Saturday, March 2, 2019

फिर खिले उम्मीद की कोई शाख...


मृत्यु बाहर नहीं घटती, भीतर घटती है. बाहर शोक का शोर घटता है जो एक लय में बढ़ता जाता है फिर शांत होकर सो जाता है. शोर जितना अधिक होता है, शोक उतना क्षीण। इन दिनों शोर बहुत है, मृत्यु का शोक. पूरा देश शोक में है, शोर में भी. शोक को शोर में बदल देने का पूरा कारोबार है. जो शोर में हैं वो दूसरों से पूछते हैं, तुम शोक में नहीं हो? यानी तुम्हें दुःख नहीं? कैसे इंसान हो तुम, इतना कुछ गुजर गया तुम्हें दुःख ही नहीं. लेकिन वो जो शोक में हैं वो शोर में होना नहीं जानते, जानना चाहते भी नहीं. दुःख हमेशा आंसुओं से बड़ा होता है, बहुत बड़ा. मैं शोक और शोर के द्वंद्व के बीच के फासलों को देख रही हूँ.

मैंने इस बरस बहुत सारी मृत्यु को आसपास देखा है. सालों मंडराने के बाद एक दिन चुपके से घट जाते हुए. उसके मंडराने का शोर घट जाने के साथ ही शांति में बदलते देखा है. खुद को नन्हे-नन्हे फिल्म या धारावाहिक के दृश्यों पर सिसकने से न रोक पाने वाली मैं मृत्यु के पलों में बुत ही रही हूँ हमेशा. फिर लम्बा समय गुजर जाने के बाद उस शोक को किसी सूनेपन में टूटते महसूस भी किया है. अजब है न सब. पर सच है. मृत्यु भीतर घटती है, शोक भी भीतर ही घटता है और शोक से लड़ने का साहस भी भीतर ही. फिर बाहर क्या है आखिर? 

मृत्यु ही नहीं जीवन भी भीतर ही घटता है, अन्तस में, भावनाओं के सबसे निजी कक्ष में. बाहर जीवन का विस्तार है, सुख की दशा में ख़ुशी से नाचती बूँदें, दुःख की दशा में प्रकृति का विलाप लगने लगती हैं. जब सब कुछ भीतर है तो इस भीतर के परिमार्जन की कोई बात क्यों नहीं। क्यों बाहर शोर का इतना सारा कचरा है?

अभी हाल ही में एक साथ में काम करने वाले साथी ने अपना जीवन साथी खोया है. कुछ दिन भीतर बाहर का शोर उछाले लेता रहा. भीतर घटती मृत्यु को जीवन में बदल पाने के प्रयास चलते रहे लेकिन मृत्यु घट चुकी थी. साथी जा चुका था. सरहद पर भी बहुत सारी मृत्यु घट रही है, शोर चिता की लपटों के साथ सिमट  जाता है बचता है सिर्फ शोक. गहन शोक. यह शोक शोर से डरता है. संवेदना के शब्दों से घबराता है. 

बाहर बारिश हो रही है. मुझे नहीं पता कि उस गहन शोक में अपने अन्तस के सूनेपन को कोई कैसे संभाल रहा होगा. मुझे नहीं पता कि दुनिया के किसी भी शब्दकोश में ऐसा कोई शब्द है जो भीतर घटते रुदन, अकेलेपन और शोक पर मरहम की तरह रखा जा सके. सबको अपने युद्ध खुद लड़ने हैं, अपना शोक खुद अपने कंधे पर उठाना है. फिर शोर क्यों बरपा है आखिर? 

देश और पड़ोस में कोई फर्क नहीं. दुःख जहाँ है वहां कोई शोर पहुँच नहीं सकता और शोर जहाँ है वहां दुःख कैसे टिकेगा भला? किसी के दुःख का, किसी के प्रेम का, संवेदना का हिसाब माँगना अश्लील है. सच में दुःख में डूबा व्यक्ति न किसी से हिसाब मांगेगा और न ही कोई हिसाब दे सकेगा. 

बाहर बारिश की बूँदें टूट रही हैं, भीतर टूट रहा है मन आहिस्ता आहिस्ता. दुआ है कि जो जहाँ है अकेला, उदास वहां शक्ति का जन्म हो. उसके भीतर फिर खिले उम्मीद की कोई शाख. 

6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (04-03-2019) को "शिव जी की त्रयोदशी" (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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महाशिवरात्रि की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

kuldeep thakur said...


पावन शिवरात्री की आप को शुभकामनाएं....
जय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
05/03/2019 को......
[पांच लिंकों का आनंद] ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में......
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद

विश्वमोहन said...

बहुत सारगर्भित रचना.

विश्वमोहन said...

बहुत सारगर्भित रचना!

Kamini Sinha said...

बाहर बारिश की बूँदें टूट रही हैं, भीतर टूट रहा है मन आहिस्ता आहिस्ता. दुआ है कि जो जहाँ है अकेला, उदास वहां शक्ति का जन्म हो. उसके भीतर फिर खिले उम्मीद की कोई शाख.
बेहतरीन रचना ,चिंतनपरक सादर स्नेह

Sudha Devrani said...

खुद को नन्हे-नन्हे फिल्म या धारावाहिक के दृश्यों पर सिसकने से न रोक पाने वाली मैं मृत्यु के पलों में बुत ही रही हूँ हमेशा. फिर लम्बा समय गुजर जाने के बाद उस शोक को किसी सूनेपन में टूटते महसूस भी किया है. अजब है न सब. पर सच है. ....
जी ये अजब सत्य ही है...शोक सचमुच अन्दर घटता है वहाँ कोई शोर नहीं पहुँचता नहीं कोई सान्त्वना....बहुत ही गहन चिन्तनीय रचना।