कुछ गाने अपने अस्तित्व को इतना बड़ा बना लेते हैं कि वो सिर्फ किसी का लिखा गीत किसी आवाज या किसी का कंपोजिशन भर नहीं रह जाते. वो उन लम्हों की दास्तान बन जाते हैं जिन लम्हों को जीते हुए सुना था गीतों का. ऐसा ही एक गीत याद आता है बूढ़े पहाड़ों पर...'इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला....' बेहद कम लोकप्रिय एलबम का यह गीत हमारे घर में किसी आरती या भजन सा बस बजता रहता था. गुलजार साब की आवाज, सुरेश वाडेकर की गायकी और विशाल भारद्वाज का शायद पहला कंपोजिशन. हमारी मासी रहती थीं उन दिनों हमारे साथ. उन्हें भी यह गाना खूब पसंद था. बाद में वो जब भी आतीं कहतीं, बिट्टा वो वालो गाना नाईं हैं....बूढ़े पहाड़ों वालो. हमैं बहुत नीको लगत है...मासी अब नहीं रहीं...उस कैसेट को रिलीज करने वाली पैन म्यूजिक कंपनी बंद हो गई. लेकिन वो गाना अब भी न जाने कितनी सारी यादों के साथ धड़कता रहता है दिल के बहुत पास...अब जबकि पहाड़ों पर आशियाना बना लिया है तो सोचती हूं सचमुच कुछ भी तो नहीं बदला....इन बूढ़े पहाड़ों पर.
ऐसे ही न जाने कितने किस्से याद आते हैं. अपनी दोस्त ज्योति के साथ जेठ की दोपहरों में लू फांकते हुए थकने के बाद किसी कोने में सिमटकर कैसेट पर सुनना सत्या का वो गाना 'तू मेरे साथ भी है...तू मेरे पास भी है....' ये गुलजार साब की दीवानगी का नया-नया दौर था. 'मैंने...तेरे लिए रस्ता बिछाया है...सूरज उगाया है...' गाने की वो लाइनें चलो हंसे...हंसते ही हंसते ही हंसते रहें...तो हम दोनों सचमुच खूब हंसते...हमने इस गाने को इतना सुना था कि कैसेट इसी गाने पर आकर अटक जाती थी. जिस समय लोग कल्लू मामा और सपने में मिलती है कुड़ी मेरी...सुन रहे थे हम गुलजार साब के बिछाये रास्ते ओढ़े बैठे थे...आज भी इस गाने में काॅलेज के दिन ज्योति के साथ की गई आवारागर्दी याद आती है.
अतीत की परछांइयों को टटोलो तो न जाने कितने नग्मे सांस लेते महसूस होते हैं. न जाने कितनी रातें गुजार दीं मेंहदी हसन साब को सुनते हुए 'जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मरके भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा....' लेकिन ये गाना मेरी स्मतियों में दर्ज है प्रकाश की आवाज में. बनारस की वो शाम, मणिकर्णिका घाट के सामने से गुजरते हुए जीवन और मत्यु के बीच के फासले को मिटते हुए देखना और ऐसे में प्रकाश की मीठी आवाज में छिड़ना जिंदगी का ये राग कि जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं...मैं तो मरके भी मेरी जान तुझे चाहूंगा. इस गज़ल में गंगा की लहरों की छुअन अब तक बाकी है...और बाकी है बहुत कुछ.
एक बार देर रात देहरादून की वादियों देर तक चलने वाली संगीत की महफिल मे स्वाति ने सुर साधा था...
' आज मेरे पिया घर आयेंगे..' .उस रोज तेज बारिशों वाली रात थी. घाटियों में बारिश की आवाज में स्वाति की आवाज की खुशबू घूल गई थी...अनहद नाद बजाओ री सब मिल....गाते-गाते सुबह हो गई थी....पूरी धरती धुली हुई जिस पर सूरज की मद्धिम किरनों ने फूलों के साथ मिलकर चैक पूरी थी. वो गाना उस दिन से कैलाश खेर का नहीं रहा मेरा और स्वाति का हो गया...देहरादून की उसी रात में कोई जादू रहा होगा कि तब जो मेहमान बनके आई थी शहर में अब इसी शहर में बस गई हूं....
याद करती हूं दिल्ली की वो रात जब निजाम की दरगाह में खुद से विदा मांगने गई थी. कोई इच्छा नहीं थी मन में कि जाने क्यों लग रहा था कि दिन जिंदगी के दिन बस पूरे हुए...हजारों बार सुना हुआ छाप तिलक जब वहां बैठे सूफी गायकों ने छेड़ा तो लगा उन्हें कुछ दे सकूं ऐसा तो कुछ भी नहीं है मेरे पास....' कागा सब तन खाइयो...चुन चुन खाइयो मांस दो नैना मत खाइयो जिन्हें पिया मिलन की आस...' हजारों बार सुना हुआ छाप तिलक उस रोज एकदम अलग था....न वडाली ब्रदर्स न साबरी बंधु न कोई और बस कि कुछ फकीरनुमा गाने वाले और फकीर ही सुनने वाले...
