Wednesday, December 25, 2013

चलो, अब ये सलीब उतार भी दें...

हमारे जिस्म और ज़ेहन में भी
ठोंकी गयीं
सेवा और समर्पण कीलें

मुंह पर बांध दी गयी
चुप की मजबूत पट्टी 

आँखों में भर दिए गए
तीज त्योहारों वाले
चमकीले रंग

लटका दिया गया
रिवाजों और परम्पराओं की
सलीब पर

चलो, अब ये सलीब उतार भी दें...


Saturday, November 16, 2013

जीवन आयेगा क्या ....?


हां, मैंने दुःख को ठिकाने लगा दिया है।
एकदम ठीक से।

अब वो जीवन में कभी लौटकर नहीं आयेगा....
कभी नहीं...

पर जीवन आयेगा क्या ....?

Friday, November 8, 2013

दिल के धड़कने की वजह कोई नहीं...



वैसे ही उगता है दिन
हथेलियों के ठीक बीचोबीच
और उसी तरह ढलक जाता है
उंगलियों की पोरों से

ज्वर के ताप को कम करने को
शरद की चांदनी रात भर
माथे पर रखती है पट्टियां

लाल चोच वाली चिड़िया
हर डाल पर ढूंढती फिरती है
वजह दिल के धड़कने की...

कि उससे कहा था किसी ने
दिल के धड़कने की वजह कोई नहीं...

Tuesday, October 29, 2013

असहमतियों का सौंदर्य निखारते थे राजेन्द्र यादव


असहमतियों को इतना व्यापक स्पेस उन्हीं के पास था. उस स्पेस में वो असहमतियों के सौंदर्य को निखारते थे. मेरी पहली कहानी हंस में ही छपी थी. उस छोटी सी उम्र में मुझे पता भी नहीं था कि कहानी क्या होती है. अख़बारों के लिए लिखते-लिखते जाने कैसे एक कहानी लिख गयी. अख़बार में छप गयी तो हौसला देने वालों ने चढ़ा दिया। अगली कहानी 'हंस' में भेज दी. राजेंद्र जी से मिली नहीं थी तब तक. बस उनके सम्पादकीय पढ़ती थी. मेरे कॉलेज के दिनों की बात है. कहानी भेजने के पांच दिन बाद ही उनका पीला पोस्टकार्ड आया. कहानी में कुछ सुधार बताये थे. फिर वो कहानी स्त्री विशेषांक में छप गयी. 

(नए लेखकों के साथ इतनी मेहनत करने वाला दूसरा संपादक भी मिला तो राजेन्द्र नाम का ही. राजेन्द्र राव.)

उसके बाद उनसे मुलाकात हुई. कथाक्रम में. लखनऊ में. अपनी कहानी 'हासिल' को लेकर वो उन दिनों विवादों में थे. वो मेरी उनसे पहली मुलाकात थी और खूब नाराजगी भरी. अगले दिन जो छ्पा वो कड़वा ही था. लेकिन राजेन्द्र जी ने अगले दिन भी पूरी आत्मीयता से ही बात की. मेरी नाराजगी कायम रही. उसके बाद मैंने उनके कई इंटरव्यू किये, पॉलिटिकल, सोशल, इकोनोमिकल लेकिन साहित्य पर कम ही बात की. मुझे याद है मैंने उनका एक लम्बा पॉलिटिकल इंटरव्यू धनबाद में लिया था, वीरेंद्र यादव जी के साथ. उनके पास समाज का एक मॉडल था. उनकी नजर से देखने पर चीज़ें काफी साफ़ नजर आती थी-मैंने उनसे कहा भी था कि मुझे आपकी कहानियों से ज्यादा अच्छा आपके सम्पादकीय पढ़ना लगता है.

मेरी उनसे आखिरी बात जागरण के लिए किये गए इंटरव्यू के दौरान ही हुई थी जिसमे उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के मेल को लेकर बात की थी और मार्खेज को इसका सबसे बड़ा उदाहरण बताया था.

हजार असहमतियां रही हों लोगों की लेकिन इस बात से कोई असहमति नहीं कि उनका जाना बहुत बड़ा नुक्सान है. सब लोग उनके आगामी सम्पादकीय का इंतज़ार कर रहे थे और वो चुपचाप चले गए.

Wednesday, October 23, 2013

प्रेम में 'मैं' नहीं होता....


मैंने कहा राग 
तुमने कहा रंग 

मैंने कहा धरती 
तुमने कहा आकाश 

मैंने कहा नदी 
तुमने कहा समन्दर 

मैंने कहा 'प्रेम' 
तुमने कहा 'मैं' 

इसके बाद 
हम दोनों खामोश हो गए

कि प्रेम में 'मैं' नहीं होता...

Friday, October 4, 2013

रोशनी बहुत चाहिए, सच्ची...


सुबह से तीन बार अखबारों को उलट-पुलटकर रख चुकी हूं। पढे़ हुए अखबारों में भी हमेशा कुछ न कुछ पढ़ने को छूट ही जाता है। हालांकि न पढ़ो तो भी कुछ नहीं छूटता ये अलग बात है। हर छूटी हुई चीज अपनी ओर शिद्दत से पुकारती है। शायद इसीलिए सुबह से तीन कप चाय से कलेजा जला चुकने के बाद भी घूमफिर कर अखबार उठा लेना किसी ढीठता सा ही लगता है।

कभी-कभी कैसे हो जाते हैं हम, जो एकदम नहीं करना चाहते उसमें ही खुद को झोंक देते हैं। जी-जान से। फिर उस न चाहने वाले काम में उलझे-उलझे भीतर ही भीतर कुछ रिसने लगता है। बाहर से काम के नतीजे तो अच्छे आ रहे होते हैं लेकिन अंदर से जो रिसाव है वो उस अच्छे को चिढ़कर देखता है। उस चिढ़कर देखने के बाद हम खुद को और ज्यादा झोंकने लगते हैं।

इस लड़ाई में हमें मजा आने लगता है। इस चिढ़ने में भी। सफलता और चिढ़ एक साथ बढ़ने लगती हैं। मुस्कुराहटों की तादाद एकदम से बढ़ जाती है कभी-कभी खिलखिलाहटों और कभी तो ठहाकों तक जा पहुंचती है। चिढ़ संकुचित होने लगती है। उसका आकार छोटा होता जाता है और गहनता बढ़ती जाती है। उसका कसाव मुस्कुराहटों के एकदम अंदर वाली पर्त में अपनी जगह बनाने लगता है। धीरे-धीरे उसका कसाव संपूर्ण जीवन में अपना कसाव बढ़ाने लगता है। यह तरह-तरह से दिखता है। कभी ज्यादा खुशियों, ज्यादा काम के बीच। कभी कुछ न करने या न कर पाने के आलसीपन या तकलीफ के बीच और कभी-कभार लंबे मौन के बीच खिंची किसी स्याह लकीर की तरह।

लकीरें... आजकल कागज पर भी खूब दौड़ती फिरती हैं। ठीक उसी तरह जैसे बचपन में पेंसिल लेकर पूरे कागज को गोंचने के लिए दौड़ती फिरती थीं। वो शायद पढ़ने का मन न होने पर होता होगा। या फिर किसी से नाराज होने पर। या अपनी कोई इच्छा पूरी न होने पर भी शायद। हमारे बचपन को नाराजगियां जाहिर करने की आजादी कहां थी। खैर, आजकल चिढ़ को थोड़ी रिसपेक्ट दे रखी है मैंने। उसकी सुनती हूं, कहती कुछ नहीं। कोशश करती हूं उसकी वजह समझ सकूं। काम करती हूं लेकिन उसे पलटकर देखने का मन नहीं करता। कुछ भी पलटकर देखने का मन नहीं करता। यहां तक दोपहर आते-आते सुबह की तरफ देखने का मन नहीं करता।

कोरे कागजों पर ढेर सारी लकीरें उगा रखी हैं। एक लकीर दूसरी को काटती है। दूसरी तीसरी को। तीसरी लकीर चौथी को काटती और इस तरह कोई लकीर सौवीं लकीर को भी काटती है।
इन कटी हुई लकीरों में बहुत सारी नई लकीरों का अक्स उभरता है। वो अक्स जाना-पहचाना सा लगता है। हालांकि उन नई लकीरों को मैंने नहीं बनाया उन्होंने खुद जन्म लिया है।

खूबसूरत मौसम जिस तरह आहिस्ता-आहिस्ता करीब आ रहा है, उसे छूने को जी चाहता है। ढेर बारिषों के बाद धूप के टुकड़े पकड़ने को जी चाहता है। बहुत सीलन भर गई है हर तरफ, अंदर बाहर, अखबारों के अंदर भी....बहुत धूप चाहिए। तरह-तरह की धूप चाहिए। बहुत उजाला चाहिए....ढेर सारा उजाला। खिड़की के सारे पर्दे हटा देने पर कमरे रोशनी से नहा जाते हैं....काश हर अंधेरे को दूर करने के लिए कुछ पर्दे होते, जिन्हें इतनी ही आसानी से हटाया जा सकता। अखबार को फिर से टेबल से उठाकर सोफे पर रख देती हूं। रोशनी बहुत चाहिए सच्ची...

दिन में किसी बच्चे ने धूप के कुछ टुकड़े दिए थे। प्राइम टाइम देखते हुए उन्हें अपने पर्स में तलाश रही हूं...





Sunday, September 29, 2013

उदास मौसमों के विदा की बेला...



बदलने लगा है मौसम
कन्धों पर झरने लगे हैं
गुलाबी ठण्ड के फाहे

सुना है उदास मौसमों के
विदा की बेला है...


