Thursday, November 22, 2018

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में


- फहमीदा रियाज 

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में
वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में

मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में

वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है
न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में

सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़
कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में

मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी
तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में

नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त
मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में.

(स्मृति शेष)

4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

नमन।

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्‍यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/11/2018 की बुलेटिन, " टूथपेस्ट, गैस सिलेंडर और हम भारतीय “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-11-2018) को "सन्त और बलवन्त" (चर्चा अंक-3165) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'