Friday, March 15, 2019

लोक के आख्यानों पर भी केन्द्रित हो हमारे व्याख्यान- जगमोहन चोपता


जगमोहन चोपता सामजिक सरोकारों से जुड़े युवा हैं. पहाड़ में रचे-बसे हैं. उनकी पैनी नजर और संवेदनशीलता नजरिये को विस्तार देती है. चूंकि वो जिया हुआ ही लिखते हैं इसलिए उनके लिखे में उनका जिया, महसूस किया हुआ आसानी से देखा और महसूसा जा सकता है. उनका यह आलेख 'सुबह सवेरे' अख़बार में थोड़ा सा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुका है. 'प्रतिभा की दुनिया' में यह समूचा लेख सहेजते हुए ख़ुशी है. - प्रतिभा 

हम संभवतः गांव की उन आखिरी पीढ़ी में से हैं जिन्होंने अपने बुजुर्गों से खूब सारे किस्से कहानी सुने हैं। हर मौके के लिये हमारे बजुर्गों के खजाने में ऐसे ही आख्यान भरे पड़े होते थे। ये आख्यान पिण्डर नदी के गोल पत्थरों की तरह खूब भारी, चमकीले और सुगढ़ होते हैं। ऐसे पत्थर जिन्होंने पिण्डर नदी के अथाह पानी को बहते देखा है। वर्षों से विपदाओं-आपदाओं से घिसटते-घिसटते जैसे ये पत्थर गोल हो गये हैं वैसे ही लोक की मौखिक परम्पराओं से आते-आते लोक अख्यान भी सुगढ़ और खूबसूरत हो गये हैं। इनमें जीवन जीने का सार है। ये किसी महादेश के संविधान की धाराओं, उपधाराओं, अधिकार, कर्तव्य और निति निर्देशक तत्वों की तरह लगते हैं। 

बस एक फर्क रहता है कि इन आख्यानों के खिलाफ जाने पर कोई दण्ड या अवमानना नहीं होती। लेकिन प्रकृति समय-समय पर अपना दण्ड किसी न किसी प्राकृतिक आपदा के रूप में जरूर देती रहती है। और तब-तब ये आख्यान अपनी सार्थकता और महत्व की ओर याद दिलाते हैं।

आज भी अचानक किसी घटना को देखते हुए ये मुझे लोक के आख्यान याद आ जाते हैं। ये आख्यान मुझे प्रकृति को देखने, समझने और उससे अतःक्रिया की तमीज देते हैं। इनका साथ होना चीजों को देखने समझने के नजरिये को भी देते हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों को आप से साझा कर रहा हूं।

गोपेश्वर से ऋषिकेश आते-जाते ऑल वेदर रोड़ का निर्माण कार्य को देखते रहता हूं। बड़े-बड़े बुल्डोजर पहाड़ को काटकर खूब चौड़ी रोड़ बना रहे हैं। पहाड़ की कटान से आये मलबे को जगह-जगह डंपिग जोन बनाकर डंप किया जा रहा है। आप अगर गौर करेंगे तो देखेंगे कि रोड़ की कटान से निकला अधिकांश मलबा ऐसे बरसाती गदेरों में उड़ेला जा रहा है। जिनमें आजकल बहुत कम पानी या कुछ जगह तो सिर्फ नमी बाकी है। लेकिन जब बरसात में इनमें रवानगी पर होते हैं तो इनमें खूब पानी होता है, तब क्या होगा? जब-जब में सड़क किनारे डंपिग 
जोन के बोर्ड देखता हूं तो मुझे कड़ाकोट चोपता क्षेत्र के बजुर्गों से सुनी कहानी याद आती है। 


