रात के गहराते अँधेरे में बीता वक़्त फिर से चहलकदमी करने लगा लगा. सुषमा के आने से उससे बातें करने से उज्ज्वला बार-बार अतीत में पहुँच जाना चाहती है. आज विकान्त दा का जिक्र उज्ज्वला को छू गया. कितना भरोसा था उन्हें उज्ज्वला पर. उन्हें उम्मीद थी कि उज्ज्वला जरूर नाम रोशन करेगी। 'मैं कुछ नहीं कर सकी विकान्त दा!' धीरे से बुदबुदायी उज्जवला, साथ ही हल्की सी सीत्कारी निकल गयी. प्रणय चौंका।
'उज्जवला ओ उज्ज्वला! तुम ठीक तो हो न ?'
'हाँ, ठीक हूँ,'
'क्या हुआ, क्या सोच रही हो?'
'कुछ नहीं'
बड़ी गुमसुम हो? मैंने तो सोचा था सहेली से मिलकर बड़ी खुश होगी.'
'वो तो मैं हूँ ही'
'और क्या बातें हुईं सुषमा से? प्रणय की आवाज में जिज्ञासाएं छलकने लगी थीं.
'मैंने तो आपसे कभी नहीं पूछा कि आपकी आपके दोस्तों से क्या बातें हुईं?'
'ओफ्फो, चंद घंटों में इतना असर!' प्रणय ने व्यंग्य किया.
'इतना असर का क्या मतलब है?'
उज्ज्वला आवाज़ की तल्खी को छुपा न सकी.
'अरे तो नाराज क्यों हो रही हो? मत बताओ, मैं तो यूँ ही जानना चाह रहा था बड़े कष्ट सहे उसने.' प्रणय अपनी तमाम उत्सुकता बगैर उज्ज्वला का रिस्पांस पाए ही निकाले जा रहा था. उज्जवला चुप ही रही. सुषमा को तो उसने आदर्श पत्नी होने की कम्प्रोमाइज करने की नसीहतें दे डालीं, लेकिन उसके खुद के भीतर कुछ अन्तर्द्वन्द चलने लगे. सारी गलती सुषमा की ही तो नहीं हो सकती आखिर विपिन को भी तो उसे समझना चाहिये. अगर वह अभिनय नहीं कर सकती थी तो कम से कम उसे 'प्ले' देखने जाने की छूट तो मिलनी चाहिये. अगर वह बिजनेस पार्टियों में जा सकती है तो विपिन उसके साथ क्यों नहीं प्ले और एक्जीबिशन देखने जा सकता. क्या परिवार की शान्ति औरतों की इच्छाओं की क़ुरबानी की नींव पर ही टिकी है. कितनी खोखली है यह शांति. अचानक उज्ज्वला को लगा यह सब वह क्या सोचने लगी. जिन्दगी भर परिवार, पति बच्चों के सुख में खुद को संतुष्ट मानती रही. तो क्या सचमुच वह संतुष्ट नहीं थी. यह सब उसके भीतर कब और कैसे जमा होता रहा, नहीं जान पायी उज्ज्वला. लेकिन आज सुषमा से मिलकर उसे लगा कि कुछ छूट गया है उससे. कहीं कोई कसक है. यही सब सोचते-सोचते उज्ज्वला की आँख लग गयी.
अगली सुबह रात के विचार मंथन की हल्की सी लकीर उज्ज्वला के चेहरे पर थी. प्रणय के ऑफिस जाते ही उज्ज्वला के सोचने की प्रक्रिया और तेज़ हो गयी. सुषमा ड्राइंगरूम के केबल पर कोई फिल्म डेक रही थी.
'कॉफ़ी पियोगी. उज्ज्वला?' सुषमा ने पूछा.
'हाँ, पी लूंगी.'
कॉफ़ी के साथ ढेर सारी फुरसत लेकर उज्ज्वला सुषमा के पास आ बैठी.
'कौन सी फिल्म आ रही है?' उज्ज्वला ने कॉफ़ी का प्याला बढाते हुए पूछा.
'पता नहीं, बस ऐसे ही खोले बैठी हूँ. कितना अच्छा लग रहा है इस फुरसत को जीना वरना सुबह से देर रात तक जुटे रहो. कभी-कभी खाना तक खाने की फुरसत नहीं मिलती.'
'खाना खुद बनाती हो?'
'नहीं, एक आया रखी है. अच्छा खाना बनाती है.'
'थकती नहीं कभी?'
'थकती हूँ, लेकिन ऊबती नहीं हूँ. सच कहूँ जब काम नहीं होता तब थकने लगती हूँ.'
उज्ज्वला के भीतर लगातार कुछ करवटें ले रहा था. वह बड़े मन से सुषमा को सुन रही थी.
'मैं भी चाहती थी कुछ काम करूँ. पर...' आवाज में बुझे हुए सपने के चटखने का कंपन था.
'तू तो इतना जरूरी काम कर रही है/' सुषमा उज्ज्वला की मनोदशा को समझ रही थी और उसे संभालना चाह रही थी.
'यह काम जो इतने सालों से इतनी कुशलता से तू कर रही है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है.'
उज्ज्वला चुप रही. स्क्रीन पर चल रही फिल्म अब बैकग्राउंड में आ गयी थी.
'सुषमा,,,!' उज्ज्वला कुछ कहते-कहते रुक गयी.
'हाँ, बोलो क्या बात है?'
'कुछ नहीं, मैं सोच रही थी कि कोई काम खूब करने के बाद कई साल तक न करे तो क्या करना भूल जाते हैं.'
सुषमा ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'एक्टिंग दोबारा करना चाहती हो?'
'नहीं, एक्टिंग भला मैं...इस उम्र में, मैं तो ऐसे ही....' उज्ज्वला जैसे रंगे हाथों पकड़ी गयी हो.
'मैं तो खुद ही कहना चाहती थी तुझसे, लेकिन सोचा पता नहीं तू और प्रणय क्या सोचोगे. उज्ज्वला काम करने के लिए कभी देर नहीं होती. अगर तू करना चाहे तो मैं तेरी मदद कर सकती हूँ लेकिन पहले प्रणय से पूछ ले'
'उनसे क्या पूछना है? उज्ज्वला तपाक से बोली. और इसी के साथ जो अब तक खुद को छुपाने की कोशिश वो कर रही थी वह धराशाई हो गयी.
(जारी...)
1 comment:
कहानी बाँधती है। अगली किश्त का इन्तजार रहेगा।
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