Tuesday, September 24, 2013

किसी से न कहना


सुनो, अरे सुनो तो....राघव हांफते हुए काजल के पीछे भाग रहा है.
काजल पलटकर देखती है. खिलखिलाकर हंसती है और फिर भागने लगती है. दम है तो जीतकर दिखाओ. वो चिल्लाकर कहती है. राघव पेट पकड़कर बैठ जाता है.
जा तू, मैं तुझसे नहीं बोलता. तू ही जीत जा. सर की चमची.
मैं सर की चमची....मैं सर की चमची....गुस्से में चिल्लाते हुए काजल राघव के पास आती है और उसे एक तमाचा मारती है. राघव दर्द से कराह उठता है. काजल और मारती है. 
माफ कर दे रे काजल, तू नहीं मैं सर का चमचा...
ठीक से माफी मांग. काजल कमर पे हाथ रखकर खड़ी हो जाती है.
राघव कान पकड़कर माफी मांगता है.
सुन....राघव काजल से कहता है
तू ना, किसी को बताना मत कि तूने मुझे मारा है.
क्यों...काजल उसे घूरकर देखती है. तेरी इज्जत घट जायेगी ये बताने से कि मुझसे पिटा है, इसलिए.
राघव धीरे से कहता है हां....
जिनके सामने तेरी इज्जत घट जायेगी तू मुझे बताइयो मैं उन्हें भी एक रहपटा लगा दूंगी. फिर सबकी इज्जत एक सी हो जायेगी. ठीक?
राघव मन ही मन सोच रहा है कि कैसे काजल को मनाये....
अच्छा सुन, अगर तू किसी को नहीं बतायेगी तो मैं तुझे इमली वाली गोलियां दूंगा.
अच्छा....और?
काजल चलते-चलते पूछती है.
और बिस्कुट....
और? काजल फिर पूछती है...
और ऑरेंज वाली टॉफी. देख इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं दे सकता. हां...राघव खिसिया गया.
अबे, तेरी इज्जत का सवाल है. इमली की गोली, ऑरेंज वाली टॉफी और बिस्किुट भर की है तेरी इज्जत? काजल ने व्यंग्य किया.
राघव ने मुंह फुला लिया.
अच्छा चल नहीं बताउंगी. तू घर जाते वक्त मेरा बस्ता भी उठायेगा.
ठीक. राघव ने कहा.
मेरी बात मानेगा. काजल कहती है
ठीक. राघव कहता है.
अब से तेरी इज्जत मेरे हाथ में सुरक्षित है. काजल मुस्कुराती है.
गुरू जी ने विज्ञान की कक्षा हेतु जिन बच्चों से जंगल से किसी खास पेड़ की पत्ते मंगवाये थे उनमें काजल सबसे पहले लौटी थी.
राघव, कपिल, घुग्घू तो वहां तक गये ही नहीं.
सौरभ पहुंचा जरूर लेकिन देर से.
गुरू जी काजल को देखकर मुस्कुराए....
शाबास! लाओ पत्तियां यहां रख दो.
राघव, तुम भी यहां रख दो अपनी पत्तियां.
ना...गुरूजी हम ना लाये...हम ना...गिर पड़े रस्ते में सो ला ना पाये...जो गिरते ना तो पक्का ले आते. देखो कपड़ा भी मैले हो गये गिरने से.
काजल फिस्स...से हंस दी. राघव ने उसे घूरा...
गुरूजी अगली बार हम पक्का लेकर आयेंगे. तब तक सौरभ, कपिल और घुग्घू भी कक्षा में आ गये. सिर्फ सौरभ के हाथ में पत्ते थे.
गुरूजी ने काजल के सबसे पहले काम पूरा करने के लिए पूरी कक्षा को तालियां बजाने को कहा. साथ ही उन्होंने राघव को बुलाकर कहा, बेटा मुझे पता है तुम गिरे नहीं थे. तुम्हें काजल ने मारा था.
पूरी कक्षा के सामने एक लड़की के हाथ पिटने की बात स्वीकार करते हुए राघव को आंसू आ गये. उसने काजल की ओर देखा. काजल ने इशारे से कहा कि उसने नहीं बताया गुरूजी को.
गुरू जी ने कहा, मैंने तुम दोनों की बातें सुन ली थीं. उन्होंने काजल को भी डांट लगाई. और पूरी कक्षा से कहा,
बच्चो कोई भी काम न लड़कों का है न लड़कियों का. कोई भी क्षमता और इच्छा से सधता है. इसलिए अगर काजल जंगल में जाकर पत्तियां ला सकती है तो राघव मीठा गीत गा सकता है. और राघव, जब कपिल और सौरभ से पिटकर तुम्हारी इज्जत नहीं घटती सिर्फ दर्द होता है तो काजल से पिटकर इज्जत क्यों घटती है. क्योंकि वो लड़की है. यह गलत बात है. पीटना या पिटना अपने आप में गलत बात है, लड़का हो या लड़की. समझे? उन्होंने राघव से कहा, जी गुरू जी.
और काजल अब तुम किसी को नहीं पीटोगी.
जी गुरू जी.....काजल ने धीरे से कहा.

(उत्तराखंड के जेंडर मॉड्यूल में पठन सामग्री के तौर पर शामिल )

Friday, September 20, 2013

सब ठीक है....



सुबह जल्दी जागती हूं इन दिनों
रियाज़ के लिए चुनती हूं राग भैरवी

सैर में भैरवी की तान के संग
गुनती चलती हूं स्कूल जा रहे
बच्चों की मुस्कुराहटें

चाय के साथ बस थामे रहती हूं अखबार
फिर उठाकर रख देती हूं दूर

व्यवस्थित करती हूं घर
ढूंढती हूं कुछ खोई हुई चीजें

दवाइयां वक्त पर लेती हूं

ऑफिस में भी सब ठीक है
काम अपनी गति से चल रहा है

मुस्कुराहटों वाली चूनर में
कुछ छेद हो गये थे
पिछले दिनों उसे भी रफू करा लिया है

गाड़ी की सर्विसिंग ड्यू नहीं है

बच्चों की परीक्षाएं भली तरह निपट गयी हैं

बहुत दिन हुए किसी दोस्त से
नहीं हुई खट-पट

चैनलों को देखकर
जागता था गुस्सा
सो अब इंटरटेनमेंट चैनल में
मुंह घुसाये रहती हूं कुछ घंटे

पलटती हूं कुछ किताबें सोने से पहले
और खुद से बुदबुदाती हूं कि
सब ठीक है....
नमी से भरपूर ये शब्द
हर रात मुझे मुंह चिढ़ाते हैं...


Wednesday, September 18, 2013

प्रतिरोध



मौन की जमीन पर
भी उग ही आते हैं प्रतिरोध के बीज

आसमान के पल्लू में बांधकर रखी गयी
तमाम खामोशियाँ
लेने लगती हैं आकार

धरती से आसमान तक
बरपा होने लगता है
चुप्पियों का शोर
अब नहीं, अब और नहीं

नहीं चलेगी अब कोई संतई
नहीं सेंकने देंगे सत्ता की रोटियां
हमारे जिस्मों की आंच पर

नहीं बहने देंगे एक भी बूँद खून
न सरहद पर, न सरहद पार

न, कोई सफाई नहीं देंगे हम

दुनिया के हाकिमों,
खोलो अपनी जेलों के दरवाजे
ठूंस दो दुनिया की तमाम हिम्मतों को
जेलों के भीतर
आम आदमी की चेतना का सीना
तुम्हारे आगे है.…

रंग कोई नहीं है हमारे झंडों का
बस कि रगों में दौड़ते खून का रंग है लाल.….

Thursday, September 5, 2013

हथेलियां...जो आजकल खुली रहती हैं...



इन दिनों आंखों में कोई दृश्य ठहरता नहीं. कानों में कोई बात नहीं रुकती, जेहन की डायरी पर कोई लम्हा दर्ज नहीं होता...हर रोज कोरे पन्नों का शोर मौन के पानी में किसी की कंकड़ी सा पड़ता है. वो मौन को सधने नहीं देता.

संगीत की दहलीज पर किये गये सजदों में भी मानो सर ही झुक पाता है. ऊंचे पहाड़ों, खूबसूरत मंजर, सर्द हवाओं के दरम्यान न जाने कौन सी बदली आंखों से टकराती है और अतीत का कोई टुकड़ा गालों पर रेंगते हुए हथेलियों की पनाह में जा छुपता है. हथेलियां...जो आजकल बंद नहीं होतीं. खुली रहती हैं. सूरज की कोई किरन हथेलियों पर खेलते हुए किसी शातिर खिलाड़ी की तरह अतीत की नमी को चुरा लेना चाहती है. जैसे नया प्रेमी चुरा लेना चाहता है प्रेमिका की स्मतियों में दर्ज पुराने प्रेमी के बिछोह के सारे दर्द.

इस चाहना में इतनी मासूमियत है, इतनी पवित्रता कि इसके पूरे होने न होने के अर्थ बेमानी होने लगते हैं. हथेलियों पर सूरज की किरनों को खेल जारी है दूर...कहीं बहुत दूर से शहनाई की आवाज आ रही है...उदास शहनाई...

वादियों में कोहरे का खेल जारी है... खूबसूरत खेल. उदासी का अपना सौन्दर्य होता है जो बेहद आकर्षक होता है. वादियों में बादलों का खेल उसी उदासी के सौन्दर्य को बढ़ा रहा था. पहले की तरह अब किसी दृश्य को देखकर हथेलियां खिलखिलाकर आगे नहीं बढ़तीं. वो किसी दृश्य को मुट्ठियों में कैद करने को बेताब नहीं होतीं. न बारिश, न हवाएं, न बादल, न खुशबू न कविता, यहां तक कि नन्हे बच्चे की मुस्कुराहट भी नहीं. बस कि इन तमाम खुशनुमा दृश्य के सर पर हाथ फिराने की इच्छा जागती है. ये दृश्य शाश्वत रहें ये दुआ देने को जी चाहता है.

इन दृश्यों की नज़र उतारने को कुछ तलाशती हूं तो उम्र के दुपट्टे में बंधे स्म्रतियों के कुछ सिक्के ही हाथ आते हैं. इस दुनिया के निजाम ने ऐसे खोटे सिक्कों पर पाबंदी लगा रखी है.

