Tuesday, March 19, 2019

अब लागे तुमड़ी फूलण लागे तुम भी फाग मनाओ

- जगमोहन चोपता 

ठंड कम होने के साथ ही उत्सवधर्मी पहाड़ और पहाड़ी समाज इस पल को उत्सवों में बदलने की कोई कसर नही छोड़ता है। जंगल बुरांश, मेहल, प्यूली के फूलों से लकदक होते हैं तो चीड़ अपने परागण से पूरी धरती को पीला करने की होड़ में है। ऐसे समय में कौन चाहेगा कि इस पल में राग और फाग का मिलन न हो। तो पहाड़ी उठाता है ढ़ोल-दमाऊ और उन्मुक्त हो गाते हैं होली गीत और गुलजार हो उठते हैं पहाड़, गांव और वहां का समाज। 

सच में ऐसा ही कुछ होता है चमोली के चोपता-कड़ाकोट क्षेत्र में जब युवाओं की टोली गांव-गांव जाकर होली के गीतों को गाकर होली के जश्न को मनाते हैं। शुरूआत होती है चीर काटने से। चीर जो कि मेहल की फूलों से लकदक टहनी को काटकर गांव के बीच मंदिर में स्थापित किया जाता है। चीर काटने के दो तीन तक युवाओं की टोली होली का झंण्डा और ढ़ोल दमाऊं की थाप पर गांव गांव जाकर होली के गीत गाते हैं। इसी बहाने अपने बड़े बुर्जुगों का आशीवार्द लेने, अपने दोस्तों को मिलने और अपने क्षेत्र को जानने समझने का मौका होता है। होलिका दहन के दिन चार दिन पूर्व काटे चीर का दहन किया जाता है। जिसकी राख और रंग गुलाल से होली के दिन होली खेली जाती है। इस क्षेत्र के होली के गीतों को जब देखते हैं तो इनमें यहां के समाज की प्रतिध्वनियां सुनाई देती है। इन प्रतिध्वनियों में कहीं कहीं देशज शब्दों के साथ ही ब्रज की खुशबू भी मिलती है।
वैसे तो होली के गीत पूरे ही पहाड़ में खेती किसानी, पहाड़ के संघर्ष और उल्लास के पलों, देवताओं के वृतांतों के इर्द गिर्द होते हैं। बस इनमें क्षेत्र बदलने पर गाने के तरीको और कुछ कुछ शब्दों का हेर फेर होता रहता है। शायद यही लोक की ताकत है कि वह किसी खास जकड़न से मुक्त देशकाल के अनुरूप अपने को बदलते रहता है। यही लचीलापन इन गीतों को गाने के तरीकों, शब्दों के चयन और शिल्प में दिखता है जो इन गीतों में विविधिता लाता है।
पहाड़ के होली के गीतों के प्रकारों को समझना हो तो इनको मोटा मोटा पांच हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला, खेती किसानी और वहां के भूगोल का वर्णन करने वाले गीत। दूसरा रिश्ते नातों जैसे देवर-भाभी, दोस्त, प्रियतमा या परिवार जन को संबोधित करने वाले गीत। तीसरे किस्म के वे गीत हैं जो व्यापारी या किसी परदेशी के जीवन और कर्म से संबंधित हैं। चैथा, देवी देवताओं से संबंधित गीत जिसमें मुख्य रूप से राम, कृष्ण, सीता, दुर्गा आदि देवताओं के इर्दगिर्द गीत रचे गये हैं। पांचवा आशीष गीत है जिनमें होल्यार लोगों को आशीष देकर अगले साल आने की कामना करते हैं।
खेतीहर समाज में खेती एकमात्र आजीविका के मुख्य साधन था। ऐसे में होली के गीतों में पहाड़, खेती और उससे जुड़े हल-बैल, बीज, खेत आदि के वर्णन में सहज और गेयता का शानदार मिश्रण मिलता है। होली के गीतों में खूब सारे गीत खेती-किसानी और खेत खलिहान के जीवंत अनुभवों से भरे हैं इसकी एक बानगी देखिये-
पूरब दिशा से आयो फकीरो/ लाया तुमड़ि को बीज, तुम भी राग मनाओ
अब लागे तुमड़ी बोयण लागे/ बोये सकल खेत, तुम भी राग मनाओ
अब लागे तुमड़ी जामण लागे/जागे सकल खेत तुम फाग मनाओ
अब लागे तुमड़ी गोडण लागे/गोड़े सकल खेत तुम भी फाग मनाओ
अब लागे तुमड़ी फूलण लागे/फूल सकल खेत तुम भी फाग मनाओ
अब लागे तुमणी काटण लागे/काटे सकल खेत तुम भी