एक पहाड़ी गदेरा जो बरसात में विशाल नदी की तरह हो गया है। बड़े अक्कड़ के साथ पिण्डर नदी से अपने बेटे के लिये रिश्ता मांगने जाता है। उसक रौद्र रूप और पानी की विशालता से पिण्डर नदी थोड़ा सकुचाती है। फिर सोचती है कि अभी अगर मना किया तो यह गदेरा उसको तहस-नहस कर सकता है। हां कर दूं तो ऐसे घमण्डी और बरसाती गदेरे के साथ उसकी बेटी कैसे रह गुजर करेगी। काफी सोच-विचार कर पिण्डर नदी कहती है कि आजकल तो बहुत पानी बरस रहा है और फुर्सत ही नहीं है इसलिये आप जेठ के महीने में आइयेगा। शादी खूब धूमधाम से करेंगे। जेठ में जब सारे बरसाती गदेरे सूख जाते हैं या उनका पानी इतना कम हो जाता है कि उनको गदेरा कहना ही बेकार है। ऐसे में जेठ आते ही गदेरा अपना सूखा सा मुंह लिये पिण्डर को ताकते रह जाता है। 

अब आप सोच रहे होंगे मैंने ये कहानी क्यों सुनाई। मैं चाहता हूं कि देशभर के जितने भी इंजिनियरिंग संस्थान हैं वहां के छात्रों को इस कहानी को जरूर सुनाना चाहिए। मेरी माने तो उनके कोर्स में इसको जितना जल्दी हो सके शामिल कर दीजिए। ताकि वे इसके मर्म को समझ पायें कि कोई भी बरसाती गदेरा बरसात में किसी नदी से ज्यादा विकराल हो सकते हैं। जब उन्हें ऐसे पहाड़ी इलाकों में कोई योजना तैयार करनी हो तो वे बरसाती गदेरे की ताकत का आंकलन कर अपनी योजना तैयार करें। अभी आप देख ही रहे होंगे कि ऑल वेदर रोड़ का पूरा मलबा ऐसे ही बरसाती गदेरों में डंप किया जा रहा है। इसका खामियाजा आने वाली बरसात में नदी और उसके किनारे के रहवासियों को भुगताना होगा। तब इसको प्राकृतिक आपदा नाम दिया जायेगा। जबकि यह लोक के उन आख्यानों की अवमानना का दण्ड है जो प्रकृति के नियमों के विपरीत आचरण के लिये मिलेंगे।

कुछ महीनों पहले मैं साथी ठाकुर नेगी के साथ फूलों की घाटी घूमने गया। खड़ी चढ़ाई हमको एक अलग दुनिया की ओर ले जा रही थी। वहां पेड़ों से छट कर आ रही धूप सहलाती रही थी। पेड़ों पर भांति-भांति की पक्षियों का कलरव रोमांचक संगीत जैसा था। पहाड़ी गदेरे से तेजी से बह रहे पानी से उपजा गीत हमको अलग लोक में होने का अहसास दिला रहा था। हम खड़ी चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते इसका आंनद उठा ही रहे थे कि हैलीकैप्टर की गर्जना ने इस पूरे माहौल को ध्वस्त कर दिया। ऐसा लगा जैसे पूरी भ्यौंडार घाटी में कोई युद्ध हो रहा हो। ऐसे में हॉलीवुड की फिल्मों के तमाम दृश्य याद आ रहे थे। लगातार आज जा रहे इन दैत्याकार हैलीकैप्टर की गर्जना में हम ठगे से कहीं गुम हो गये।

वहां पर्यटकों और स्थानीय जनों से बातचीत की तो पता लगा कि इस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं है कि इन गर्जना करने वाले यातायात के मंहगे साधन हैलीकैप्टर से यहां के जीव-जन्तुओं, पहाड़ों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। हां उनके अनुभव जरूर कहते हैं कि अब इस घाटी में पहले की तुलना में पक्षियों का दिखना तेजी से साल दर साल घटता जा रहा है। पहले आपको खूब सारे जंगली जानवर पहाड़ी या गदेरों के किनारे पानी पीते दिख जाते थे जो अब काफी कम ही दिखता है।