अपनी खुली हथेलियों को देखती हूं. लकीरें कोई नहीं हैं बस कि एक खुशबू है जो लगातार झरती रहती है. हथेलियां अब बंद नहीं होतीं...हथेलियों का बंद न होना बड़ा संकेत है...इतना बड़ा संकेत कि उस पर आंखें नहीं ठहरतीं...कुछ छूटता सा महसूस होता है...कुछ टूटता सा महसूस होता है...ग़म की डली अपने नमकीन स्वाद के साथ...सांसों के साथ सरकती रहती है...

शाम की ओढ़नी में खुद को लपेटते हुए उम्र के कंधे पर सर टिका देती हूं...


Sunday, August 18, 2013

तुमसे ही होती है गुलज़ार जिंदगियां...




प्यार के आँगन में गिरा था जो पहला ख़त
वो तुम्हारा था
ज़ेहन के दरीचों में ज़ज्ब हुई थी जो आवाज
वो तुम्हारी थी
सिरहाने झरती थीं जो शबनमी रातें
वो सौगात तुम्हारी थी
चाँद से दिल लगाना
हवाओं को पहनना कानों में
बांधना ख्वाबों की पाजेब,
उड़ते फिरना आसमान के आखिरी छोर तक
सब सिखाया तुमने
गुलज़ार कहते हैं लोग तुमको

कि तुमसे ही होती है गुलज़ार जिंदगियां
जन्मदिन मुबारक हो गुलज़ार साब!

Wednesday, August 14, 2013

फिर भी बचा रहता है कुछ


टूटते हैं कांच के बर्तन,

फर्श पर फेंके जाते हैं
मोबाईल, कैमरे
घडी, रिमोट
शो पीस, महीन कारीगरी वाले बुध्ध

खींच के फेंक दिए जाते हैं
परदे , बेडशीट

फिर भी बचा रहता है कुछ
बचाने को

बचे रहते हैं बर्तन
मोबाईल, रिमोट
परदे, महंगी पेंटिंग

और सब कुछ

लेकिन बचाने को
नहीं बचता कुछ भी....


तो कहना...


ये आसमां तेरे कदमों में न झुक जाये तो कहना
समंदर तेरी आंखों में न सिमट आये तो कहना

मुस्कुरा के देख ले इक बार तू जिस तरफ
वो रास्ता कदमों में न बिछ जाए तो कहना

नाउम्मीदियों को चादर को एक बार झटक तो दे
उसमें से ही एक सूरज न निकल आये तो कहना

सदियों संभाला है तूने इस धरती को बेतरह
ये धरती तेरे कदमों में न बिछ जाये तो कहना

खूबसूरत हैं वो ख्वाब जिन्हें देखा नहीं तूने
वो ख्वाब हकीकत न बन जाये तो कहना

तू चल तो मेरी जान जरा दो कदम सही
फूल ही फूल न खिल जाये राहों में तो कहना

बहुत दिया है जमाने को तुमने, सचमुच बहुत
अब जमाना न लौटाये तेरा कर्ज तो कहना

बस सोच ले एक बार कि नहीं अब नहीं सहना
मिट जाये न अंधेरा तेरे मन का तो कहना...

Saturday, August 10, 2013

उदास नुक्कड़, लाल चोंच वाली चिड़िया...


तो आज आखिर मेरी उससे मुलाकात हो ही गई. कितने दिनों से वो मुझे चकमा देकर निकल जाता है. कई बार तो उसकी बांह मेरे हाथ में आते-आते रह गई. और कई बार मेरा हाथ उसके कॉलर तक जा पहुंचा था फिर अचानक....

खैर, न मिलने वाली बातें रहने देते हैं. क्योंकि अभी तो वो मेरे सामने है. ठीक सामने. लेकिन उसके इस तरह सामने बैठने वाली बात को शुरू करने से पहले एक बात बतानी बहुत जरूरी है. क्योंकि अगर मैंने वो नहीं बताई तो आगे की बात शुरू ही नहीं कर पाउंगी. उसी न बताई वाली बात में उलझी रह जाउंगी.

उस रोज भी मैं उसका पीछा कर रही थी. हमेशा की तरह. मुझे तो लगता है कि मेरा जन्म ही जैसे उसका पीछा करने के लिए हुए है. खैर, उस दिन भी मैं उसका पीछा कर रही थी. अमूमन पीछे से आती आवाजों से वो चौकन्ना हो जाता और या तो अपने कदमों की रफतार तेज कर देता या रास्ता बदल देता. लेकिन उस दिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया. मुझे लगा कि पैरों को संभाल-संभाल कर आहिस्ता रखने की मेरी जुगत काम कर गई और जनाब मेरे हाथ आ गये. लेकिन नहीं, मेरी जुगत काम नहीं की थी. दरअसल, उस दिन उसके पांव से खून रिस रहा था. उसे गहरी चोट लगी थी. करीब जाने पर मैंने उसे लंगड़ाते हुए देखा. एक पैर को घसीटकर रखते हुए देखा.

मैं जल्द ही उसके बराबर चलने लगी. उसके पांव से रिसने वाला खून मिट्टी के रास्ते पर एक लकीर सी बनाता जा रहा है. मुझे एकदम ठीक से याद है कि ये बारिश के बंद होने के ठीक बाद की बात है. उसका खून जमीन ने सोखने से इनकार कर दिया था और वो फैल रहा था. जब मेरे कदम उसके कदमों के बराबर पड़ने लगे तो उसने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया. मैंने उसका चेहरा नहीं देखा था लेकिन मुझे यकीन है कि उसकी आंखों में आंसू थे. इसके पहले कि मैं कुछ कहती, उसे रोकती एक साइकिल वाला ठीक पास में फिसलकर गिर पड़ा. मैं उसकी ओर मदद करने को लपकी कि वो महाशय गायब.

मैंने उसके पैरों से रिसने वाले खून के निशान से पीछा करने की कोशिश की लेकिन ऐन मौके पर बारिश आ गई और रही सही संभावना भी जाती रही. येे पहली बार था जब मैं उसके इतनी करीब थी. उसने अगर चेहरा न घुमाया होता तो मैं पक्का अपने दिमाग में उसकी तस्वीर उतार लेती. लेकिन मैं उस दिन भी रह ही गयी बस...

खैर...आज जनाब हाथ आ गये हैं. और सामने सर झुकाये बैठे हुए हैं. बारिश अभी-अभी यहां से होकर गुजरी है. हमारे बीच चाय का एक प्याला है और ढेर सारी खामोशियां. कुछ मठरियां भी हैं. जिन्हें वो कुछ यूं देख रहा है मानो उसे उनसे कोई लेना-देना नहीं. हालांकि उसकी न देखने वाली नज़र में सदियों की भूख नुमाया हो रही है. उसके होंठ इतने सूखे हैं, उन पर जमी पपड़ियों में से खून तक रिसने की नौबत है. तो क्या इसे पानी भी नसीब नहीं हुआ....मैंने मन में सोचा.

आज जब ये जनाब सामने आये हैं तो वो सारे सवाल, वो लंबी सी फेहरिस्त अचानक गुम सी होने लगी है जे़हन से. जैसे कुछ याद ही नहीं. सच कहूं तो याद करने का मन भी नहीं हो रहा है. इस बेचारे को देखकर पुराने सारे सवाल जाते रहे. अब तो नये सवाल ही जन्म लेने लगे हैं. इसने कबसे नहीं खाया होगा? क्या है जिसका इतना सूनापन इसकी आंखों में है? इसके पैर का घाव क्या अब ठीक हो गया है? क्यों ये इतने दिनों से मुझसे आंखें चुरा रहा है?

पियो....मैंने उससे कहा. उसने सूखे पपड़ी पड़े होठों पर जीभ फिराते हुए मुझे देखा. जैसे वो मेरा कहा कनफर्म करना चाहता हो.

मैंने फिर कहा, पियो....ये चाय तुम्हारे लिए है.

वो झट से गटागट गटागट चाय पीने लगा. देखकर मुझे उसकी भूख और चाय के ठंडे होने दोनों का अंदाजा मिल गया. इस बीच एक लाल चोंच वाली चिड़िया हमारे आसपास फुदकने लगी. मैंने उसी के बारे में सोचते हुए नज़र चिड़िया पर टिका दी. वो भी चिड़िया को देखकर मुस्कुरा दिया.

अब वो मठरी को देख रहा था.

खा लो...मैंने कहा.

उसे इस बार कनफर्म करने की जरूरत नहीं महसूस हुई. वो मठरियों को कुतरने लगा. उधर चिड़िया भी कुछ कुतर रही थी.

अचानक मुझे सब याद आ गया. सब. सचमुच सब. सारे सवाल जो मुझे उससे पूछने थे. वो सारा गुस्सा भी याद आ गया जिसे लिये मैं उसका न जाने कितने सालों या सदियों से पीछा कर रही हूं. सब कुछ याद गया. मैंने समूचे गुस्से और सवालों समेत उसकी ओर देखा.

वो सहम गया. उसका खाना रुक गया. वो खड़ा हो गया.

तुम...ईश्वर हो ना? मैंने उससे गुस्से में पूछा.

उसने सर झुका लिया....उसके पैरों से खून अब भी रिस रहा था. उसकी आंखों में आंसू थे. उसने अपने झुके हुए सर को दूसरी ओर घुमा लिया.

मुझे लगा ये तो मेरे सवालों और मेरे गुस्से के लायक ही नहीं. बेवजह ही मैं अब तक इसके पीछे भागती रही.

लाल चोंच वाली चिड़िया फुदककर सामने वाले गुलाबी फूलों से लदे पेड़ पर जा बैठी थी.


Friday, August 9, 2013

रीत न जानूं प्रीत की...



रीत न जानूं प्रीत की
रीत गयी सब टूट…

लाख छुडाऊँ प्रीत पर
क्यों न रही ये छूट…

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मेरी दहलीज पे
छोड़ गए थे जो 'चुप'

वो बहुत 'शोर' करने लगी है
इन दिनों...