इस गीत में तुमड़ी यानि कद्दू के बीच की यात्रा और उसको बोने से लेकर काटने तक की पूरी यात्रा का जिक्र है। यह सिर्फ जिक्र भर नहीं है बल्कि इसके जरिये खेती किसानी में बीजों को दूसरी जगहों से लाने, उपजाने और उसको पूरा सम्मान देने का मामला लगता है। किसी बीज के प्रति इस तरह का प्रेम खेतीहर समाज की सृजनशीलता को दर्शाता है। ऐसे खूब सारे गीतों के जरिये वे बीज, हल, बैल, खेती को पूरा सम्मान देने के साथ ही उसका जश्न मनाते हैं। ऐसा ही एक और शानदार होली गीत में खेती, पशुधन और घर की गृहस्थी का मजेदार समावेश दिखता है।
देश देखो रसिया बृजमण्डल/हमारे मुलक में गाय बहुत है
बड़ी-बड़ी गाये, छोटी है बछिया, रसिया बृजमण्डल
हमारे मुलक में धान अधिक है/कूटत नारि पकावत खीर, रसिया बृजमण्डल
हमरे मुलक में गेंहू अधिक है/पीसत नारि पकावत पूरि, रसिया बृजमण्डल
होली में खूब सारे गीत हैं जो देवर-भाभी, प्रेमी और परदेश में रह रहे अपने परिजनों की सलामती और उनके होली आगमन की कामना लिये होते हैं। पहाड़ के प्रकृति पे्रमी होल्यारों ने देवर भाभी के गीतों की रचना में भी सादगी और निर्मल प्रेम को ही केन्द्रबिंदु बनाया। उसकी बानगी देखिये-
मेरा रंगिलो देवर घर आयो रह्यो/केहिणू झुमका केहिणू हार
मैखुणी गुजिया लायो रह्यो, मेरो रंगिलो...
केखुणी बिंदी, केखुणी माला/मैखुणी साड़ी लायो रह्यो मेरा, मेरो रंगिलो.....
पहाड़ की जटिल भौगोलिक बसाहटों में किसी अपरिच का आना भी अनोखी बात रही होगी। ऐसे में होली के गीतों में उस समाज में आने वाले हर प्रकार के अजनबी लोगों का भी जिक्र है। जिन्होंने वहां आकर वहां के लोगों के जीवन को सरल, सहज बनाने में योगदान दिया। ऐसे ही घूम घूक कर व्यापार करने वाले व्यापारियों को लेकर एक मशहूर होली गीत है। जिसमें उनकी भूख-प्यास और पैदल चलने से लगी थकान का सुन्दर वर्णन मिलता है। उसकी बानगी देखिये।
जोगी आयो शहर में ब्यौपारी झू की/इस ब्यौपारी को क्या कुछ चाहिए
इस ब्यौपारी को प्यास लगी है/पानी पिलाई दे नथ वारी, झुकी आयो
इस ब्यौपारी को भूख लगी है/खाना खिलादो नथ वारी जोगी
होली में खूब सारे गीत ऐसे रचे गये हैं जिनमें होली की रचना को देवताओं की उपज माना गया है। इसके जरिये इसकी महत्ता और जरूरत को धार्मिक रूप से स्थापित करने की पहल दिखती है। ऐसे गीतों के जरिये स्थापित देवी देवताओं के साथ ही स्थानीय देवी देवताओं के नाम जोड़कर अपने गांव या क्षेत्र में होली की रचना को स्थापित करने की कोशिश की जाती है। उसकी बानगी देखिये!
एकादश द्वादशी चीर ब्रहमा ने होली रची है/रची ब्रह्मा ने होली होली की धूम मची है।
चोपता मण्डल बीच दुर्गा ने होली रची है/रची दुर्गा ने होली होली की धूम मची है
मथुरा मण्डल बीच कृष्ण ने होली रची है।/रची कृष्ण ने होली होली की धूम मची है
होली के गीतों को देखे तो इनमे राममायण के तमाम प्रसंग, कृष्ण लीलाओं के प्रसंग, शिव-पार्वती प्रसंगों का खूब प्रभाव दिखता है। लोक के खरे और खनकदार शब्दों में पगे इन होली गीतों में खूब सारी करूणा, प्रेम, वीरता, विपदाओं और अल्हाद के भाव भरे पड़े हैं। ऐसे में होल्यार जब किसी करूण और विपदाओं प्रसंग पर होली गाते हैं तो उनकी आवाज में वो दर्द साफ झलकता। ऐसे में गीतों को सुन रहे लोगों की आखों के पोर गीले हो जाते और वे करूणा से भर उठते हैं। वे अपने जीवन के दुख और विपदाओं को इन गीतों के साथ संतति बैठाकर झूमने लगते। वहीं वीररस के होली गीतों में वे ठेठ पहाड़ी पराक्रम से भुजाओं को फटकाते हुए ऐसे गाते हैं जैसे किसी नरभक्षी बाघ के शिकार के लिये निकल पड़े हों। राम के वनवास के समय का ऐसा ही एक गीत की बानगी देखिये।
ओहो केकई राम गयो वनवासन/पिता दशरथ अरज करत है
राम न माने एक, केकई राम/माता कौशल्या अरज करत है
राम ना माने एक, केकई राम/मात्रा सुमित्रा अरज करत है
राम न माने एक, केकई राम/भाई भर अरज करत है
लंका प्रसंग को होली के गीतों में हनुमान के जरिये लंका कैसे है का विवरण है जिसमें हनुमान के जरिये लंका की भौगोलिक स्थिति के साथ ही राम के भक्त विभिषण का जिक्र किया जाता है। इस तरह-
बोलो पवनसुत वीर, गढ़लंका कैसी बनी है/ वार समुन्दर पार समुन्दर बीच में टापू एक
लंका गढ़ के चार है द्वारे, उन पर पहरे अनेक/गढ़ लंका ऐसी बनी है
लंका गढ़ में घोर निशाचर, भक्त विभिषण एक/गढ़ लंका ऐसी बनी है
बोलो पवनसुत बीर, गढ़ लंका कैसी बनी है
देवताओं से संबंधित खूब सारे होली गीतों में दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की अलग अलग तरह से वर्णन किया जाता है। उनकी पूजा अर्चना से लेकर आशीष देने की कामना इन गीतों में भरी हुई हैं। इसी प्रकार के गीतों में से एक होली गीत है उसको देखिये।
खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर/दर्शन दीजे माई अम्बे दुलसी रहो जी/दुलसी रहो घड़ी चार अम्बे दुलसी रहो जी
तिल का तेल, कपास की बाती/दर्शन दीजे माई अम्बे दुलसी रहोजी 