ऐसे में मुझे अपने बजुर्गों से सुना किस्सा रह रह कर याद आता है। बुजुर्ग कहते थे कि जंगल में ज्यादा तेज आवाज में बोलना या गाना नहीं चाहिए। ऐसा करने से आंछरी (परियां) हरण कर लेती है। अपनी मौत के डर से जंगलों में चारा-पत्ती या जलावन के लिये जा रही महिलायें और पुरूष को धीरे-धीरे बातचीत या गीत गुनगुनाते थे। इस बात के पीछे जंगल की आंछरियों वाले डर को यदि छोड़ लिया जाय तो इस बात के मूल में जंगलों पर निर्भर इस समाज को वहां की जैविक संपदा और जंगल के पशु पक्षियों की फिक्र ज्यादा दिखती है। आदमियों की चीख पुकार से वे डर सकते थे। जंगल में पशु-पक्षियों का डरना उस क्षेत्र से पलायन का कारण हो सकता था। जिससे फूलों के परागण, नये बीज का इधर उधर बिखेरने की प्रक्रिया बाधित हो सकती है। इससे जंगल बनने और बढ़ने की पूरी व्यवस्था भंग हो सकती थी।
इस किस्से को उन तमाम निर्माण कंपनियों के लिये तैयार हो रहे युवाओं को जरूर सुनाना चाहिए। ताकि वे बड़े-बड़े विस्फोटक से पहाड़ों को खत्म करने से पहले सोच पायें। उन तमाम हेली कंपनियों को अनुमति देने वाले अधिकारियों को जरूर सुनाना चाहिए ताकि वे बर्फिले या जैव विविधता वाले जंगलों के बीच स्थित चार धाम में हेलीकैप्टर की गर्जना के बजाय सहज और सुलभ यातायात का कुछ और रास्ता निकाल पायें।

आप कभी फूलों की घाटी घूमने जाओ तो रास्ते में भ्यूडार नदी के किनारे नदी के मलबे से दबे गांव को देख सकते हैं। किसी दौर में सौ सवा सौ घरों वाले इस गांव में हजार पन्द्रह सौ लोग रहते थे। नदी की बाढ़ के मलबे से यह आधा गांव दब गया। इस भयावह हादसे के बाद गांव के लोग दूसरी जगहों पर बसने को मजबूर हुए। 

क्या आप सोच रहे हैं कि इसको लेकर भी मैंने अपने बुजुर्गों से कुछ सुना है। यदि आप ऐसा सोच रहे हैं तो आप सही हैं। बुजुर्ग जब-तब कहते थे नदी का बासा कुल का नाशा। यानि नदी के किनारे बसना मतलब अपने कुल का नाश करना। पहाड़ में रिवर बेड ढ़ालदार होने के चलते नदियों का बहाव बहुत अधिक होता है। ऐसे में बरसात के समय नदियों का पानी बढ़ते ही वे किनारे की ओर अंधाधुंध कटाव करती है। नदियों के इस व्यवहार को देखकर ही पहाड़ के बुजुर्गों ने यह लोकोक्ति गढ़ी होगी। इस लोकोक्ति के गढ़ने और हम तक पहुंचने तक की यात्रा में न जाने कितने पहाड़ी गावों के तबाह होने के दर्दनाक अनुभव इसके अंदर समाहित हैं।

नदियों के किनारे अव्यवस्थित बसाहटों के चलते ही उत्तराखण्ड में हर साल हजारों की संख्या में लोग प्रभावित होते हैं। अगर इस आख्यान को हमारे नीति नियंताओं और हमारे राजनेताओं ने सुना और इस पर मनन किया होता तो वे केदार नाथ से लेकर पूरे पहाड़ की नदियों के किनारे बसने पर सख्त रोक लगाते। अगर वे ऐसा करते तो आपदा में केदारनाथ सहित पूरे पहाड़ में हजारों लोगों की जान को बचाया जा सकता था।

