Saturday, January 19, 2013

जिंदगी सांस लेने का नाम है किसने कहा...


उसके आंसुओं में जो नमक था वो प्यार था. उसकी मुस्कुराहट में जो रुदन था वो कविता थी। उसकी कविता में जो धड़कता था वो दिल था, उसके दिल में जो छुप के रहती थी, वो जि़ंदगी थी...
वो कौन है...?
ये किसकी बात है?
वो हम हैं. ये हम सबकी बात है. 
जिंदगी सांस लेने का नाम है किसने कहा? जि़ंदगी तो हवा में उछाल दिये जाने वाले उन लम्हों का नाम है, जो उम्र भर हमें जिंदा होने के अहसास से भरते हैं
और कविता...?
वो क्या है...?
हमें हमारे होने के अहसास से जो चीज भरती है वो कविता ही तो है. एक ओर ये हमें हमारे और करीब ले आती है तो दूसरी ओर हमसे हमें ही मुक्त भी कराती है. जि़ंदगी और कविता साथ-साथ चलती हैं. एक के बगैर दूसरे का कोई अस्तित्व ही नहीं. हालांकि अक्सर हमें यह अहसास ही नहीं होता कि कविता हमारे इतने करीब रहती है. इतने करीब कि इसके होने से जिंदगी के मायने ही बदल जाते हैं. इतने करीब कि कभी आंसुओं को थाम लेती है गिरने से पहले और अनजाने पकड़ा जाती है मुस्कुराने की वजह. 
तू इतने पास है कि तुझे कैसे देखूं
जो जरा दूर हो तो तेरा चेहरा देखूं...
ऐसे ही रहती है कविता हमारे आसपास. उसके होने पर उसका होना महसूस भी नहीं होता लेकिन उसका न होना शिद्दत से महसूस होता है. लगता है जिंदगी मानो रूठ गई हो. 
कविता....और जिंदगी... एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. बच्चे के इस धरती पर जन्मे पहले रुदन का जो आलाप है, जो संगीत है, जो लय है वही तो है कविता...उसी लय का हाथ थाम हम जीवन के सफर पर निकलते हैं. दुनिया, समाज और ढेर सारी उठा-पटक के बीच कविता हमारे भीतर की नमी को बचाकर रखती है.
अक्सर लोग कहते हैं कविता हमें समझ में नहीं आती या हमारा कविता से कोई वास्ता नहीं है लेकिन ठीक उसी पल उनके होठों पर कोई धुन आकर खेलने लगती है. चुपके से कोई याद होठों पर मुस्कुराहट बनकर सज जाती है, उन्हें ये पता ही नहीं चलता कि यह सब कविता की ही कारस्तानी है. जिंदगी को महसूस करने की शिद्दत का नाम कविता है. 
कविता क्या वो होती है जो कागज पर कलम से लिखी जाती है. कुछ सुंदर शब्दों  का चयन, कोई आकार, कोई विचार और कविता...
नहीं...कविता हमेषा शब्दों पर बैठकर जि़ंदगी तक नहीं आती. वो चोर दरवाजों से दाखिल होती है हमारी जि़ंदगी में. 
पलटती हूं कागज तो अक्षर उड़ जाते हैं कई बार. दूर किसी पेड़ की फुनगी पर बैठकर मुंह चिढ़ाते हैं. हाथ बढ़ाओ तो हाथ नहीं आते...कभी हाथ आते भी हैं तो अर्थ वहीं टहनी पर छोड़ आते हैं. हां, कुछ षब्द जरूर कागज पर जगह घेर लेते हैं. कविता के डायनमिक्स, उसके मीटर, क़ाफिया, रदीफ सबमें परफेक्ट होने के बाद भी वो खेल करती है कई बार. अपने होने में अपना न होना छुपाकर छलती है कवि को और बेचैन करती है पाठक को कि पढ़ने के बाद भी पाठक खाली हाथ और लिखने के बाद भी लेखक बेचैन ही. किसी षरारती बच्चे सी लगती है कविता कभी-कभी कि तोड़ती है सारे नियम, भंग करती है सभ्यता के सारे कायदे, रौंदती है कोमलता के तारों को और घेरती है इतिहास में मजबूत जगह. 
किसी पुर्ची में से कहीं झांकती है कभी तो कभी ठेंगा दिखाती है किसी कविता संग्रह के भीतर से भी. पुरस्कारों, समीक्षाओं, तालियों के षोर से बहुत दूर बैठकर वो देखती है अपने ही नाम पर होने वाले तमाम करतबों को और थककर चल देती है गांव की किसी ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर. 
कविता क्या है...कहां है...उसके हमारे जीवन में होने के अर्थ क्या हैं...कब वो होती है हमारे जीवन में, कब नहीं. ये बड़े सरल से लगने वाले कठिन सवाल हैं. दरअसल, कविता का होना, न होना कविता को ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सामर्थ्य पर निर्भर करता है. वो दृश्य जो किसी के लिए दृश्य है, किसी के लिए एक घटना, किसी के लिए खबर और किसी के लिए कविता. कविता दरअसल संवेदना है. इसीलिए मैं कविता को किसी फ्रेम में बंधे हुए रूप में नहीं देख पाती. 
कविता हमारी संवेदनाओं की पनाहगाह है. हमारे आंसुओं का ठौर, बेचैनी को थामने वाली कोई दोस्त और आक्रोश को सहेजने वाली साथी. कवि होना कोई लग्जरी नहीं है. यह एक पेनफुल जर्नी है, एक अवसादमय यात्रा. साथ ही एक खुशनुमा अहसास भी. हमारे भीतर हमें बचाये रहने वाली.
