

जमा कर रही हूँ स्मृतियाँ


खिलखिला कर हंस रहे हैं फूल
पंछियों का झुण्ड
कलरव से भर रहा है सन्नाटा
तमाम बारिशों से गुजरने के बाद भी
पेड़ों ने बचायी हुई हैं
अपनी शाखों पर बौर

सुन सकती हूँ धडकन
आज फिर से
अपनी भी, तुम्हारी भी
नब्ज के चलने की आहटों पर
धर सकती हूँ ध्यान

वो जमा कर रहे हैं आटा, दाल, चावल
मैं जमा कर रही हूँ स्मृतियां...


1 comment:

Onkar said...

सटीक और सामयिक प्रस्तुति