Monday, August 5, 2013

तुम हो, न हो...




जो वादा दिया था तुमने 
चाय की आखिरी चुस्की के साथ 
वो चाय के प्यालों की तलहटी में
जा गिरा था, 

तुम हो, न हो 
हर शाम  दो प्याले होते हैं चाय के 

एक आसमान 
होता है सर पे 

और एक तलाश होती है 
चाय की प्यालियों की तलहटी में…

Wednesday, July 24, 2013

नींद में इन दिनों ख्वाब नहीं आते...


ख्वाब आजकल आते नहीं आँखों में
कि नींद बहुत आती है

कोई ख्वाब दरवाजे से सर टिकाकर
बैठा है, 
एकदम सटकर
बीती रात के ख्वाब से

कोई ख्वाब बालकनी में जमुहाई ले रहा है
कि तुम आओ,
तुम्हारी हथेलियों में सुबह लिखूं

कोई ख्वाब सिरहाने बैठा है
ये सोचकर कि नींद के किसी हिस्से में तो
उसका भी हिस्सा होगा

सुबह की चाय बनाते वक़्त जो ख्वाब
छोड़ गए थे तुम गैस चूल्हे के पास
और जाकर धंस गए थे बीन बैग के अन्दर
वो ख्वाब एक पानी की बोतल में रख दिया था,
उसमें कल्ले फूटे हैं

कुछ ख्वाब यूँ ही टहलते फिरते हैं घर भर में
कभी भी, कहीं भी टकरा जाते हैं
जैसे तुम टकराते थे, जानबूझकर
बदमाश…कहते-कहते होंठ ठहर जाते हैं 
कोई किताब उठाओ तो उसमें से झरते हैं कुछ ख्वाब
अरे… अरे… गिरते ही जाते हैं ये तो

कमबख्त, कहीं चैन से रहने नहीं देते
कि चलो सो जाती हूँ
नींद में इन दिनों ख्वाब नहीं, 
तुम आते हो… सचमुच।

Tuesday, July 23, 2013

हौले से रखना कदम ओ सावन...


पूरनमाशी के रोज आषाढ़ ने सावन से कुछ शर्त लगा ली. आषाढ़ की बारिश का गुरूर ही कुछ और होता है और कैलेण्डर तो बस याद के पन्ने पलटता है. मगरूर आषाढ़  बोला कि वो तब  तक न बीतेगा जब तक उनकी आमद न होगी। कैलेण्डर ने ख़ामोशी से सर झुका लिया जिसके अगले पन्ने पर आमद का वादा दर्ज था. 

पूरण की रात एक पन्ना कैलेण्डर से उतरा और आसमान पर लिख आया सावन---

सुबह सिरहाने कुछ आहटें रखी थीं. सुबह की प्याली में आसमान से टपकी एक बूँद। चारों तरफ छाई हरियाली में और निखार आ गया.

बिटिया ने प्यार से निकाला हरे रंग का दुपट्टा।

मुस्कुराकर टुकुर-टुकुर देख रहे हैं बादल। उन्हें ताकीद है कि हौले से रखना इस बार कदम कि आषाढ़ ने काफी उत्पात मचाया है…

Tuesday, June 18, 2013

वो लोगों से दुःख मांगता था...


वो कोई दरवेश था शायद. उसके कंधे पर कोई पोटली नहीं थी. लेकिन कुछ था तो पोटलीनुमा. अदश्य. वो कहता था कि उसके पास दुनिया के हर सवाल का जवाब है. हर समस्या का समाधान है. पलक झपकते ही वो बारिश ला सकता था, पलक झपकते ही आपको फूलों से भरे बागीचे में ले जाकर छोड़ सकता था. एक ही पल में आप खुद को राजा समझ सकते थे और अगले ही पल तितली की तरह उड़ते या फूल की तरह खिलते महसूस कर सकते थे.

वो लोगों से दुःख मांगता था. बड़ी सी हथेली थी उसकी. बहुत बड़ी सी. उसकी हथेली पर जाते ही बड़े से बड़ा दुःख नन्हा सा हो जाता था. वो दरवेश धरती की तरह गोल-गोल घूमता था. उसके साथ पूरी सष्टि घूमती थी. एक रोज बहुत सारे बच्चों ने उसे घेर लिया, हमें जलेबियां खानी हैं...पूरे कमरे में जलेबियां ही जलेबियां. बच्चे खाते जा रहे थे...खाते जा रहे थे...खाते ही जा रहे थे....न जाने कबसे भूखी पड़ी अंतड़ियों और सपनों से खाली आंखों में उस रोज तृप्ति की बारिश हुई. चारों ओर जलेबियों की खुशबू फैली हुई थी.

एक रोज दरवेश ने बच्चों से पूछा, क्या तुम चाहते हो कि ये बादल तुम्हारे पैरों के नीचे बिछ जाएं....? बच्चे चुप...ऐसा भी कहीं होता है क्या? दरवेश ने पूछा कि क्या तुम चाहते हो कि इस तेज गर्मी वाले मौसम में बारिश हो जाए...बच्चों की आंखों में चमक तो आ गई पर वो खामोश ही रहे....ऐसा भी कहीं होता है क्या?

फिर धीरे से एक गुमसुम सी, खामोश सी सिलबिल ने हाथ उठाया...हां...बारिश....
क्या?
दरवेश ने पूछा.
बारिश हो जाए सिलबिल ने पलकें झपकाते हुए कहा...धीरे धीरे और बच्चों के भी हाथ उठे और दरवेश ने गोल-गोल घूमना शुरू किया...बच्चों ने भी घूमना शुरू किया. गोल...गोल...गोल....गोल....और कुछ ही देर में बादल के कुछ टुकड़े कमरे के भीतर झांकने को बेकल हो उठे.

कुछ ही देर में हल्की फुहार गिरने लगी. किसी की नाक पर एक बूंद गिरी, किसी के सर पर..कोई बोला...देखो बारिश आ गई....दूसरा बोला...कहां? तीसरी बोली...यहां मेरी नाक पर...कोई बोला मेरे सर पर और अचानक पूरा कमरा बारिश की बूंदों की आवाज में डूब गया. सारे बच्चे तर-ब-तर.

कमरे के बाहर भी बारिश थी, कमरे के भीतर भी. कमरा...शरीर का भी, ईंट पत्थर का भी.

दरवेश की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी. लोग अपनी-अपनी समस्याएं लेकर आते और दरवेश आंखें बंदकर गोल-गोल घूमते और थोड़ी ही देर में समस्या गायब...लोग खुशी-खुशी वापस लौट जाते. रागिनी के पास कोई दुःख नहीं था, कोई परेशानी नहीं या वो किसी से कुछ कहना ही नहीं चाहती थी.

दरवेश ने उसके करीब जाकर पूछा, तुम्हें कुछ नहीं चाहिए...वो चुप रही.

दरवेश ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लिया...उसके सर पर हाथ पर फिरा दिया. दोनों चुप बैठे रहे...रागिनी ने कहा, आप सचमुच कुछ भी कर सकते हो?

दरवेश चुप रहा.
रागिनी ने फिर कहा, आप मेरी मां को वापस ला सकते हो? वो भगवान के पास चली गई है. कहते हुए रागिनी ने अपनी आंख का एक आंसू दरवेश की हथेली पर रख दिया.

आप सब बच्चों से झूठ क्यों बोलते हैं?
दरवेश चुप.

मैं जानती हूं उस रोज कोई बारिश नहीं हुई थी. कोई बादल बच्चों की बात नहीं मानता. कोई जलेबियां नहीं खाई थीं हमने...
ऐसा क्यों करते हो आप....बोलो...

दरवेश बोला, बेटा, जादू मेरे पास नहीं तुम सबके पास है. तुम सब हो दरवेश. मैं तो तुम सबके बीच आकर अपना दुख, अपनी परेशानी कम करता हूं. हां, एक बात है कि मैं झूठ नहीं बोलता. जिन बच्चों ने कहा बारिश हुई उन्होंने उसे सचमुच महसूस किया. जिंदगी में किसी भी बात का होना न होना हमारे चाहने पर निर्भर करता है. हम क्या चाहते हैं, कितना चाहते हैं, किस तरह चाहते हैं. अपने उस चाहने के प्रति कितनी जिद है हमारे भीतर...

मैं अपनी मां को वापस लाना चाहती हूं....रागिनी फूट-फूटकर रोने लगी....तभी उसने देखा कि दरवेश उसकी मां में बदल गया. वो दरवेश उसकी मां ही थी. जो भेष बदलकर रागिनी से मिलने आई थी. रागिनी देर तक मां से लिपटकर रोती रही. मां ने उसे खूब प्यार किया. दोनों ने जलेबियां खाईं. और देर तक बारिश में भीगती रहीं.

अगले रोज जब रागिनी की आंख खुली तो न बादल थे, बारिश, न जलेबियां, न बच्चे न दरवेश न मां....हां, लेकिन रागिनी की आंख में आंसू भी नहीं था....

Wednesday, June 5, 2013

मायूस तो हूं वायदे से तेरे



मायूस तो हूं वायदे से तेरे
कुछ आस नहीं कुछ आस भी है,
मैं अपने ख्यालों के सदके
तू पास नहीं और पास भी है.

दिल ने तो खुशी माँगी थी मगर,
जो तूने दिया अच्छा ही दिया.
जिस गम को तअल्लुक हो तुझसे,
वह रास नहीं और रास भी है.