कवि के जीवन में भी जीवन उसी तरह दस्तक देता है जैसे औरों के जीवन में लेकिन कवि जीवन के हर रंग, हर रूप, हर पहलू को द्विगुणित करके देखता है. ख़ुशी के एक सामान्य से पल में वह आसमान की उंचाइयां छू लेता है और दुख की मामूली सी खरोंच उसे मत्यु के करीब ले जा सकती है. शायद इसीलिए उन पर पागल, स्रीजोफेनिक होने जैसे लेबल लगते रहते हैं. लेकिन इस दुनिया को दुनिया बनाने में उन पागलों का बड़ा योगदान है. उन्होंने  समाज को जिस गहरी संवेदना से जज्ब किया, उसी जज्बे से गलत का प्रतिकार किया और उसी तल्खी से अपनी वेदना को लिखा भी.
समय के पन्नों पर मानवीय सभ्यता की हर करवट को उकेरती है कविता. इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान, राजनीति सबको समेटते हुए, देष की, भाशाओं की, संस्कति की तमाम सरहदों को पार करते हुए वो अपने होने को बचाकर रखती है. साथ ही बचाकर रखती है हममें हमारे बचे रहने की उम्मीद भी. हमारे रूखे-सूखे जीवन में रूमानियत की बारिष लेकर आती है कविता और जिंदगी को बारहमासा मुस्कुराहट तोहफे में देती है. कभी-कभी आंसू भी. 
इसके होने से हमारी सुबहें, हमारी षामें हर लम्हा बदलने लगता है. आज हमारे जीवन में मुस्कुराने की जितनी भी वजहें हैं उसकी जड़ में कहीं न कहीं कविता ही है और जिंदगी की तमाम मुष्किलों से जूझने का जो माद्दा है वो भी कविता ही है. मानवीय सभ्यता का इतिहास तो पुस्तकालयों में सुरक्षित रखी किताबों में मिल जायेगा लेकिन अगर इतिहास को धड़कते हुए महसूस करना है तो सूर तुलसी, दादू, रहीम, बुल्ले षाह, नानक, मीरा, कबीर, खुसरो, गालिब, फैज़, फिराक़ की गलियों से गुजरना होगा. समय और समाज की हर धड़कन इन गलियों में पैबस्त है अपनी खुशबू के साथ, पूरी तासीर के साथ. 
कई बार लगता है कि अगर कविता न होती तो कैसा होता यह जीवन. कितना खुश्क, नीरस और ऊब से भरा हुआ. मानवीय सभ्यता की संवेदनाओं का हाथ कविता ने ही तो थाम रखा है. 
कई बार यह सवाल किया जाता है कि आजकल कैसी कविताएं लिखी जाने लगी हैं, गद्य सी ही लगती हैं. फिर कविता और गद्य में अंतर ही क्या? क्यों कोई गद्य का टुकड़ा कविता कहा जाता है और कोई गद्य. समय ने मुझे जिन चीजों के जवाब दिए हैं उनमें से एक यह भी है कि कविता असल में अपने फार्म में नहीं रहती, वो अपने भाव में रहती है. गद्य के जिस टुकड़े को कविता कहा जाता है, उसमें कविता के भाव होते हैं, रिद्म, लय. इस रिद्म और लय से मेरा आशय तुकबंदी या काफिया रदीफ से नहीं है. मेरा आशय है पोयटिक एसेंस से. किसी का पूरा व्यक्तित्व ही कविता सा जान पड़ता है और किसी की कविता भी कविता सी नहीं लगती. 
हालांकि मैं खुद अभी कविता को समझने की प्रक्रिया में हूं. खुद को लगातार अकवि कहती रही, फिर भी कवि कहकर पुकारी जाने लगी. अपनी इसी उलझन को मैंने एक बार नामवर जी से साझा किया था कि जब कोई कवि कहता है तो गहरे संकोच में गड़ जाती हूं. इतनी बड़ी चीज है ये कविता कि मुझसे सधती ही नहीं है. उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा था, जिंदगी सधती है क्या? 
मुझे जवाब मिल चुका था. 
तो आपने कविता लिखना क्यों छोड़ा मैंने उन्हें छेड़ते हुए पूछा,
वो मुस्कुराए, मुझसे भी सधती नहीं थी कम्बख्त. 
मैं उस न सधने को भी सम्मान से देखती हूं और जो कुछ भी लिखती हूं अपने प्रिय कवियों को समर्पित करती चलती हूं. अपना अनाड़ीपन, अनगढ़पन, कच्चे अनुभव, तरल संवेदनाएं, जिंदगी की उहापोह, सब कुछ. 
जिस पल हम अपने लिखे से अपने लिए उम्मीद करने लगते हैं उसी पल हम नकली हो जाते हैं. हमारी कविता हमारी वेदना की, हमारे अंतर्द्वन्द्व की पनाहगाह है. इसलिए मैं हमेशा श्रद्धा से सर झुका देती हूं जीवन में मिली उदासियों के सम्मुख. 
कविता सिखाती है जि़ंदगी के हर रंग में खिलना, महकना. प्यार करना पूरी कायनात से और अपनी जिंदगी को नये तर्जुमान देना. जिंदगी की इसी रूमानियत को समेटने के इरादे से ही आज हम सब एक साथ मिल बैठे हैं. अपने जीवन में मौजूद कविता का सम्मान करने, उसके प्रति अपना आभार प्रकट करने और उसका हमारी जिंदगी में बने रहने का इसरार करने को. साथ ही दुआ करने को कि उसके होने को महसूस कर पाने की क्षमता भी हममें लगातार समृद्ध होती रहे.

