Sunday, November 9, 2014

गुमशुदा नवम्बर...


नवंबर महीने में इतना एटीट्यूड क्यों होता है...पता नहीं...लेकिन उसका एटीट्यूड अक्सर जायज ही लगता है. उसके कंधों पर से गुनगुनी धूप उतार लेने का जी चाहता है...उसके कदमों की आहटों से खुशबुओं के खिलने का सिलसिला दिल लुभाता है...उसके सीने से लगकर सारा रूदन बहा देने को जी चाहता है...

पहली मोहब्बत के पहले मोड़ पर रखे पहले इंतजार सा नवंबर...आंखों में आंखें डालकर कहता है, मैं हूं ना...डरो मत...चल पड़ो...ऐसा कहते वक्त उसने ऐनक नहीं पहनी थी, कभी-कभी बेअदबी भी कितनी दिलफरेब होती है...

जाने कहां हरसिंगार खिले होंगे, कहां नहीं...लेकिन नवंबर की शाख का हर लम्हा हरसिंगार है...कहीं तो इंतजार का हरसिंगार...कहीं मिलन की मन मालती...कहीं ढेर सारी कामनाओं को सहेजती संभालती मनोकामनी...उफफफ किस कदर खुशबुओं से लबरेज है...

देव दीवाली की दीप कतारों को वो सर्द चादर में सहेजते हुए खुद से किया हुआ वादा दोहराता है कि 'उम्मीद भरी आंखों के दिये बुझने नहीं दूंगा...'

कहीं दूर देश से आवाज आती है बेडि़यां टूटने की...सलाखें चटखने की...

सर्द मौसम में अपने भीतर के ताप को सहेजे रहने की ताकीद करता नवंबर जिंदगी के लिए जूझने वालों के सजदे में झुककर और हसीन हो उठा है...

दीवार पर टंगे कैलेंडर से एक पन्ना गुम मिले तो हैरत मत करना...