पलकों पे लरजते अश्कों में,
तसवीर झलकती है तेरी.
दीदार की प्यासी आँखों को, 
अब प्यास नहीं और प्यास भी है.
- साहिर लुधियानवी 
 

Friday, May 31, 2013

रात गुलज़ार के संग काट आयी, बाबुषा


कुछ लोग बड़े सलीके से जिन्दगी की नब्ज को थामते हैं। सहेजते हैं घर के कोने, तरतीब से सजाते हैं ख्वाब पलकों पर. सब कितना दुरुस्त होता है उनकी जिन्दगी में लेकिन एक रोज जिन्दगी उठ के चल देती है और आ ठहरती है कुछ बीहड़, अस्त व्यस्त, बेफिक्र अलमस्त लोगों के दरवाजे पर. कुछ इस तरह जैसे कोई दरगाह पर  ठौर पाता है। जिदंगी को ठेंगे पर रखने वाले लोगों के आँचल में ही जिन्दगी को भी पनाह मिलती है। वो जब जब दर्द से सराबोर होती है तो उँगलियों से लहू रिसता है पन्नों  पर और न जाने कितनी रूहें भीग जाती हैं। कितना सहना पड़ता है न बेसलीका होने के लिये. उसकी दोनों हथेलियों को थामे हुए बैठी हूँ और देख रही हूँ कि बेसलीका सी इस लड़की ने भले ही किचन संभालना न सीखा हो लेकिन किचन से लेकर घर का हर कोना सँभालने वालों को वो किस तरह एक आवाज से संभाले हुए है. कौन कहता है मोहब्बत से पेट नहीं भरता, यहाँ तो रोटी, पानी, दवा, दारू सब मोहब्बत से ही चले जा रहा है, बिंदास चले जा रहा है. आज इस वक़्त उसकी हथेलियों की गर्मी की महसूस करते हुए, उसकी रूह की नमी में डूबते उतराते हुए बड़े बेमन से यही दुआ देती हूँ कि खुदा तेरे दर्द में कोई कमी न रखे।
 आज उसी की एक नज़्म आस पास रेंग रही है. - प्रतिभा 











"नहीं, तुम 'माया' तो नहीं !
उसके कान का बुंदा हो तुम तो, बाबुषा
जो महेंदर की क़मीज़ से लिपटा पड़ा है"
कहते हुए निकल गया सड़कों का मसीहा

रातें जो रात सी नहीं, सुफ़ैद सी हैं
ये धुंध है, कुछ और नहीं, सिगरेट की है
कहता है, फेफड़ों में नहीं भर सका तुम्हें
जलती हो, कोयले वाली कच्ची आग हो जैसे
सो यूँ किया कि साँसों से बाहर किया तुम्हें
जो धुंध पड़ी, क्या गुनाह है, बाबुषा ?

हह !

धूप चढ़ते ही तो बह जाएगा ये नाम मेरा
कार के शीशे पे लिक्खा हुआ यूँ 'बाबुषा'
हाँ, अब जाओ तुम तो ढूँढू अलमारी में
गुमी क़मीज़ जिस पे उलझा है इक बुंदा
सुनो, क़सम है तुम्हे मेरी, यूँ सरे-महफ़िल
तड़प के अब न कभी कहना तुम, 'बाबुषा'


Thursday, May 9, 2013

बिखरने का सौन्दर्य


मुस्कुराने लगते हैं कॉफ़ी के मग
दीवारों पर उगने लगती हैं धडकने
दरवाजे जानते हैं दिल का सब हाल
खिडकियों बतियाती ही रहती हैं घंटों

खाली सोफों पर खेलते हैं यादों के टुकड़े
दीवार पर लगे कैलेण्डर को लग जाते हैं पंख
झुकती ही चली आती हैं अमलताश की डालियाँ
घर के जालों को मिलने लगता है प्यारा सा आकार
जिन्दगी से होने लगता है प्यार।

कलाई घडी मुड़-मुड़ के देखती है बीते वक़्त को
रेशमी परदे कनखियों से झांकते हैं खिड़की के उस पार
अचानक गिरता है कोई बर्तन रसोई में
भंग करता है भीतर तक के सन्नाटे को
फर्श पर बिखरता है एक राग,

सारी आकुलता को बाँहों में भर लेता है
अपना कमरा
उलझी अलमारियों में ढूंढते हुए कोई सामान
मिल जाता है कुछ जो खोया हुआ था कबसे
पलकें झपकाते हुए बिना कहे गए शुक्रिया
का प्रतिउत्तर देती है अलमारी

कुर्सी का कोई सिरा चुपके से थाम लेता है
आँचल का एक सिरा
और ठहर जाता है वक़्त का कोई लम्हा
फर्श पर बिखरी हुई किताबों में उगती हैं शिकायतें
पूरे घर में बिखरा हुआ अख़बार कहता है
देखो, इसे कहते हैं बिखरने का सौन्दर्य

दरवाजे पर टंगी घंटियाँ अचानक बज उठती हैं
कहती हैं कि ये कॉलबेल किसी और के नहीं
खुद अपने करीब आने की है आहट है।

सचमुच, चीज़ें तब चीज़ें नहीं रह जातीं
जब हम उनसे लाड़ लगा बैठते हैं...

Monday, May 6, 2013

यूं आंख-आंख फिरना...



सुनो, मासूम, निर्दोष , खामोश आंखों में ठहर जाने को मेरा बहुत जी चाहता है...तलाशती फिरती हूं ऐसे ठीहे जहां जिंदगी की धूप से जरा सी राहत मिले. पल भर को ही सही ऐसे ठीहों में ठहरने का अपना एक सुख होता है. तुम समझते हो ना?

तो आज का किस्सा सुनो, आज सुबह जैसे ही मैं घर से निकली वो मेरे सामने से गुजरा. उसे देखते ही मैं खिल गई. बरबस होठों पर मुस्कान तैर गई. वो भी मुस्कुरा दिया. इस मुस्कुराने में आंखों का मिलना भी शामिल  था. अब हम दोनों रास्तों में थे. अपनी-अपनी गाड़ियों पर. उसकी आंखें मुझमे क्या ढूंढ  रही थीं पता नहीं लेकिन मेरी आंखों को एक ठीहा मिल गया था. उसकी आंखों में शरारत  भरने लगी. वो अनदेखी करने की कोशिश करता, आंखें चुराता और ऐसा करते हुए भी उसकी आंखें मुझे तलाश रही होतीं. गाड़ी की रफ़्तार  उसकी मुस्कुराहट में छुप जाने को बेताब थी लेकिन उसके साथ रहने की जिद भी.

जाने कैसे हमारे रास्ते एक हो रहे थे. हम हर मोड़ पर एक साथ मुड़ रहे थे. जरा सी जो मैं आंख से ओझल होती, उसकी आंखें मुझे ढूंढने लगतीं और जैसे ही मैं दिख जाती वो मुस्कुरा देता. अब ये खेल खुल चुका था. वो देर तक बिना पलक झपकाये मुझे देखता रहा और मैं खिलखिलाकर हंस दी. मैंने दूर से उसे हाथ हिलाकर उसका अभिवादन भी किया. वो ठठाकर हंस दिया...

हम रास्तों में दौड़ते रहे. उसकी आंखों में यूं ठहरना मुझे अच्छा लग रहा था. आखिर एक मोड़ पर हमारे रास्ते बदल गये...वो मुस्कुराते हुए मुड़ गया और मैं भी...नजर पड़ी कि जिस मोड़ से वो मुड़ा उस मोड़ पर लगा गुलमोहर शरारत से मुस्कुरा रहा था...

मेरे कानों में रोज की तरह कमाल गा रहे थे---  

गिरता सा झरना है इश्क कोई
उठता सा कलमा है इश्क कोई...

अपनी मां की गोद में बैठकर कहीं जाते हुए उस ढाई बरस के बच्चे की आंखों में कुछ लम्हों के लिए यूं ठहरना...ठहरना जिंदगी में था...

फिर तुम क्यों कहते थे कि तुम्हारा यूं आंख-आंख फिरना मुझे जरा नहीं सुहाता...बोलो?

Thursday, April 18, 2013

हरा...



कुछ जो नहीं बीतता
समूचा बीतने के बाद भी

आमद की आहटें नहीं ढंक पातीं
इंतजार का रेगिस्तान

बाद भीषण बारिशों  के भी
बांझ ही रह जाता है
धरती का कोई कोना

बेवजह हाथ से छूटकर टूट जाता है
चाय का प्याला

सचमुच, क्लोरोफिल का होना
काफी नहीं होता पत्तियों को
हरा रखने के लिए...

Saturday, April 6, 2013

अजनबी चेहरों पर उमड़ने लगता है प्यार...


आसमान झुक के
कन्धों के एकदम करीब आ जाता है

सड़कें ओढ़ लेती हैं
सुर्ख फूलों वाली सतरंगी चुनर

बच्चो की शरारतों
में लौट आती है मासूमियत

स्त्रियाँ बिना किसी त्यौहार के
करने लगी हैं भरपूर सिंगार

ट्रैफिक के शोर में भी
घुलने लगता है कोई राग

कोई मेज पर रख जाता है
फाइलों का नया ढेर
उन पर भी उगने लगती है 
गुलाब के फूलों की खुशबू

पोपले मुंह वाली बुढ़िया
लगने लगती है 
दुनिया की सबसे हसीन औरत
अजनबी चेहरों पर उमड़ने लगता है प्यार 
 
किसी भी मौसम की डाल पर
उगने लगता है बसंत

दर्द सहमकर दूर से देखते हैं
कभी न गुम होने वाली मुस्कुराहटों को

दुनिया की तमाम सभ्यताएं पूरी असभ्यता से
सिखाती हैं उन्हें संवेदना के पाठ
कि देखो इतना मुस्कुराना भी ठीक नहीं
मानवीयता के खिलाफ है इस वक़्त
छेड़ना मोहब्बत का राग

वो थामते हैं एक दूसरे का हाथ
मुस्कुराते हैं और दोहराते हैं
खुद से किया हुआ वादा कि
सबसे मुश्किल वक़्त में हम बोयेंगे
इस धरती पर प्रेम के बीज
नफरत की जमीन में उगायेंगे प्यार
तोड़ेंगे दुःख की तमाम काराएं
और रचेंगे स्रष्टि के लिए
सबसे मीठा संगीत

चाहे तो कोई शासक
ठूंस दे उन्हें जेलों में फिर भी
झरता ही रहेगा आसमान से प्रेम
खिलखिलाता ही रहेगा बचपन
संगीनों के साये में
खिलते ही रहेंगे प्यार के फूल

कोई नहीं जान पायेगा कभी कि इस दुनिया को
सबसे नकारा लोगों ने बचाया हुआ है
नहीं दर्ज होगा इतिहास के किसी पन्ने पर
दुःख, पीड़ा, संत्रास के सबसे कठिन वक़्त में
किसके कारण धरती फूलों से भर उठी थी।।

Tuesday, April 2, 2013

एक जंगल में मैं थी, एक जंगल मुझमें था...



