Monday, December 31, 2018

वो कोई बरहमन तो नहीं था फिर भी..


कोई साल कहीं नहीं जाता कोई याद कभी नहीं बीतती. जो बीत जाती होतीं यादें तो दिल में कुछ कसकता सा क्यों रहता. हर्ष के उल्लास के शोर में क्या छुपाना चाहते हैं सब. क्या यह महज कैलेंडर बदलने का शोर है या सचमुच कुछ बदल रहा है. क्या कल के सूरज में कुछ नया होगा, क्या हर दिन के सूरज में कुछ नया नहीं होता. नया क्या होता है आखिर. मुझे नहीं मालूम. ये सब बहुत बड़े बड़े सवाल लगते हैं मुझे. मैं सवालों मेंं उलझना नहीं चाहती, बस जीना चाहती हूँ. पिछले बरस कुछ यूँ चाहा था अपना नए कैलेंडर वाला बरस...

खुद के लिए लम्हे चुराउंगी
बनूँगी थोड़ी और मुंहफट
जिंदगी को गले लगाकर खिलखिलाऊँगी
करुँगी खूब सारी यात्राएं
दोस्तों से और करुँगी झगड़े
बिखरे हुए घर को मुंह चिढ़ाऊंगी
नींदों से ख्वाब चुरा लूंगी
समंदर किनारे दौड़ लगाउंगी
नदी की बीच में धार में खड़े होकर
पुकारूंगी तुम्हारा नाम
इस बरस... 

और सचमुच किया यही सब. मुन्नार की यात्रा से शुरू हुआ नए कैलेंडर का सफर तो कोच्चि के समन्दर से होते हुए गोवा के समन्दर तक ले गया. दोस्ती ने नये मुकाम हासिल किये, खोलीं कुछ और गिरहें जो अवचेतन में पैबस्त थीं कहीं. बरसों एक टुकड़ा नींद को तरसी आँखों पर नींद की रहमत हुई. कुछ दोस्तों के पास न पहुँच पाने का अफ़सोस है कि उन्हें मेरी जरूरत थी, या मुझे होना था उनके मुश्किल वक़्त में. फिर भी मन रहा उन दोस्तों के पास ही. इस बार के कैलेंडर पर कोई इंतजार नहीं लिख रही, सिर्फ बहार लिख रही हूँ. कुछ जंगल, कुछ नदियाँ लिख रही हूँ, ढेर सारा प्यार थोड़ी सी तकरार लिख रही हूँ. बहुत सारी नींद लिख रही हूँ बस कि अब मुझे नींद आने भी लगी है. जिसने कहा था कि ये साल अच्छा है वो बरहमन तो नहीं था...लेकिन यकीनन अच्छा था ये साल...

Thursday, December 27, 2018

'ओ अच्छी लड़कियो' की गोवा यात्रा


शुभा मुद्गल जी की आवाज में ढला 'अली मोरे अंगना' सुनती थी तो रिपीट मोड में सुनती ही जाती थी. उनकी आवाज में ढला हर गीत जो एक बार साथ हुआ, तो उससे कभी साथ छूटा ही नहीं. रेनकोट का गीत 'पिया तोरा कैसा अभिमान' तो दिल में शुभा जी की तरह ही बेहद ख़ास जगह रखता है. वही शुभा मुद्गल अगर कहें कि, 'प्रतिभा जी, आपकी कविता को संगीत में ढालना चाहती हूँ' तो मेरी क्या स्थिति होगी, समझा जा सकता है.

उन्होंने और अनीश प्रधान जी ने 'ओ अच्छी लड़कियों' को गोवा में होने वाले Serendipity Arts Festival 2018 के लिए चुना. 15 से 22 दिसम्बर तक आठ दिन तक चलने वाले इस फेस्टिवल में सातवां दिन हिंदी कविताओं के नाम रहा जिन्हें संगीतबद्ध किया अनीश प्रधान और शुभा मुद्गल जी ने, और जिन्हें अपनी खूबसूरत, दिलकश आवाज से सजाया ओमकार पाटिल और प्रियंका बर्वे ने. कविताओं के इस गुच्छे को Maverick Playlist का नाम मिला जिसमें केदारनाथ सिंह, नज़ीर अकबराबादी, मीराबाई, पल्टूदास, शुभा मुद्गल और प्रतिभा कटियार यानी मेरी कविता को चुना गया.

मेरे लिए गोवा की यह यात्रा असल में कविता यात्रा ही थी, इस जिज्ञासा के साथ कि किस तरह ढलेगी यह कविता संगीत में और कैसे कोई गायेगा इसे. शुभा जी और अनीश जी ने बहुत मोहब्बत से तमाम कविताओं को संगीत दिया और ओमकार तथा प्रियंका ने उतनी ही शिद्दत और मोहब्बत से इन्हें आवाज दी.

वह एक जादुई शाम थी जब शुभा जी से जी भर के गले लगते हुए मेरी आँखें सुख से छलक पड़ी थीं. पूरे कार्यक्रम में वो मेरे करीब बैठी थीं और पूछती जा रही थीं कि ठीक बना है न संगीत? उन्होंने मुझे बैकस्टेज ही बता दिया था कि उन्हें यह कविता इतनी पसंद है कि इसी से कार्यक्रम का समापन किया जायेगा.

शुभा जी के करीब बैठकर कविताओं को सुरों में ढलते देखने की यह जादुई शाम थी. सभी कवितायें संगीत में रच-बसकर और खूबसूरत हो उठी थीं. मैं जैसे किसी जादुई लम्हे में थी. ओमकार बेहद शानदार कलाकार हैं. उनकी जिन्दादिली और मीठी आवाज ने कविता को जिस अपनेपन से गया उसे सुनकर ही महसूस किया जा सकता है.

शुभा जी, अनीश जी, आपसे मिला मान और स्नेह कीमती पूँजी हैं, जिसे उम्र भर संभाल कर रखूंगी. ओमकार, तुम्हारी आवाज बस गयी है दिल में. तुम जादूगर हो सच में. दोस्त अजय गर्ग, अगर आप साथ न होते तो इन लम्हों को मैं किस तरह अकेले समेट पाती भला! प्यारी प्रेरणा, तुम्हारे बगैर कुछ भी कहाँ संभव था...!

यह प्यार बना रहे...संगीत, कला, साहित्य और लहरों का साथ बना रहे!
दोस्त बने रहें!