(अज़ीम प्रेमजी फौन्डेशन द्वारा आयोजित 'जीवन में कविता के मायने' विषय पर आयोजित गोष्ठी में पढ़ा गया परचा)
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Photo courtesy - Google, Artist Angela Skoskie

4 comments:

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

कवि होना कोई लग्जरी नहीं है. यह एक पेनफुल जर्नी है, एक अवसादमय यात्रा. साथ ही एक खुशनुमा अहसास भी. हमारे भीतर हमें बचाये रहने वाली..............कविता के आयाम को सार्थकता प्रदान करने की अहम पहल।

कविता रावत said...

जीवन में कविता के मायने' विषय पर सार्थक, विचारशील प्रस्तुति प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।

प्रवीण पाण्डेय said...

पहले कविता कह लेती थी,
अब जाने क्या सहती है,
सब सुनती है, सब गुनती है,
खोयी खोयी रहती है।

***Punam*** said...

"कविता हमेशा शब्दों पर बैठकर जि़ंदगी तक नहीं आती. वो चोर दरवाजों से दाखिल होती है हमारी जि़ंदगी में.
पलटती हूं कागज तो अक्षर उड़ जाते हैं कई बार. दूर किसी पेड़ की फुनगी पर बैठकर मुंह चिढ़ाते हैं. हाथ बढ़ाओ तो हाथ नहीं आते...कभी हाथ आते भी हैं तो अर्थ वहीं टहनी पर छोड़ आते हैं. हां, कुछ शब्द जरूर कागज पर जगह घेर लेते हैं..!"