रास्ते नये नहीं थे. बस अरसे से रास्तों ने पुकारा नहीं था. चलने का जी चाहता तो था लेकिन रास्तों की पुकार का इंतजार था। तो चलने की ख्वाहिशों को और पैरों के भंवर को हथेलियों में समेटकर धूप और छाया के ठीक बीच में खुद को रख देते और वक्त की शाख से गिरते लम्हों को चुपचाप देखते रहते. ऐसे में कभी-कभी नींद सर पर हाथ फिराती और ख्वाब की कोई खिड़की धीरे से खुलती.

वो भी ऐसा ही एक दिन था. पंडित शिवकुमार शर्मा ने अपने संतूर से दुनिया भर के झरनों और नदियों को कमरे में इकट्ठा कर दिया था. धूप और छांव पक्की सहेलियों की तरह एक-दूसरे का हाथ थामे कुछ कह सुन रही थीं. तभी आसपास एक जंगल उग आया. जंगल की खुशबू  में डूबने का आनंद समंदर की लहरों में सिमट जाने के आनंद जैसा ही पुरक कशिश होता है. उतना ही सघन आनंद जैसा तेज धूप में नंगे पांव दौड़ते हुए महबूब के पास जाने का होता है.

जंगलों में कितना आकर्षण  होता है. मैं हमेशा  सोचती हूँ कि जंगल ऐसा हो कि उससे बाहर जाने के सारे रास्ते गुम हो जाएं...रौशनी के गांव का रास्ता उस जंगल से होकर जाता हो लेकिन उस जंगल में गुम जाने के बाद रौशनी की दरकार भी न रहे. मैंने जंगल के हर पेड़ को गले लगाया, हर पत्ती को चूमा, जुगनुओं को हथेलियों पर लिया और जंगल की समूची खुशबू को दुपट्टे में बांध लिया...एक जंगल में मैं थी, एक जंगल मुझमें था. हथेलियों पर जुगनू थे और पलकों पर खुशबू। असीम शांत से उस मंजर में एक शोर घुला था. जंगल की खुशबू  का शोर. गुलजार साब से शब्द उधार लूं तो बात पूरी हो कि खुशबू  चुप ही नहीं हो रही थी. और खुशबू  का यह शोर भीतर के कोलाहल को विराम दे रहा था. जिंदगी को उसके अर्थ आंसू और मुस्कान में नहीं मिलते इसलिए आंसू और मुस्कान की ओर जाने वाली सड़कों पर चलने से छूटना ही सही राह की और प्रस्थान है शायद.

अभी इसी उहापोह में उलझी थी कि तभी बादल का एक टुकड़ा सर पर हाथ फिराते हुए निकला...वो जाता रहा मैं उसे देखती रही....वो मुस्कुराकर बोला...तेरा रास्ता सही है...ये सड़क न आंसू की ओर जाती है न मुस्कान की ओर यह जिंदगी की ओर जाती है...सुख और दुख जिंदगी में होते हैं जिंदगी नहीं होते....उसे जाते हुए देखती रही...देखती रही...वो दूर किसी पहाड़ी पर जा टिका था...लेकिन पलकों में जो छुप के बैठा था वा कौन था?

धूप और छांव के बीच करवट लेते हुए अपने भीतर के जंगल की एक टहनी तोड़ती हूं...वो जो बीत रहा था वो सपना नहीं था, वो जो दूर गया वो अपना नहीं था.

पलकों पर अटकी उस बूंद में न सुख था, न दुख था....सामने एक पतली सी पगडंडी जाती दिख रही थी...

Thursday, March 28, 2013

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते


ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते.

- अकबर इलाहाबादी 

Sunday, March 24, 2013

रवीश कुमार- जिसे चैन से जीना पसंद नहीं

कुछ दोस्तों को हम आवाज़ के सबसे भीतर वाले दरीचों में छुपाकर रख देते हैं। इस भरोसे पे कि सालों की दूरियां भी उनके होने की तासीर को कम नहीं कर पाएंगी। ऐसे ही एक दोस्त हैं रवीश। हाँ, वही एनडीटीवी वाले. सोचती हूँ इस आदमी को चैन से जीना पसंद ही नहीं है। रवीश की रिपोर्ट देखते हुए भी अक्सर ऐसा ही लगता था। सारी दुनिया ऐसे काम करने को उत्सुक और प्रयासरत होती है जिससे आगे बढ़ा जाये, प्रशंशा मिले लेकिन ये जनाब तो जैसे जानबूझकर ऐसे विषय तलाशते है जिसे करने में मेहनत लगे चार गुना और टीआरपी मिले जीरो। इन्हें पंगे लेने में मजा आता है. वो टाई पहनकर स्टूडियो में बैठने की बजाय तपती दोपहर में खबर को तलाशना, लोगों से बातें करना ज्यादा पसंद करते है. फिर भी जब उन्हें स्टूडियो में  बैठना होता है तो वो वहां भी कुछ अलग ही करते नजर आते हैं। रवीश उन मुठ्ठी भर पत्रकारों में से एक हैं जिन्होंने को खुद को खोये बगैर काम करना सीखा है और पत्रकारिता पर भरोसे को बचाया हुआ है.

'हम लोग' को वो नीरज की गलियों से घुमाते हुए दीप्ति नवल फारुख शेख का हाथ पकड़कर सूफी सगीत मदन गोपाल सिंह के जरिये सुफिज्म को समझने की कोशिश करते हैं। कार्यक्रम देखते हुए अक्सर उनके भीतर का पागलपन यानि कुछ बेहतर करने की जिद सी झलकती है। सचमुच इस दुनिया को पागलों ने ही बचाया हुआ है। ऐसे दोस्त होते हैं तो जिन्दगी की कड़वाहटें भी मीठी सी लगने लगती है। ये यकीन बचा रहता है कि कुछ लोग अपने अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं बावजूद इसके कि ये आसान नहीं है. ये जानते हुए कि जिस राह को वो चलने के लिए चुनते हैं उस पर चलने में हजार दिक्कतें हैं फिर भी वो चुनते हैं वही राह.

मैं कहती हूँ जान ही ले लो आप कितना सुन्दर प्रोग्राम था 'मौला मेरे मौला' भी 'लिसन अमाया'  भी,  'नीरज' भी,  वो फीकी सी आवाज में कहते हैं और उनकी रेटिंग के बारे में पता है तुम्हें? मैं कहती हूँ मैं जानती हूँ नयी लकीरें खींचने की जिद भी और दिक्कत भी।

शुक्रिया रवीश। रहे सलामत यूँ ही पागलपन! 


Tuesday, March 19, 2013

युद्ध


जीवन जैसा वो है उसे वैसा स्वीकार करने से बड़ी आपदा कोई नहीं. हालांकि हर समझदार व्यक्ति यही सलाह देता है कि जीवन के सत्य को स्वीकार करो. शांति तभी संभव है. तो भाई, शांति नहीं चाहिए. आप समझदार, ज्ञानी लोग अपनी शांति अपने पास ही रख लो. हम तो मूरख, अज्ञानी ही भले. क्योंकि जीवन जैसा वो है वैसा मुझे स्वीकार नहीं. संभवतः यही वजह है कि युद्ध मुझे पसंद हैं. प्रतिरोध पसंद हैं.

युद्ध वो नहीं जो सीमा पर लड़े जाते हैं. युद्ध वो जो अपने भीतर लड़े जाते हैं. जिसमें किसी का बेटा, किसी का भाई किसी का पिता या किसी का प्रेमी शहीद नही होते बल्कि जिसमें हर पल हम खुद घायल होते हैं और अक्सर शहीद होने से खुद को बचा लेते हैं.

शांति , सुख, नींद, चैन ये सब बेहद उबाऊ शब्द हैं. इनमें जीवन नहीं है. इनमें जीवन युद्ध का विराम है बस. अल्पविराम. जिसके बाद उठकर वापस मोर्चे पर डटना है. जाने क्यों लड़ती रहती हूं हर पल. किससे लड़ती रहती हूं आखिर. खुद से ही शायद . अपनी ही शांति  को खुरचते हुए राहत पाती हूं. भीतर की तड़प, बेचैनी, उनसे बाहर आने की जिद, जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार न करने की जिद जीवन में होने के संकेत हैं. जितना भीषण युद्ध उतना सघन जीवन.


Monday, March 4, 2013

विनम्रता भी एक किस्म का अहंकार है...