Friday, December 14, 2018

कहानी- इंतजार के पार


- प्रतिभा कटियार

बादल बरसते-बरसते थक चुके थे. थककर ऊंघने लगे थे. हालाँकि उन्होंने बरसना बंद नहीं किया था लेकिन बरसते-बरसते जो थकान आ गयी थी उससे उनकी गति थोड़ी-धीमी हो गयी थी. थके हुए बादलों को देखना भला लग रहा था. घर में दूध था, आटा था, नमक था इसलिए बरसना बहुत अखर नहीं रहा था. चाय बनने का इंतजाम हो, नमक और आटा हो तो घर से बाहर जाए बिना काफी दिन मजे में निकाले जा सकते हैं. दूर्वा ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराई. वो इन बादलों के रुकने की प्रतीक्षा में नहीं है, इनके जी भरके बरस लेने का इंतजार में है. बरसने की इच्छा को बचाकर रखना बहुत मुश्किल होता है. बरसने को न मिले जिन बारिशों को वो फिर बाढ़ बन सकती हैं, तबाही ला सकती हैं. बेहतर है कि उन्हें वक्त पर बरस लेने दिया जाय. हाथ बढ़ाया तो बारिश उँगलियों को छूते हुए कमरे तक चली आई. कुहनी से टपकती हुई बूँदें फर्श भिगोने लगी. दूर्वा ने महसूस किया अब उसके जीवन में किसी भी तरह की कोई प्रतीक्षा नहीं है न भीतर, न बाहर.

यूँ प्रतीक्षाएं हमेशा रही हैं उसके जीवन में. ठीक उसी तरह जैसे वो हर किसी के जीवन में रहती हैं. कुछ प्रतिक्षाएं पूरी हो जाती हैं, कुछ बूढी हो जाती हैं, उनके चेहरे पर हाथों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, उनकी आवाज कांपने लगती है. कुछ प्रतीक्षायें असमय मौत की शिकार हो जाती हैं जिनकी विदाई कुछ दिन के आंसुओं और उदासी से हो जाती है. कुछ प्रतीक्षाएं अजीब होती हैं. वो बार-बार भ्रम देती हैं कि वो अब नहीं हैं, लेकिन वो रहती हैं शाश्वत. और कुछ की आपस में अदला-बदली होती रहती है. जैसे कुछ देर पहले चाय पीने की इच्छा का इस वक़्त बारिश में भीग लेने की इच्छा से अदला-बदली होना.

बारिश में भीगने की इच्छा को सूखे रेनकोट की तरह तह करके मन के भीतर रखते हुए दूर्वा चाय पीने की इच्छा के साथ चल पड़ी. चाय के खौलते पानी में उसने चाय की पत्ती के दरदरे दानों के साथ अतीत के कुछ लम्हे भी उबलते देखे. सनी के बिना जी नहीं सकेगी लगता था, उसे लगता था कि एक रोज सनी समझेगा इस बात को. सनी समझेगा एक दिन इस प्रतीक्षा में कितने बरस बीत गए. एक दिन यह प्रतीक्षा इस प्रतीक्षा से बदल गयी कि असल में सनी को नहीं उसे खुद को समझना है. और एक दिन दूर्वा सनी की प्रतीक्षा से बाहर निकल आई.

चाय के बनते-बनते बारिश थम सी गयी और दूर्वा चाय लेकर बाहर बालकनी में आ गयी. पत्तियों पर अटकी बूँदें जैसे मन के किसी कोने पर अटका कोई इंतजार हो, खूबसूरत, दिलकश और किसी भी वक़्त टप्प से टपक जाने को व्याकुल.

13 बरस हो गये सनी से अलग हुए. हालांकि १३ सेकेण्ड भी उसकी याद मन से दूर गयी हो ऐसा उसे याद नहीं. आज सनी शहर में है. और वो उससे मिलने आना चाहता है. दूर्वा समझ नहीं पा रही कि उसे कैसा महसूस हो रहा है. वो चाय की एक-एक बूँद को भीतर जाते महसूस कर पा रही है, उसके स्वाद को जबान पर महसूस कर पा रही है लेकिन सनी के 13 साल बाद मिलने आने को महसूस नहीं कर पा रही.

कुछ ही देर को रुकी थी बारिश फिर वापस आ गयी. दूर्वा कमरे में लौटी तो मोबाईल के स्क्रीन पर मैसेज था सनी का. घर का पता पूछ रहा था वो. दूर्वा देर तक मोबाईल के उस मैसेज को देखती रही. जवाब दे न दे, पता भेजे न भेजे तय नहीं कर पा रही थी. फिर उसने पता भेज दिया और चार तकियों के गड्डे पर सर रखकर लेट गयी.

जब सनी के आने के दिन होते थे तो कैसे झूम-झूम कर घर सजाती थी वो. उसकी पसंद की खाने की चीज़ें, बेडकवर, किताबें. गिटार घर में सिर्फ इसलिए है इतने सालों से कि किसी रोज सनी ने कहा था कि उसकी इच्छा है कि उसका एक कमरा हो जिसमें गिटार हो. वो यह बात कहकर भूल गया लेकिन दूर्वा उस बात को उठा लायी. घर में गिटार रहता है तो लगता है सनी भी रहता है थोड़ा सा.

गिटार अब भी रखा है ड्राइंग रूम में हालाँकि अब वह सिर्फ एक सामान की तरह ही है बस. कई बार दिल चाहा कि हटा दें, आखिर उसे कोई बजाने वाला तो हो, म्यूजिक स्कूल है पास में वहीँ रखवा दे लेकिन जाने क्यों दूर्वा गिटार हटा नहीं पाई.

आज जब सनी आ रहा है तो घर एकदम बिखरा पड़ा है, बारिश के चलते न खाना बनाने सावित्री आ रही है, न मोहन भैया जो सफाई कर जाते थे और न ही घर में कुछ सामान है. दूर्वा को थोड़ी सी चिंता हुई, वो उठी सफाई करने को फिर न जाने क्या सोचकर वापस लेट गयी.

मौसम खूब ठंडा हो रहा है, दूर्वा ने शॉल लपेटते हुए चाय का पानी चढ़ा दिया. शायद सनी का इंतजार ही था यह पानी चढ़ाना. लेकिन यह इंतजार तो बीत गया था, फिर भी बचा रह गया क्या?

फोन घरघराया तो दूर्वा चौंकी. सनी ही था. ‘हैलो, मनु! ये माधव जनरल स्टोर से किधर को मुड़ना है, राइट या लेफ्ट?’

‘लेफ्ट, वहां से सीधा लेना फिर एक लेफ्ट उसके बाद एक राईट. बस.’

‘ओके’ कहकर सनी ने फोन काट दिया.
‘कितना लेफ्ट राइट करवा रही हो. एक ठीक सी जगह घर नहीं लिया जाता तुमसे. ऊपर से इतनी बारिश. दिमाग खराब करके रखा है.’ दूर्वा के अतीत के पन्ने खुलने लगे थे जहाँ से सनी कुछ इस तरह बडबडा रहा था.
बारिश और तेज़ होती जा रही थी. कुछ ही देर में सनी घर में था.