भौगोलिक चिंतन का इतिहास को देखे तो इसमें प्रकृति के साथ अन्तःकरण को लेकर तमाम विचार और विचारधाराओं की बात की जाती है। इनमें मुख्य रूप से तीन वाद दिखते है। मनुष्य जब प्रकृति के सानिध्य में था वह उसकी हर घटना के अनुरूप चलता था जिसे विद्यानों ने निश्चयवाद नाम दिया। मानव ने धीरे धीरे तकनिकी विकास के जरिये प्रकृति को अपने वश में करने की। इस कोशिश का परिणाम यह रहा कि उसने प्रकृति का अंधधुध दोहन किया और उसके दुष्परिणाम आज पूरा विश्व भुगत रहा है। आज भी इस तरह की कोशिशे जारी है। 

ऐसे दौर में भूगोलवेता ग्रिफिथ द्वारा सुझाए गए नवनिश्चयवाद का विचार दिया जिसे पर्यावरणीय निश्चयवाद भी कहा जाता है। पूर्णतः आश्रित और अंधाधुध दोहन के बीच नवनिश्चयवाद आज ज्यादा कारगर लगता है। यह सड़क के नियम की तरह रूको, देखो और जाओ जैसी बात है। यानि प्रकृति के साथ समन्वय जहां प्रकृति के विरोध में लग रहा है वहां रूक जाओ और जहां-जहां संभव हो और जो प्रकृतिसम्मत हो वहां काम करो। जिसमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर विकास की बात की जा रही है। ऐसा विकास जिसके केन्द्र में सिर्फ मानव नहीं है बल्कि उसके परिवेश में विद्यमान जीव जन्तु और वनस्पति भी है। 

आप इन तमाम आख्यानों को सुनने के बाद कहेंगे कि मेरा ये व्याख्यान तो विकास विरोधी है। पहाड़ को विगत दो दशकों से देखने समझने के अनुभव के आधार पर मैं इन बातों को कहने की कोशिश कर रहा हूं। मैं इस बात को कहने की कोशिश कर रहा हूं कि देश के हर गांव में विकास की किरण पहुंचनी ही चाहिए। लेकिन उस किरण को पहुंचने के रास्ते, साधन और प्रक्रिया क्या हो इस पर सोचा जाना चाहिए। यदि हम विकास को लेकर एंकाकी सोच में फंसे रहे और अन्य जगहों के विकास का मॉडल संवेदनशील पहाड़ों पर भी थोपते हैं तो आप विकास नहीं विनाश के बीज बो रहे हैं।

सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते में पूर्णविश्वास से कहता हूं कि लोक में व्याप्त इन आख्यानों को यदि हम अपने व्याख्यान या सीखने-समझने की प्रकियाओं का हिस्सा बनाना ही होगा। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम आदिवासियों को उनकी जमीनों से खदेड़ने से पहले ठिठक पायेंगे। हम पहाड़ों को रौंदने वाले इस भवाहव विकास के पहिये को रोकर प्रकृति के साथ सामंजस्य करने वाले अन्य साधनों की ओर देख पायेंगे या खोज पायेंगे। ऐसा करना समय के साथ-साथ इस धरती और यहां के रहने वाले तमाम जीवधारियों के हित में होगा। वरना हम विकास के ऐसे शिखर पर होंगे जहां मानव तो होंगे लेकिन मानवता कहीं नहीं दिख रही होगी।

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-03-2019) को "रिश्वत के दूत" (चर्चा अंक-3276) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Kamini Sinha said...

हर गांव में विकास की किरण पहुंचनी ही चाहिए। लेकिन उस किरण को पहुंचने के रास्ते, साधन और प्रक्रिया क्या हो इस पर सोचा जाना चाहिए।बहुत ही सुंदर ,चिंतनपरक और सारगर्भित लेख ,सादर नमन

Unknown said...

सत्य वचन