'आप में अहंकार बहुत है,' उसने अपनी मजबूत आवाज में कहा था। मेरी आंखें भर आई थीं। मैंने अपना चेहरा उठाया और उसके चेहरे को पढ़ने की कोशश की कि वो जो कह रहा है उसमें सच कितना है। हालांकि उसकी आवाज में सच घुला हुआ था।

उसके जाने के बाद उसके कहे का हाथ थामे घंटों खड़ी रही। 'आप में अहंकार बहुत है।' इसके पहले तो लोग मुझे विनम्र, मदुभाषी, सहज, संकोची कहते थे। अहंकार...ऐसा तो किसी ने कभी नहीं कहा। बहुत सोचा फिर भी ध्यान नहीं आया कि किसी ने ऐसा कहा हो। खुद आत्ममंथन किया कि ऐसी कौन सी बात है, जिसके चलते उसने मुझे अहंकारी कहा होगा। मैं तो सबकी सुनती हूं। अपनी गलती मान लेती हूं। खुद को कमतर ही समझती हूं। कभी सोचा ही नहीं कि मुझे कुछ आता भी है। हर किसी से सीखने को उत्सुक। इन सबमें अहंकार कहां है....और अचानक हंसी आ गई। इस बात को कबसे सर पे उठाये घूम रही हूं...अपनी ही पड़ताल में उलझी हूं। यानी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही हूं कि मुझमें अहंकार है। यह स्वीकार न कर पाना है क्या? अहंकार ही तो है। अपनी सहजता, विनम्रता वगैरह का गुमान।

मेरे उस दोस्त ने ठीक ही कहा था कि विनम्रता भी एक किस्म का अहंकार है। समाज जिन्हें सद्गुण कहता है, उन्हें अपने ही हिसाब से परिभाशित करता है। ऐसा होना अच्छा है वैसा होना बुरा है। सबका ख्याल रखना, ठीक से बात करना, बड़ों का सम्मान करना, छोटों से प्यार करना, वर्ग, जाति, धर्म भेद की दीवारों को लांघकर एक इंसान होने की ओर अग्रसर होना। इन बातों को हम गंभीरता से समझते हैं और धारण करने की ओर अग्रसर भी होते हैं। धीरे-धीरे हमारे भीतर चेतन या अवचेतन में हमारे खुद के बेहतर होने की बात जमा होने लगती है। अपने इस बेहतर होने के गुमान को हम सुबह षाम पानी देते हैं, पालते पोसते हैं। मैं तो सबका भला करता हूं। किसी का कभी अहित नहीं किया। अपने हिस्से की रोटी भी दूसरों को खिला देता हूं. मुझमें कैसा अहंकार...यह जो 'मैं' है...असल जड़ यही है कम्बख्त! हम कितने ही विनयी, मधुर, दयालु हो लें 'मैं' नहीं छूटता. यही अहंकार है।

(उसने एक बात और कही थी कि सद्गुण धारकों में जितना अहंकार होता है उतना अवगुण धारकों में नहीं होता।  इस बारे में कभी और )

अपने उस दोस्त की शु क्रगुजार हूं कि उसने मुझे मेरे अहंकार से परिचित कराया। परिचित होने के बाद इस अहंकार का मैं क्या करूंगी, क्या नहीं यह तो नहीं जानती लेकिन खुद के एक सच से वाकिफ तो हुई। अब मैं खुले मन से स्वीकार करती हूं कि हां, है मुझमें थोड़ा सा अहंकार क्योंकि मुझमें मेरा 'मैं' बाकी है अभी।

'मैं' को त्यागना आसान नहीं लेकिन 'मैं' को पाना भी आसान नहीं। अपने होने को महसूस करना, उसे इस दुनिया से बचाकर सहेज कर रखना। अभी मैं किस तरह त्यागूं अपना 'मैं' कि अभी तो इसे दबाये, छुपाये किसी तरह बचाने की ही जद्दोजेहद में उलझी हूं। एक जिद सी है कि खुद को मरने नहीं दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए....और ये मेरा अहंकार है तो है...
जरूर इस अहंकार से मुक्त होना चाहूंगी एक दिन लेकिन उसके पहले अपने होने को जी तो लूं जरा।

Wednesday, February 27, 2013

किसी कविता में नहीं इतनी छांव....



किसी क्रान्ति में नहीं इतनी शान्ति
कि समा ले अपने सीने में
जमाने भर का अवसाद
मिटा दे शोषण की लंबी दास्तानों के
अंतिम नामोनिशां तक

किसी युद्ध में नहीं इतना वैभव
कि जीत के जश्न से
धो सके लहू के निशान
बच्चों, विधवाओं और बूढ़े मां-बाप
की आंखों में बो सके उम्मीदें

किसी आन्दोलन में
नहीं इतनी ताकत जो बदल दे
लोगों के जीने का ढंग
और सचमुच
वे छोड़ ही दें आरामपरस्ती

किसी गांधी, किसी बुद्ध के पास
नहीं कोई दर्शन
जो टकरा सके जीडीपी ग्रोथ से
और कर सके सामना
सरकारी तिलिस्म का

किसी शायरी में नहीं इतना कौल
कि सुनकर कोई शेर
सचमुच भूल ही जायें
बच्चे पेट की भूख
और नौजवान रोजगार की चाह

किसी अखबार में नहीं खबर
जो कॉलम की बंदरबाट और
डिस्प्ले की लड़ाई से आगे
भी रच सके अपना वितान

किसी प्रेम में नहीं इतनी ताब
कि दिल धड़कने से पहले
सुन सके महबूब के दिल की सदा
और उसके सीने में फूंक सके अहसास
कि मैं हूं...

किसी पीपल, किसी बरगद के नीचे
नहीं है कोई ज्ञान
कि उसका रिश्ता तो बस
भूख और रोटी का सा है

किसी कविता में नहीं इतनी छांव
कि सदियों से जलते जिस्मों
और छलनी पांवों पर
रख सके ठंडे फाहे
गला दे सारे $गम...

जानते हुए ऐसी बहुत सी बातें
खारिज करती हूं अपना पिछला जाना-बूझा सब
और टिकाती हूं उम्मीद के कांधों पर
अपनी उनींदी आंखें...

Sunday, February 24, 2013

और अब तय करने को दूरियां भी नहीं...


मैं अपने मौन से थोड़ी दूरी बना लेती हूँ। खिसक के जरा दूर जा बैठती हूँ। किसी कहकहे का हाथ पकडती हूँ, किसी अनकहे की ऊँगली थामती हूँ। लेकिन थोड़ी ही देर में मैं खुद को मौन के ही करीब पाती हूँ। मैंने दूर जाने के बारे में सोचा था या मैं सचमुच गयी थी। कई बार ऐसा लगता है कि हम जो करना चाहते हैं, दरअसल उस चाहने को ही जीने लगते हैं। हमें लगता है कि हम वही जी रहे हैं जो हम चाह रहे हैं। लेकिन चाहना जीना तो होता नहीं है। जीने के लिए जीना ही पड़ता है। बाकायदा। तो मैंने मौन से दूरी बनाई भी है या की सिर्फ ऐसा करने के बारे में सोचा है। शायद सोचा ही होगा तभी तो दूरी बनी नहीं। खुद पे हंसी आती है। चेतन और अचेतन सब आपस में उलझ गया है।

मैं अपनी ही जगह पर खड़ी हो जाती हूँ। सामने खूब सरे फूल हैं, पेड़ हैं, वो पेड़ जिन पर गर्मियों में लीचियां इस कदर लदी होती हैं कि पत्तियां नज़र नहीं आतीं। उन पेड़ों पर तोतों का खेल जारी है। बहुत सारी चिड़ियाँ हैं। कई दिनों बरसने के बाद आज मौसम खुला है सो पंछियों का खेल भी उठान पर है। बादलों की भी आवाजाही जारी है। ये सब देखते हुए मैं खुद को बता रही हूँ कि मैंने मौन से दूरी बना ली है , इस बार सच में। लेकिन जैसे ही पलट के देखती हूँ मेरा ये ख्याल मुझ पर ही हँसता है। मौन , मेरा मौन मेरे ठीक पीछे खड़ा था। मेरे दुपट्टे को पकडे हुए। तो क्या फिर से मैंने दूरी के बारे में सोचा था, फासला तय नहीं किया था। आजकल ऐसा बहुत होने लगा है। जो सोचती हूँ लगता है वही कर रही हूँ। हालाँकि जो करती हूँ उसके बारे में सोचने का वक़्त भी नहीं होता। मैं उससे आँख मिलाती हूँ। उसकी आंखों में मासूमियत है। वो समझता क्यों नहीं। मैं चुप रहते रहते थक गयी हूँ। बोलना चाहती हूँ।

मेरे पास भी तो एक भाषा है। तुम्हें तो आती है वो भाषा फिर तुम किस भाषा में बोलना चाहती हो, मौन की आँखों में सवाल उभरते हैं।

मैं हँसना चाहती हूँ , बेवजह बक बक करना चाहती हूँ, चिल्लाना चाहती हूँ, अनजाने रास्तों पे चलना चाहती हूँ, खो जाना चाहती हूँ। अपने गले से अपना नाम उतारकर फेंक देना चाहती हूँ , अपने चेहरे से अपना चेहरा पोंछ देना चाहती हूँ। मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ। तुम जाने दो न ...प्लीज़।
ठीक है। मौन सर झुका लेता है। वो दूरियां जो हम दोनों को तय करनी थीं और जिन्हें अब तक मैं अकेले तय कर रही थी अब वो भी तय करने लगा था। अब ये सोचना नहीं था, सचमुच होना था।

वही बादल हैं, वही मौसम, वही पंछी, वही संगीत लेकिन कहने को कुछ है ही नहीं। उसके जाने के बाद समझ में आया कि असल में मैं मौन में ही खिलती थी। उसके जाने के बाद आसपास शब्दों का जंगल है। बोलती रहती हूँ बेवजह कितना कुछ, हंसती रहती हूँ देर तक, रास्तों में भटकती रहती हूँ, मंजिलों से झगडती रहती हूँ लेकिन सब अर्थहीन।

बोलना कभी आया ही नहीं था मौन से भी दूरी बना ली। वो कहीं आस पास ही होगा शायद बार बार दरवाजे की ओर देखती हूँ दूर दूर तक कोई नहीं, मेरे पास शब्दों का एक ढेर है और अब तय करने को दूरियां भी नहीं।

Saturday, February 23, 2013

कभी अपने आप नूं पढ्या ही नहीं...