‘काफी बारिश हो रही है न?’ सनी ने जूते बाहर उतारते हुए कहा.
‘हाँ’ कहकर दूर्वा किचन में चली गयी पहले से चढ़ाये पानी में चीनी अदरक डालने.
लौटी तो सनी अख़बार पलट रहा था.

‘तुम क्या सारी जिन्दगी अख़बार पढ़ते हुए बिता सकते हो? इतने सालों बाद आये हो और अब भी अख़बार?’ पहले का वक़्त होता तो मुलाकात की शुरुआत इसी के साथ झगड़े से होती. लेकिन दूर्वा ने कुछ नहीं कहा.
‘एक मीटिंग थी यहाँ? उसी में आया था.’ सनी ने कहा.
दूर्वा चुप रही.
कमरे में देर तक चुप छाई रही. यह चुप इतनी बड़ी होती जा रही थी कि दूर्वा को घबराहट होने लगी. वो चाय लेने को उठी तो सनी भी उठ गया.
‘तुम बैठो, मैं ले आता हूँ चाय’ यह अतीत के पन्नों में गुम हो चुका सनी ही था.
‘कप कहाँ हैं, छन्नी कहाँ है?’ सनी ने किचन से ही ऊंची आवाज में पूछा. दूर्वा का जी चाहा जोर से चिल्लाकर बोले 13 साल बाद लौटे हो तो बैठो न मेहमान की तरह, क्यों गए किचन में. उसके भीतर रुदन उखड़ने लगा था. वो गयी और कप और छन्नी निकालकर रख आई.

‘बारिश की वजह से फ्लाईट काफी लेट हैं.’ सनी शायद चुप वापस न आ जाय इसलिए बोल रहा था.
‘मनु, ये वाला घर कब लिया तुमने?’
4 साल हुए. दूर्वा ने जवाब दिया.
मनु, यह नाम कितने अरसे बाद उसने यह नाम सुना अपने लिए. मनु यह नाम सनी ने ही दिया उसे. दूर्वा नाम उसे पसंद नहीं था. कहता था ‘यह कैसा नाम है, तुम घास हो क्या?’
दूर्वा कहती ‘हाँ, जंगली घास, बिना परवरिश के बढती जाती है, जितना कुचलो उतनी और बढती है.’
क्यों कुचले कोई, उन्हह. यह सब बकवास है. मुझे यह नाम पसंद नहीं. तुम मनु हो मेरी, मेरे मन की साथी. मनु. मनु नाम से उसे कोई नहीं बुलाता.
बाहर संवाद कम थे, भीतर संवादों का कोहराम मचा था.
‘मीटिंग अभी है या ख़त्म हो गयी ?’ दूर्वा ने औपचारिकता वश पूछ लिया.
‘खत्म हो गयी.’ सनी ने जवाब दिया.
‘तुम कैसी हो?’ अभी शायद पूछेगा सनी दूर्वा को बार-बार लग रहा था. लेकिन सनी ने नहीं पूछा.
‘चाय मीठी पीने लगी हो तुम?’
नहीं, तुम्हारी वजह से चीनी ज्यादा डाली थी, उसने कहना चाहा लेकिन कहा ‘हाँ’.
‘घर में कुछ खाने को नहीं है, बारिश के कारण निकलना नहीं हो पाता न? ड्राइवर भी छुट्टी पर है.’ दूर्वा ने कहा.
‘अरे तो बता देती न, कुछ लेते आता.’
‘मेरे भर का तो है’ दूर्वा ने अनमने मन से कहा.
‘अरे तो मैं अपने लिए ही ले आता. सनी ने माहौल को हल्का करते हुए कहा.’
‘मनु, तुमने अभी तक गाड़ी चलानी नहीं सीखी?’
‘कितना कुछ तो सीखा है. गाड़ी चलानी ही जरूरी है क्या?’ दूर्वा ने कहना चाहा लेकिन कहा ‘नहीं. मोहन भैया की वजह से कोई दिक्कत नहीं होती. वो आ जाते हैं जब जरूरत होती है’
‘कब तक किसी पर डिपेंड होती रहोगी?’ सनी ने कहा.
‘पता नहीं’

‘तुम कुछ खाओगे?’ दूर्वा ने बात बदलते हुए पूछा.
‘हाँ, लेकिन तुम्हारे घर में तो कुछ है नहीं, कुछ ऑर्डर करें क्या?’ सनी ने कहा.
‘इस बारिश में ऑर्डर भी क्या होगा, कौन आएगा. पिज़्ज़ा मुझे पसंद नहीं तुम जानती हो.’
‘नहीं मैं कुछ नहीं जानती.’ दूर्वा ने दृढ़ता से कहा.
घर में आटा है, आलू, प्याज है. चावल और नमक है.
‘अरे, इतने में तो पार्टी हो जाएगी. प्याज के पराठे बनायें?’ सनी, ने कहा.
दूर्वा बिना कुछ कहे किचन में गयी. पीछे से सनी भी आ गया और प्याज काटने के लिए चाकू तलाशने लगा. दूर्वा आटा माड़ने चली तो सनी ने उसे रोक दिया, मैं करूँगा ये. मुझे पता है तुम्हे आटा माड़ना पसंद नहीं.
दूर्वा चुपचाप बाहर आ गयी. सनी प्याज काटकर आटा माड़ने लगा.
अतीत के पन्नों से फिर कोई स्मृति निकलकर बाहर आ गयी छिटककर. जब वो किचन में होती थी और वो यूँ आ जाया करता था किचन में कितना मुश्किल हो जाता था खाना बन पाना. पीछे खड़े होकर वो उसे बीच-बीच में चूमता रहता था और मसाले अक्सर जल जाया करते थे.
तेज़ हवा का झोंका भीतर आया तो सिहरन से वर्तमान में लौटी दूर्वा. सनी किचन में कुछ गुनगुना रहा था. उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि वो तेरह बरसों का फासला पार करके आया है. अतीत की कोई सलवट नहीं है उसकी आमद में. जबकि दूर्वा बार-बार अतीत में हिचकोले खाने लग रही है.

ये हमेशा से खुद को छुपा ले जाने में माहिर रहा. इस तरह की सहजता से ये क्या बताना चाहता है कि कुछ भी नहीं बदला है? सब पहले जैसा ही है? कि यह मुझे अब भी मुझे पहले जैसे ही प्यार करता है? लेकिन ऐसा तो इसने कभी कहा नहीं था. यह हमेशा कहा कि मैं इसका सर खाती रहती हूँ. तो अब यह मेरा सर क्यों खा रहा है? क्यों आया है? दूर्वा के भीतर घमासान छिड़ा हुआ था.