होल्यार जब लोगों के आंगन में पहुंच कर होली के खूब सारे गीत गाने के बाद विदा लेते हैं तो वे लोगों को खूब सारा आशीष देते हैं। आशीष के इन गीतों में बाल बच्चों की खुशहाली, समाज की खुशहाली, खेत-हल-बैल की खुशहाली के साथ अगले साल आने का वादा होता है। यह वादा ही होता है जो पूरे सालभर तमाम कठिनाइयों के बाद भी होल्यारों को जीवन जीने का संबंध देता है। ऐसे पलों में होल्यार खुद भी भावुक हो कर विदा लेते लेते गाते हैं-
गावे बजावे, देवे आशीषा/तुम हम जींवे लाखों बरिषा/ह्वे जाया नाती खैल्यूणा/रंगो में राजी रहो जी
राजी रहो मेरे खेल खिलाड्यों/अब आऊंगी दूसरे फागुन को.


(19 मार्च को लखनऊ से प्रकाशित दैनिक 'जनसन्देश टाइम्स' में प्रकाशित)


7 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-03-2019) को "बरसे रंग-गुलाल" (चर्चा अंक-3280) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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होलिकोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर आलेख। आभार। शुभकामनाएं।

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,

आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 21 मार्च 2019 को प्रकाशनार्थ 1343 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।

मन की वीणा said...

वाह बहुत सुन्दर।

Sudha Devrani said...

बहुत सुन्दर आलेख....पहाड़ के लोकगीतों के साथ...।

Anita said...

पहाड़ों पर जीवन कितना कठिन होता है किन्तु गीत-संगीत और नृत्य से सजे उत्सव उसे सरल बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं..सुंदर विस्तृत आलेख के लिए बधाई !

संजय भास्‍कर said...

वाह बहुत सुन्दर।