गानों से जुड़ी यादों के सिलसिले में बहादुर शाह जफर की उस गज़ल का जिक्र तो बेहद जरूरी है जिसे एक सत्रह बरस के लड़के की आवाज़ ने अपना बनाकर तोहफे में दिया था. गुलाम अली साहब भी उस रोज उस पर मेहरबान हुए होंगे कि अपनी आवाज का रंग उसे बख्शा था..;कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहां दिले-दागदार में...' दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई...फैला के पांव सोयेंगे कुंजे मज़ार में....उस बच्चे जिसका नाम आसिम है ने अपने बचपन में अपने अब्बा से इसे सुना और सीखा था. अभी उसकी तालीम की मासूमियत पर जमाने के किसी रंग की कोई पर्त नहीं चढ़ी थी. उसकी आवाज शाह के लिखे के संग डूब उतरा रही थी. गंगा के किनारे टहलते हुए कही गई विजय भाई की बात याद हो आई कि हम खुद भी चाहें तो हमेशा वैसा नहीं गा सकते जैसा कभी गा चुके होते हैं...ये बिल्कुल लिखने जैसा भी है कि हम चाहें तो भी अपने ही लिखे जैसा दोहरा नहीं सकते...यह बिल्कुल जीवन जैसा भी तो है ना? जिंदगी के लम्हों से कुछ नग्मे चुनते वक्त क्या-क्या न याद आया....
(अहा जिन्दगी के संगीत विशेषांक में प्रकाशित)
गानों से जुड़ी यादों के सिलसिले में बहादुर शाह जफर की उस गज़ल का जिक्र तो बेहद जरूरी है जिसे एक सत्रह बरस के लड़के की आवाज़ ने अपना बनाकर तोहफे में दिया था. गुलाम अली साहब भी उस रोज उस पर मेहरबान हुए होंगे कि अपनी आवाज का रंग उसे बख्शा था..;कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहां दिले-दागदार में...' दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई...फैला के पांव सोयेंगे कुंजे मज़ार में....उस बच्चे जिसका नाम आसिम है ने अपने बचपन में अपने अब्बा से इसे सुना और सीखा था. अभी उसकी तालीम की मासूमियत पर जमाने के किसी रंग की कोई पर्त नहीं चढ़ी थी. उसकी आवाज शाह के लिखे के संग डूब उतरा रही थी. गंगा के किनारे टहलते हुए कही गई विजय भाई की बात याद हो आई कि हम खुद भी चाहें तो हमेशा वैसा नहीं गा सकते जैसा कभी गा चुके होते हैं...ये बिल्कुल लिखने जैसा भी है कि हम चाहें तो भी अपने ही लिखे जैसा दोहरा नहीं सकते...यह बिल्कुल जीवन जैसा भी तो है ना? जिंदगी के लम्हों से कुछ नग्मे चुनते वक्त क्या-क्या न याद आया....
(अहा जिन्दगी के संगीत विशेषांक में प्रकाशित)
9 comments:
रास्ता बिछाने का हुनर दुर्लभ है।
हजारों बार सुना हुआ छाप तिलक जब वहां बैठे सूफी गायकों ने छेड़ा तो लगा उन्हें कुछ दे सकूं ऐसा तो कुछ भी नहीं है मेरे पास....' कागा सब तन खाइयो...चुन चुन खाइयो मांस दो नैना मत खाइयो जिन्हें पिया मिलन की आस...' हजारों बार सुना हुआ छाप तिलक उस रोज एकदम अलग था....न वडाली ब्रदर्स न साबरी बंधु न कोई और बस कि कुछ फकीरनुमा गाने वाले और फकीर ही सुनने वाले......
..........आपने सिरसिरा दिया तन-मन को..अहा।
सही है जिन पलों को हम एक बार जी लेते हैं वैसे ही लम्हे दोबारा नहीं आते... बहुत सुन्दर
..' गाने की वो लाइनें चलो हंसे...हंसते ही हंसते ही हंसते रहें...तो हम दोनों सचमुच खूब हंसते.....क्या क्या न याद आया.....
कुछ चीजें दोहरायी ही नही जा सकतीं क्योंकि मास्टरपीस रोज नही बना करते।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 15/1/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है
संगीत तो शब्द शब्द से झर रहे हैं.
बहुत बढ़िया!
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