‘मनु, पराठे के साथ फिर से चाय पियोगी न?’ सनी ने किचन से ही आवाज दी.
‘हाँ’ दूर्वा ने आवाज में आई नमी को भरसक रोकते हुए कहा लेकिन वो भीगापन सनी तक पहुँच गया था. वो चाय और पराठे लेकर लौटा तो दूर्वा किचन में यह कहकर चली गयी कि शायद अचार रखा होगा. और अचार मिल गया.
‘मुझे नहीं चाहिए होता है अचार, तुम्हें पता तो है.’ चाय पराठा बेस्ट कॉम्बिनेशन.
दूर्वा बाहर देखने लगी. चाय उतनी ही बुरी बनी थी जितनी पहले सनी बनाया करता था. हर सिप अझेल हो रही थी.
यह आदमी हमेशा सिर्फ अपने बारे में क्यों सोचता है. इसे पता है इतने दूध वाली और इतनी मीठी चाय मुझे पसंद नहीं फिर भी. दूर्वा को गुस्सा आ रहा था.
सनी शायद काफी भूखा था, 4 पराठे चट कर गया.
‘होटल वाले खाने को नहीं देते क्या?’ दूर्वा ने व्यंग्य में पूछा.
सनी ने दूर्वा की प्लेट से आधा पराठा लेते हुए कहा, ‘देते हैं लेकिन प्याज के पराठे नहीं देते. और मैं बनाता भी तो अच्छे हूँ.’
फिर वही सेल्फ औब्सेसेड. हुंह. दूर्वा का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.
‘तुमको क्या लगता है मनु, 2019 में किस करवट बैठेगा ऊँट?’
‘अरे मुझे क्या पता? क्या तुम मुझसे अबकी बार किसकी सरकार का एग्जिट पोल लेने आये हो?’ दूर्वा मन ही मन खिसिया रही थी. लेकिन मन को सामने क्यों लाना, सनी अब उसके लिए सिर्फ एक मेहमान ही तो है. सिर्फ औपचारिक संवाद ही होने चाहिए सो उसने कह दिया.
‘लगता तो है, कि लौटेगी यही सरकार’
‘यह बहुत बुरा होगा मनु, बुरा तो हो ही रहा है वैसे लेकिन...’
‘सरकार जो बुरा कर रही है उसकी चिंता है, खुद जो मेरे साथ बुरा किया उसके बारे में कोई बात नहीं.’ मनु लगातार भीतर के संवाद में थी.
मैं तो औपचारिक संवाद में हूँ लेकिन यह कहाँ से मेहमान लग रहा है. वैसे ही चपर-चपर करके खा रहा है, उँगलियाँ चाट रहा है, किचन में कब्जा जमा लिया है. इसे देख बिलकुल नहीं लग रहा कि 13 साल बाद लौटा है.

हालाँकि दूर्वा ने महसूस किया कि 13 बरसों का सफर सनी पर भी साफ़ दिख रहा है. बालों की सफेदी काफी बढ़ गयी है. दाढ़ी भी खिचड़ी सफेद हो चुकी है. चश्मा लग गया है. रंग वैसे ही मरीले से पहनता है अब भी वही ग्रे कलर आज भी पहना हुआ है जिसके कारण कितनी बार झगड़ चुकी है दूर्वा. गिरा हुआ ग्रे क्यों पहनते हो तुम? लेकिन मजाल है कि सनी ने पहनना छोड़ा हो. देखो तो इतने बरस बाद मिलने आया है तो भी वही ग्रे. जैसे चिढाने को करता हो ये सब. हालाँकि वो कहा करता था कि किसी के लिए खुद को बदलना अस्थायी है, बदलाव को भीतर से स्व्त्फूर्त आना चाहिए. मुझे जब तक खुद ग्रे से कोई दिक्कत नहीं होगी मैं तो पहनूंगा. हाँ, हो सकता है तुम्हें यह बात न पसंद आये लेकिन यह तुम्हारी दिक्कत है.

वक़्त बीत गया लेकिन चीज़ें बदली नहीं. सनी अब भी ग्रे में अटका है, हालाँकि उस ग्रे की उदासी दूर्वा के जीवन में चली आई और शायद चमक सनी के जीवन में रह गयी. ऐसा दूर्वा को लगता रहा.

‘यार, सबसे घटिया राजनीति होती है भावुकता की राजनीति. लोगों के इमोशन्स पर कब्जा. पब्लिक साली अलग पागल है, मने रोने लगते हैं लोग पागलपन में. लेकिन पब्लिक का यह चरित्र भी तो इन्हीं सालों ने गढ़ा है. सोचो मत, जैसा हम कहते हैं वैसा मानो, जब हम कहें जिस बात कर कहें उस बात पर भावुक हो. जो हम दिखाएँ वही देखो. तो भाई वही देख रही पब्लिक.’ दूर्वा के मन के भीतर चलती उथल-पुथल को सुने बिना सनी बोले जा रहा था, हालाँकि दूर्वा को लग रहा था कि वो अपने भीतर की आवाजों को अनसुना करने के लिए बाहर की आवाजों का सहारा हमेशा से लेता रहा है. जब पहली बार आया था, मिलने तब भी दुनिया भर की राजनीती का गणित समझाता रहा था. हालाँकि न वो सुन रहा था जो वो कह रहा था, न दूर्वा सुन रही थी. वो दोनों वही सुन रहे थे जो कहा नहीं जा रहा था.

‘कितनी अजीब बात है न मनु, किसी की थाली में दो रोटी थी. उसकी भूख तीन रोटी की थी. सरकार ने कहा तुम अपनी दो रोटी मुझे दो मैं चार करके वापस दूंगा. फिर उसने कहा, तुम्हारी रोटी विपक्ष खा गया, पिछली सरकार खा गयी लेकिन फ़िक्र न करो मैं तुमको तुम्हारी रोटी दूंगा. और सरकार ने लम्बे इंतजार के बाद एक रोटी दी.’ गरीब ने कहा, सरकार की जय, सरकार ने हमें रोटी दी. भूख से मरने से बचा लिया. वो भूल गए कि रोटी दी नहीं है बल्कि छीनी है. जो तुम्हें मिली वो तुम्हारी ही रोटी थी. जितनी मिली वो अपर्याप्त है. कोई नहीं सुनेगा यह बात. जो यह बोलेगा वो देशद्रोही कहलायेगा और राजा वोट कमाएगा.

अपनी जमीन, अपनी जिन्दगी, अपने खेतों की फसल के सही दामों के लिए तरस रहे हैं लोग और उन्हीं को वोट दे रहे हैं, अपने ही घर में असुरक्षित हैं लेकिन जिससे सुरक्षा को खतरा है उसी से पनाह मांग रहे हैं. यह अफीम आज नहीं चटाई गई, बरसों से यही हो रहा है.’

सनी, पराठे खाकर एकदम ऊर्जावान हो गया था और उसके भीतर का एक्टिविस्ट सक्रिय हो उठा था.
दूर्वा ने छेड़ दिया, ‘भरे पेट की बात खाली पेट की बात से अलग होती है न?’
सनी, मुस्कुरा दिया. ‘सही कह रही हो’
‘आखिर हम भी तो तमाम लग्जरी जीते हुए सिर्फ बातें ही कर रहे हैं. क्या करें समझ नहीं आता.’ सनी ने प्लेट उठाते हुए कहा.
‘तुमने खाया नहीं पराठा ?’ सनी ने दूर्वा की प्लेट देखते हुए कहा.
‘मैं देखना चाह रही थी कि भूखे पेट इन्सान को भरे पेट इन्सान की बात कैसी लगती है.’ दूर्वा ने कहा.
इस बात के जितने भी अर्थ थे सब सनी ने सुने और वो चुपचाप किचन में चला गया. प्लेट धोने की आवाज सुनकर दूर्वा किचन में गयी, ‘अब, प्लेट तो रहने ही दो धोने को.’ उसने सनी का हाथ पकड़ लिया.

बरसों बाद का स्पर्श शायद दोनों को सहन नही हुआ. सनी ने तुरंत प्लेट छोड़ दी और बाहर आ गया, दूर्वा की पलकें नम हो गयीं.
‘तुम लोग यार कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लो फेमिनिज्म की लेकिन अब भी कामों को जेंडर लेंस से देखना छोड़ नहीं पाई पूरी तरह.’ सनी ने भीतर की सनसनाहट को भीतर धकेलते हुए कहा.
‘ऐसा कुछ नहीं है.’ दूर्वा ने कहा.
‘तुम अब भी चाय बनाना नहीं सीखे’ दूर्वा ने बात बदलने के लिहाज से अपने कप में छोड़ी हुई चाय को देखते हुए कहा.
‘कुछ भी कहाँ बदलता है मनु’ सनी ने कहा. यह कहते हुए उसका स्वर इतना स्थिर था कि दूर्वा ठिठक गयी. सनी बाहर देखने लगा जहाँ एक चिड़िया ने बारिश से बचने की तमाम कोशिशों के बाद आखिर भीगना ही चुन लिया था. सनी का दिल चाहा एक छाता लेकर जाए और चिड़िया के ऊपर लगा दे. जब मनु को जीवन की आँधियों और बारिशों से बचने के लिए प्रेम का छतरी चाहिए था, तब तो वह नहीं था. यह सोचकर सनी की आंखें गीली हो गयीं. उसे लगा वो भीगती चिड़िया मनु है और सनी जिसे छतरी होना चाहिए था वो बारिश हो गया है, वही वजह है उसके इस तरह भीगने की.
‘अंकिता कैसी है?’ दूर्वा ने पूछा.
‘अच्छी है, खूब शैतान. इतना बोलती है क्या बताऊँ.’ सनी की आवाज में खनक आ गयी थी.
दूर्वा उस चमक के भीतर उदास होने लगी.
‘और रश्मि?’ दूर्वा ने अपने पाँव के नाखून पर नज़रें टिकाये हुए पूछा.
‘वो बहुत अच्छी है. अपना काम शुरू किया है बुटीक का. अच्छा चल रहा है. खुश रहती है.’ सनी ने जैसे रटी हुई स्पीच उगल दी हो और उसके बाद राहत की सांस ली हो.
‘और तुम?’ यह दूर्वा के पास सनी के लिए अंतिम प्रश्न था.
‘तुम्हारे सामने हूँ हट्टा-कट्टा. मरा नहीं हूँ तुम्हारे बिना. हा हा हा’ सनी ने गंभीरता को सहजता में बदलने की कोशिश की.
‘सामने होने से कुछ नहीं होता. होना और सामने होना दो अलग बाते हैं.’ दूर्वा धीरे से बुदुदाई.

‘तुम कैसी हो?’ सनी ने पूछा.
‘तुम्हारे सामने हूँ. हट्टी कट्टी मरी नहीं हूँ तुम्हारे बिना.’ दूर्वा ने उसी का जवाब कॉपी पेस्ट कर दिया.’
सनी उदास हो गया.
‘हाँ, क्यों मरना यार. जब लोग भूख से मर रहे हों ऐसे में प्यार में मरने की बात करना लग्जरी ही तो है. हालाँकि न मरना जीना ही है यह कहना मुश्किल है. ‘
बादलों की गडगडाहट तेज़ होती जा रही थी. शायद बिजली गिरी है कहीं. बारिश लगातार तेज़ होती जा रही थी.
‘गाड़ी ठीक है?’ सनी ने पूछा.
‘हाँ. क्यों?’ जाना था कहीं काम से. कुछ देर को. चाबी दोगी?’
दूर्वा ने गाड़ी की चाबी टेबल पर रख दी.
दो घंटे हो गए हैं सनी ने अब तक उसे छुआ तक नहीं. पहले किस तरह बेसब्र हुआ करता था. चाय रखे रखे ठंडी हो जाती थी. चुम्बनों की बौछार होती थी उस पर. कितना नशा था उस स्पर्श का. उसकी बेसब्री किस कदर मोहती थी दूर्वा को. लेकिन 13 बरस का फासला सब बहा ले गया.
‘मैं आता हूँ कुछ देर में? कुछ लाना है? दवाई वगैरह?’
‘नहीं सब है मेरे पास.’ कहते हुए दूर्वा ने सुना कि कुछ भी तो नहीं है मेरे पास क्या-क्या ला सकोगे?
सनी चला गया.

दूर्वा अतीत और वर्तमान के बीच हिचकोले खाती रही. कोई वजह नहीं थी उन दोनों के बीच इस दूरी की. कोई भी वजह नहीं थी फिर भी फासले उगते गये. मनु, कितने बरसों बाद इस नाम से पुकारा जाना अच्छा लग रहा था दूर्वा को. शायद इस तरह का अच्छा लगने का अभ्यास छूट गया था उसका.
दूर्वा अब ज्यादा खामोश हो गयी है. हालाँकि उसके भीतर काफी शोर भर गया है. सनी अब खूब बोलने लगा है लेकिन शायद वो भीतर कहीं मौन हो गया है. बारिश इन दोनों की धुन को समझती है.

सनी लौटा तो उसके दोनों हाथों में सामान था. सब्जियां, फल, राशन का ज़रूरी सामान, मैगी दूध वगैरह.
दूर्वा यह देख चौंककर बोली , ‘यह सब क्या है? इसकी कोई कोई जरूरत नहीं थी.’
‘जो जरूरत है, वो मैं पूरी कहाँ कर पाता हूँ मनु,’ सनी की आवाज़ एकदम भीग चुकी थीं. भीगी पलकें छुपाने के लिए उसने चेहरा घुमा लिया.
बाहर बारिश की धुन और तेज़ हो गयी थी, लॉन में लगी घास बारिश में डूब चुकी थी...

(फेमिना 2018 के नवम्बर अंक में प्रकाशित)




Thursday, December 13, 2018

अभिनय-अंतिम किश्त


दिन भर उज्ज्वला अतिरिक्त उत्साह से भरी रही. जैसे उसे उसके पंख मिल गए हों. कितना सुखी और हल्का महसूस कर रही थी. जब संभावनाओं पर हल्की सी पकड़ कासी, तब उज्ज्वला को महसूस हुआ कि क्या था जिसकी खोज निरंतर जारी थी भीतर. सब कुछ होते हुए भी क्यों अनजानी सी असंतुष्टि घेरे रहती थी उसे. थोड़ी सी नर्वस भी हो रही थी. जाने कर भी पाएगी या नहीं.
'सुषमा तुझे यकीन है मैं कर पाऊंगी.'
सुषमा मुस्कुरा दी. 'हाँ, जरूर कर पाओगी. लेकिन पहले प्रणय से तो पूछ लो. क्या पता उसे पसंद न हो तुम्हारा अभिनय करना.'
'तुम प्रणय की फ़िक्र न करो. प्रणय मुझे खूब समझते हैं. आज तक कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया. जो चाहती हूँ करती हूँ.' उज्ज्वला की आवाज में आत्मविश्वास था.
'ठीक है, तो मेरे साथ चलने की तैयारी कर लो.'
'पता है सुषमा, मुझे बहुत रोमांच हो रहा है यह सब सोचकर. लग रहा है मैं खुल रही हूँ. अब तक कैद थी जैसे कहीं.'
'मैं समझ सकती हूँ उज्ज्वला. खुद पर भरोसा करना और अपनी तरह से जीना गर आ जाए तो बहुत ख़ुशी होती है.'
लेकिन न जाने क्यों सुषमा को उज्ज्वला की ख़ुशी से डर लग रहा था. सुषमा के अनुभव का कैनवास ज्यादा बड़ा है. और उसके वही अनुभव उसे डरा रहे थे. अब तक की जिन सहमतियों की बातें सोचकर उज्ज्वला इतनी खुश है उनमें से एक भी उसके लिए कहाँ थी. घर के पर्दे अपनी पसंद के लगाना और अपनी पसंद के रास्तों पर जीवन को ले जाना बिलकुल अलग बाते हैं. फिर भी सुषमा अपने आप को सांत्वना दे रही थी. हो सकता है प्रणय की सोच थोड़ी फर्क हो. हो सकता है सचमुच वह उज्ज्वला के अरमानों की कद्र करता हो. वह प्रणय को जानती ही कितना है. यही सब सोचते हुए ख़ामोशी के साथ उज्ज्वला की खुशियों में शामिल रही सुषमा.

उज्ज्वला प्रणय से पुनः अभिनय शुरू करने के बारे में बात करना चाहती थी. उसे पूरा यकीन था  कि प्रणय बहुत खुश होगा यह सुनकर. वह प्रणय को अपनी यह इच्छा बताकर चौंका देना चाहती थी.

एक रोज प्रणय ने उसके  चेहरे पर छाए उत्साह और आत्मविश्वास को लेकर जब टोका तो उज्ज्वला को लगा यही मौका है प्रणय को चौंकाने का. मुस्कुराते हुए उज्ज्वला ने कहा, 'प्रणय तुम्हें, एक अच्छी खबर बताती हूँ. तुम तो जानते हो कॉलेज टाइम में मुझे अभिनय का कितना शौक था. सुषमा से बातें करते हुए मेरे भीतर दबा पड़ा अभिनय का बीज फिर से पल्लवित होना चाहता है. मैं दोबारा अभिनय शुरू करना चाहती हूँ. सुषमा मेरी मदद करेगी. वैसे भी दिन भर घर में खाली रहती हूँ. मैं बहुत एक्साइटेड हूँ प्रणय, लेकिन डर भी लग रहा है. जाने कैसे होगा यह सब ? उत्साह उज्ज्वला की आवाज से छलका जा रहा था, प्रणय के किसी भी जवाब या प्रतिक्रिया का इंतजार किये बगैर वह बोलती रही.

'जरा सोचो प्रणय, लोग मुझे मेरे नाम से पहचानेंगे, मेरा काम, मेरी क्षमता और भी निखरेगी. सब कुछ कितना अच्छा होगा. उन दिनों तो लगता था कि अभिनय तो जीवन है. इसके बगैर जी ही नहीं पाऊंगी. अब इतने वर्षों बाद फिर से मंच पर जाने की सोचकर ही अच्छा लग रहा है. सुषमा कह रही थी कि वो मुझे किसी सीरियल में भी रोल दिलवाएगी. पता नहीं कर भी पाऊंगी या नहीं.'

उज्ज्वला बोले जा रही थी. आखिर प्रणय ने ही उसके अतिरेक को लगाम लगाते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, 'तो अब आप सुपर स्टार बनना चाहती हैं. घर घर स्क्रीन पर आपका चेहरा चमकेगा. लोग आपकी तारीफ करेंगे. भई, हम आपकी तारीफ करें, आपको पसंद करें इससे भला संतुष्टि कैसे हो सकती है?'
'क्या बात कर रहे हो प्रणय. मैं सीरियस हूँ और तुम्हें मजाक सूझ रहा है.' उज्ज्वला के स्वर में थोड़ी सी नाराजगी आ मिली थी.
'उज्ज्वला, अच्छा है मैं तुम्हारी बात को मजाक में ले रहा हूँ वरना तो इस बात पर या तो क्रोध आ सकता है या रोना.'
'क्यों भला?'उज्ज्वला कुछ अप्रत्याशित सुनकर चौंक सी गयी थी.
उज्ज्वला देखो, हमारा छोटा सा परिवार है, बच्चे हैं. हम खुश हैं. तुम्हें क्या जरूरी है, यहाँ-वहां धक्के खाने की, काम करने की.'
'क्या तुम संतुष्ट नहीं हो अपने परिवार से, मुझसे?' प्रणय ने उज्ज्वला को भावुकता में बाँधना चाहा.
'बात संतुष्ट होने की नहीं है प्रणय. बात यह है कि मुझे लगता है कि मुझे अभिनय करना चाहिए. मेरा 'मन' होता है  वैसे भी दिन भर खाली रहती हूँ. बच्चे बड़े हो गए हैं, मेरे पास वक़्त है, मैं इस वक़्त को जीना चाहती हूँ. तुम्हारी बात से सहमत हूँ मैं. परिवार से, तुमसे संतुष्ट भी, लेकिन खुद से नहीं शायद. लगता है मेरे भीतर कुछ है जो बाहर आना चाहता है. मुझे समझने की कोशिश करो प्रणय, प्लीज़.'
उज्ज्वला का आग्रह लगतार मनुहार बनता जा रहा था. लेकिन प्रणय का संयम छूट रहा था.
'इस उम्र में तुम्हें यह नाटक नौटंकी का कौन सा भूत चढ़ा है. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है.'
'मैं मानती हूँ प्रणय कि मेरी उम्र काफी हो गयी है लेकिन एक कोशिश करने में क्या बुराई है. वैसे भी अभिनय का उम्र से ज्यादा सरोकार नहीं होता है फिर मैं तो पहले भी खूब एक्टिंग करती रही हूँ.'
'मैं तुम्हे समझा कर थक गया हूँ. तुम अपने सर स यह अभिनय का भूत उतार दो. मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं. आज के बाद इस विषय पर कोई बात नहीं होगी. समझी. सो जाओ अब.'

प्रणय की आवाज में खासी तल्खी घुल गयी थी. वह करवट बदलकर सोने का उपक्रम करने लगा. प्रणय निश्चिन्त सो रहा था. अपनी सारी हसरतों, उत्साह और आत्मविश्वास की किरचें बीनती उज्ज्वला सिसकियों के बीच सोच रही थी कि उसे लगता था कि वो अभिनय करती थी कभी लेकिन अभिनय तो कबसे चल रहा था उसके आस पास.

समाप्त.

Wednesday, December 12, 2018

अभिनय-3


रात के गहराते अँधेरे में बीता वक़्त फिर से चहलकदमी करने लगा लगा. सुषमा के आने से उससे बातें करने से उज्ज्वला बार-बार अतीत में पहुँच जाना चाहती है. आज विकान्त दा का जिक्र उज्ज्वला को छू गया. कितना भरोसा था उन्हें उज्ज्वला पर. उन्हें उम्मीद थी कि उज्ज्वला जरूर नाम रोशन करेगी। 'मैं कुछ नहीं कर सकी विकान्त दा!' धीरे से बुदबुदायी उज्जवला, साथ ही हल्की सी सीत्कारी निकल गयी. प्रणय चौंका।
'उज्जवला ओ उज्ज्वला! तुम ठीक तो हो न ?'
'हाँ, ठीक हूँ,'
'क्या हुआ, क्या सोच रही हो?'
'कुछ नहीं'
बड़ी गुमसुम हो? मैंने तो सोचा था सहेली से मिलकर बड़ी खुश होगी.'
'वो तो मैं हूँ ही'
'और क्या बातें हुईं सुषमा से? प्रणय की आवाज में जिज्ञासाएं छलकने लगी थीं.
'मैंने तो आपसे कभी नहीं पूछा कि आपकी आपके दोस्तों से क्या बातें हुईं?'
'ओफ्फो, चंद घंटों में इतना असर!' प्रणय ने व्यंग्य किया.
'इतना असर  का क्या मतलब है?'
उज्ज्वला आवाज़ की तल्खी को छुपा न सकी.
'अरे तो नाराज क्यों हो रही हो? मत बताओ, मैं तो यूँ ही जानना चाह रहा था बड़े कष्ट सहे उसने.' प्रणय अपनी तमाम उत्सुकता बगैर उज्ज्वला का रिस्पांस पाए ही निकाले जा रहा था. उज्जवला चुप ही रही. सुषमा को तो उसने आदर्श पत्नी होने की कम्प्रोमाइज करने की नसीहतें दे डालीं, लेकिन उसके खुद के भीतर कुछ अन्तर्द्वन्द चलने लगे. सारी गलती सुषमा की ही तो नहीं हो सकती आखिर विपिन को  भी तो उसे समझना चाहिये. अगर वह अभिनय नहीं कर सकती थी तो कम से कम उसे 'प्ले' देखने जाने की छूट तो मिलनी चाहिये. अगर वह बिजनेस पार्टियों में जा सकती है तो विपिन उसके साथ क्यों नहीं प्ले और एक्जीबिशन देखने जा सकता. क्या परिवार की शान्ति औरतों की इच्छाओं की क़ुरबानी की नींव पर ही टिकी है. कितनी खोखली है यह शांति. अचानक उज्ज्वला को लगा यह सब वह क्या सोचने लगी. जिन्दगी भर परिवार, पति बच्चों के सुख में खुद को संतुष्ट मानती रही. तो क्या सचमुच वह संतुष्ट नहीं थी. यह सब उसके भीतर कब और कैसे जमा होता रहा, नहीं जान पायी उज्ज्वला. लेकिन आज सुषमा से मिलकर उसे लगा कि कुछ छूट गया है उससे. कहीं कोई कसक है. यही सब सोचते-सोचते उज्ज्वला की आँख लग गयी.
अगली सुबह रात के विचार मंथन की हल्की सी लकीर उज्ज्वला के चेहरे पर थी. प्रणय के ऑफिस जाते ही उज्ज्वला के सोचने की प्रक्रिया और तेज़ हो गयी. सुषमा ड्राइंगरूम के केबल पर कोई फिल्म डेक रही थी.
'कॉफ़ी पियोगी. उज्ज्वला?' सुषमा ने पूछा.
'हाँ, पी लूंगी.'
कॉफ़ी के साथ ढेर सारी फुरसत लेकर उज्ज्वला सुषमा के पास आ बैठी.
'कौन सी फिल्म आ रही है?' उज्ज्वला ने कॉफ़ी का प्याला बढाते हुए पूछा.
'पता नहीं, बस ऐसे ही खोले बैठी हूँ. कितना अच्छा लग रहा है इस फुरसत को जीना वरना सुबह से देर रात तक जुटे रहो. कभी-कभी खाना तक खाने की फुरसत नहीं मिलती.'
'खाना खुद बनाती हो?'
'नहीं, एक आया रखी है. अच्छा खाना बनाती है.'
'थकती नहीं कभी?'
'थकती हूँ, लेकिन ऊबती नहीं हूँ. सच कहूँ जब काम नहीं होता तब थकने लगती हूँ.'
उज्ज्वला के भीतर लगातार कुछ करवटें ले रहा था. वह बड़े मन से सुषमा को सुन रही थी.
'मैं भी चाहती थी कुछ काम करूँ. पर...' आवाज में बुझे हुए सपने के चटखने का कंपन था.
'तू तो इतना जरूरी काम कर रही है/' सुषमा उज्ज्वला की मनोदशा को समझ रही थी और उसे संभालना चाह रही थी.
'यह काम जो इतने सालों से इतनी कुशलता से तू कर रही है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है.'
उज्ज्वला चुप रही. स्क्रीन पर चल रही फिल्म अब बैकग्राउंड में आ गयी थी.
'सुषमा,,,!' उज्ज्वला कुछ कहते-कहते रुक गयी.
'हाँ, बोलो क्या बात है?'
'कुछ नहीं, मैं सोच रही थी कि कोई काम खूब करने के बाद कई साल तक न करे तो क्या करना भूल जाते हैं.'
सुषमा ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'एक्टिंग दोबारा करना चाहती हो?'
'नहीं, एक्टिंग भला मैं...इस उम्र में, मैं तो ऐसे ही....' उज्ज्वला जैसे रंगे हाथों पकड़ी गयी हो.
'मैं तो खुद ही कहना चाहती थी तुझसे, लेकिन सोचा पता नहीं तू और प्रणय क्या सोचोगे. उज्ज्वला काम करने के लिए कभी देर नहीं होती. अगर तू करना चाहे तो मैं तेरी मदद कर सकती हूँ लेकिन पहले प्रणय से पूछ ले'
'उनसे क्या पूछना है? उज्ज्वला तपाक से बोली. और इसी के साथ जो अब तक खुद को छुपाने की कोशिश वो कर रही थी वह धराशाई हो गयी.

(जारी...)

Saturday, December 8, 2018

अभिनय-2

'मेरे मुश्किल वक़्त में जानती हो किसने मेरा साथ दिया?'
'किसने' उज्ज्वला ने पूछा।
'विकान्त दा ने.'
'वो कहाँ मिले?' उज्ज्वला आश्चर्य से रोमांचित हो उठी थी.
'कहीं मिले नहीं लेकिन उनसे जो सीखा। वही मेरा करियर बना. विकान्त दा की बातें याद करती थी तो बड़ी ऊर्जा मिलती थी. तुम यकीन नहीं मानोगी उज्ज, रोजमर्रा की बातचीत के दौरान कही गयी उनकी उन बातों से मैं हमेशा प्रेरित होती रही जिन पर हम उन दिनों बहुत ध्यान नहीं देते थे.'

उज्ज्वला बरसों पुराने वक़्त के उन टुकड़ों को फिर से जीने लगी थी. उसकी आँखों में वही पुरानी तस्वीरें उभरने लगी थी. उसकी आँखें में वही पुरानी तस्वीरें उभरने लगी थी. वही कालेज का जमाना, वही दोस्त, वही फटकार लगाते विक्रांत दा.
'विकांत दा हमेशा कहते थे न कि खुद को जिन्दा रखते हुए जीना ही असल जीना है. लेकिन उज्ज्वला तब हमने कभी सोचा था कि विकान्त दा कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं. जब जिंदगी से सामना हुआ तब लगा कि सचमुच बहुत मुश्किल है अपनी तमाम ऊर्जा और महत्वाकांक्षाओं को बरकरार रखते हुए, खुद को जिन्दा रखते हुए जीना. खासकर औरतों के लिए तो और भी मुश्किल है. सिर्फ कुछ समझौतों को साँसों के बल पर धकेलने जाने की नियति अगर स्वीकार नहीं तो राह में अड़चनें ही अड़चनें हैं.'

'लेकिन सुषमा, एक-दूसरे को समझना, एक दूसरे की पसंद-नापसंद का सम्मान करना अगर समझौता है तो मैं इसे गलत नहीं मानती. जीवन की मिठास बनाये रखने के लिए व्यक्तित्व की इतनी लचक तो लाज़िमी है.'

'तुम ठीक कह रही हो उज्ज्वला लेकिन हर बार समीकरण मनचाहे नहीं होते. अपने जीवन की मिठास निचोड़-निचोड़ कर जब तक भेंट करते रहो, तुम आदर्श स्त्री हो. लेकिन अगर एक बार अपने जीवन में भी थोड़ी सी मिठास, थोड़ी सी खुली हवा, मुठ्ठी भर आकाश की तमन्ना ने कहीं जन्म ले लिया तो?

'तो क्या? उज्ज्वला का सुषमा से असहमति का स्वर सुषमा भी महसूस कर रही थी,
'कुछ नहीं' सुषमा टालते हुए रसोई की ओर बढ़ी.
'देख सुषमा, बुरा मत मानना लेकिन पति को कोई दूसरा समझना तो ठीक नहीं है न. जब तक पति-पत्नी एक-दूसरे में खुद को नहीं देखते, वह रिश्ता तो कमजोर होगा ही.'

सुषमा हौले से मुस्कुरा दी. सुषमा को उज्ज्वला की बातों से कोई हैरानी नहीं हो रही थी. घर गृहस्थी में रमी अपने ही घर को 'दुनिया' मानने वाली ऐसी कितनी ही औरतों से मिल चुकी है सुषमा। 'समर्पण का सुख' जीते जीते 'सुख' का दायरा सिमट चुका होता इनका।

'तुम इतनी चुप क्यों हो गयी सुषमा। मेरी बात का बुरा तो नहीं माना। उज्ज्वला ने आटा गूंथना शुरू कर दिया था.
सुषमा मुस्कुराई। 'पगली है क्या, तेरी बात का क्या बुरा मानना?'
'फिर तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही? सुषमा की ख़ामोशी उज्ज्वला को बेचैन किये थी. 'देख सुषमा, तेरा अनुभव मेरे अनुभव से अलग है तो जाहिर है कुछ मतभेद तो होगा ही.

''अरे भई क्या आज खाना-वाना नहीं मिलेगा.'' प्रणय का स्वर ड्राइंगरूम से चलकर किचन तक आ पहुंचा था. उज्ज्वला के हाथों की गति बढ़ गयी. सुषमा उसकी मदद करने लगी.
बड़ी ख़ामोशी से खाना पेट तक पहुँचता रहा. कभी-कभी वक़्त चीज़ों को कैसे उलझा देता है. अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे तीन लोग. तीनों ही एक-दूसरे में प्रवेश करने की कोशिश में. लेकिन इस कोशिश में प्रणय सिरे से नाकामयाब रहा.
सुषमा के पास उज्ज्वला के सारे सवालों के जवाब हैं लेकिन सुषमा ने ख़ामोशी अख्तियार करना उचित समझा. तर्क, सवाल और उलझनों के भंवर में उज्ज्वला सुषमा के सवालों का सामना नहीं कर पायेगी. उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होगा कि अपने भीतर अभिनय की आंदोलित होती तरंगों को क्यों रोका उसने? रात दिन कुछ नया करने की फ़िराक में रहने वाली उज्ज्वला कहाँ खो गयी आखिर? और कैसे भूल गयी वो कॉलेज की बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड. उन दिनों उज्ज्वला का सिक्का चलता था कॉलेज में. जिसे देखो उज्ज्वला के पीछे भागता फिरता था. टीचर्स तक फैन थे उसके और अब यह सब गुजरे वक़्त का एक पन्ना, शोकेस में सजी एक शील्ड और एल्बम में लगी एक फोटो से अधिक कुछ नहीं. सुषमा निश्चय कर चुकी है कि वह उज्ज्वला से ऐसी कोई बात नहीं कहेगी. वह उज्ज्वल को किसी पसोपेश में नहीं डालना चाहती.

(जारी )