दिमाग के कमरे में किताबों का एक ढेर है। बायोडाटा में न जाने कितनी डिग्रियां दर्ज हैं। जिंदगी कहां दर्ज है याद नहीं। कभी-कभी किन्हीं लम्हों में जिंदगी हमें छूकर गुजरती है। हम चौंककर खुद को टटोलते हैं। त्वचा पर कुछ रेंगता हुआ सा महसूस होता है। अहसास...कि अभी मरे नहीं, जिंदा हैं हम। इस अहसास का दिमाग के कमरे में दर्ज किताबों और ढेर सारे ज्ञान से कोई सरोकार नहीं होता। वो लम्हा हमें हमारे पास ले आता है। ऐसा ही कोई एक लम्हा था जब 14 फरवरी यानी बसंत पंचमी के ठीक एक दिन पहले एक शाम राजस्थान के मिरासी गायक मुख्तियार अली की उंगली थामे अजीम प्रेमजी फाउंडेशन देहरादून के आंगन में दाखिल हुई थी। उस शाम के आंचल में यमन, दुर्गा, भूप, तिलक कामोद, दरबारी जैसे न जाने कितने राग थे। मुख्तियार जी ने मुस्कुराकर शाम को देखा और सुर साधा हरि मौला...ऐसा सधा हुआ आलाप कि रगों में दौड़ता हुआ लहू भी ठहरकर सुनने लगा हो जैसा। आंखें भर-भर आ रही थीं। हवाओं ने, फिजाओं ने, लहलहाती सरसों ने कुदरत के हर रंग ने मानो दम साध लिया था।

हरि मौला, हरि मौला...हरि मौला...आलाप...आलाप...आलाप...जैसे-जैसे सुर बढ़ते, चढ़ते हम खुद से छूटते जाते। जिंदगी का आलाप सधता नहीं लेकिन ये आलाप जिंदगी को साधने को व्याकुल था।

किताबों में दर्ज अल्फाजों ने जिन बातों को कहने में न जाने कितनी सदियों का सफर तय किया, न जाने कितनी मशक्कत हुई उन अल्फाजों का तर्जुमान जिंदगी में उड़ेल देने की फिर भी पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले अक्सर मूढ़ ही साबित हुए। उन्हीं बातों को जब सुरों की संगत मिली और एक गंवई लोक गायक की प्यार में डूबी और सुरों में कसी हुई आवाज़ मिली तो लगा हां, यही है श्रेष्ठतम पैडागाजी।

पढ़-पढ़ आलम फाज़ल बन्या, कभी अपने आप नूं पढ्या ही नहीं...कबीर हों या बाबा बुल्लेशाह बात वही दुनिया की किताबें बाद में पढ़ना पहले अपने दिल के भीतर जाकर अपना आप तो पढ़ो। मुख्तियार भाई की झोली में कबीर ही कबीर थे। ये फकीर कबीर को गाता नहीं, जीता है। उन्हें सुनते हुए लगा कि जैसे हीर सुनने के लिए हीर होना पड़ता है वैसे ही शायद कबीर को सुनने के लिए, महसूस करने के लिए कबीर होना पड़ता है। मुख्तियार जी ने ज्ञान की डिग्रियों का मुंह नहीं देखा बस कबीर हो गये।

कबीर कबीर क्यों करे, सोचो आप शरीर
पांचों इंद्रिय वश करो, आपहु दास कबीर...

वो एक-एक दोहे से जैसे हमारे जेहन जमा तमाम विकारों को साफ कर रहे थे। माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय, इक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंदूंगी तोय...कितनी सदियों से ये दोहा हमारे साथ है...पीढ़ी दर पीढ़ी। लेकिन कितना समझ पाये हम इसके सत्व को।

जानना....समझना...महसूस करना और आत्मसात् करना....ये महज शब्द नहीं हैं। अगर हम अपने महसूस किये को आत्मसात कर पाते हैं तो समझने के अर्थ को सहारा मिलता है और जानने की लाज रह जाती है। लेकिन अक्सर हम जानने में ही अटके रह जाते हैं। शायद इसीलिए बहुत कुछ जानने के बाद भी दूर ही रह जाते हैं जिंदगी से।

रागी जो सुनाए राग, रोगी को मिले आराम....सचमुच आराम ही आराम। रूह के घायल पड़े न जाने कितने कोनों को सुकून बख्श रही थी वो आवाज। जैसे मन के सीलन भरे कमरे का दरवाजा खुल गया हो और उस पर किसी ने अंजुरियों से भर-भर के धूप उलीच दी हो।

प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय...दुनिया न जाने किस प्रेम के उत्सव की बात करती है। बाजार जाने किसलिए बौराया फिरता है। जबकि आत्मा रूपी दुल्हन अपने परमात्मा रूपी प्रेमी से मिलने को गोरी कलाइयों में हरी-हरी चूडि़यां पहने इठलाती घूम रही है। यही तो है पे्रम का श्रेश्ठतम रूप, महामिलन। जिसके लिए जाने कितने संत, ज्ञानी वन-वन भटके।

जिस प्रीतम बावरे ने एक नज़र में छाप तिलक सब छीनी उसके उसे किस मंदिर, किस मस्जिद में तलाशूं भला। वो प्रीतम तो चारों पहर दिल में ही बसा है। जिस दिल में ऐसा घना प्रेम बसता हो वहां कैसे भला, ईर्ष्या, वासना, अहंकार, मोह आदि की जगह बचेगी।

किस खुदा, किस ईश्वर के लिए हम मंदिर मस्जिद के चक्कर लगाते फिरते हैं जबकि वो तो हमारे ही भीतर ही है।

कब मंदिर से मस्जिद लड़ती, कब गीता से कुरान
लोग रोटियां सेंक रहे लेकर इनका नाम...

कबीर को तो इन सबसे कोई सरोकार ही नहीं था। वो तो जिंदगी का हाथ थामता फिरता था। विचार जब सुरों में सहेज लिये जाते हैं तो उनकी तासीर कई गुना बढ़ जाती है। जाने कहां चली जाती है दुनियादारी कि औघड़ ही हो उठता है मन।

प्रेम की, ज्ञान की प्यास जगाने के बाद मुख्तियार जी ने प्रेमवटी का ऐसा मदवा पिलाया कि दुनिया झूम उठी...चौथ का चांद उनकी आवाज के सजदे में झुककर धरती के थोड़ा और करीब आ गया था।

Wednesday, February 13, 2013

और यूँ भी नहीं कि वक़्त नहीं है...


लम्बे समय से एक अजीब दुविधा में हूँ। यूँ तो दुविधा हमेशा ही रहती है लेकिन इन दिनों कुछ ज्यादा ही। ये दुविधा ऐसी है कि लगता है मेरे शब्दों में से अर्थ गायब हो गए हैं। यानि कुछ कह पाने की रही बची उम्मीद भी जाती रही। कह के कहना कभी आया ही नहीं था, थोडा बहुत लिखके कहने की कोशिश होती थी वो भी लगातार कम होती जा रही है। लेकिन ये कोई अजीब बात नहीं। न ही इस बात का कोई दुःख है। अजीब बात तो ये है कि बहुत शांति है इन दिनों। हालाँकि व्यस्तता बहुत है, ऐसा आजकल कहती हूँ सबसे।

न जाने कितनी मिस कॉल पड़ी हैं, कितने मैसेज जिनके जवाब नहीं दिए गए, कितने लोग होल्ड पर इंतजार कर रहे हैं , कितनी किताबों के खुले पन्ने मेरे वापिस लौटने का इंतजार करते-करते ऊंघने लगे हैं। कितनी बातें दिमाग में चल रही हैं, एक साथ। सिरहाने समीछा के लिए भेजी गयी किताबों का ढेर है, सामने उन किताबों का इंतजार जिन्हें मैं कबसे पढना चाहती हूँ। सबको एक ही जवाब देती हूँ की रुको, अभी घनी व्यस्तता है। लेकिन ये जवाब खुद को नहीं दे पाती। जाने क्यों लगता है कि व्यस्तता नहीं है ये, बचाव है। इन व्यस्तताओं में ढँक मूँद को खुद को रख दिया है। सच कहूं तो लगता है सबसे ज्यादा फुर्सत है इन दिनों। दिमाग शांत है और अमावस का चाँद भी हथेलियों में एक टुकड़ा नींद का दबा देता है चुपके से।

व्यस्त होने के लिए बहुत काम का होना तो सिर्फ बहाना है, असल में घनघोर व्यस्तताओं को भी अपने खालीपन से रौंदा जा सकता है।
(तस्वीर- साभार गूगल)

Thursday, February 7, 2013

रोने के लिए आत्मा को निचोड़ना पड़ता है...


तुमने रोना भी नहीं सीखा ठीक से
ऐसे उदास होकर भी कोई रोता है क्या

यूँ बूँद-बूँद आँखों से बरसना भी
कोई रोना है
तुम इसे दुःख कहते हो
न, ये दुःख नहीं
रोने के लिए आत्मा को निचोड़ना पड़ता है
लगातार खुरचना पड़ता है
सबसे नाजुक घावों को
मुस्कुराहटों में घोलना पड़ता है
आंसुओं का नमक

रोने के लिए आंसू बहाना काफी नहीं
आप चाहें तो प्रकृति से सांठ-गांठ कर सकते है
बादलों को दे सकते हैं उदासिया
फूलों की जड़ों में छुपा सकते हैं अवसाद
कि वो खिलकर इजाफा ही करें दुनिया के सौन्दर्य में
धरती के सीने से लिपटकर साझा कर सकते हैं
अपने भीतर की नमी
या आप चाहें तो समंदर की लहरों से झगडा भी कर सकते हैं
निराशा के बीहड़ जंगल में कहीं रोप सकते हैं
उम्मीद का एक पौधा

रोना वो नहीं जो आँख से टपक जाता है
रोना वो है जो सांस-सांस जज्ब होता है
अरे दोस्त, रोने की वजहों पर मत जाओ
तरीके पर जाओ
सीखो रोना इस तरह कि
दुनिया खुशहाल हो जाये
और आप मुस्कुराएँ अपने रोने पर...

(अनंत गंगोला जी के लिए)

Monday, February 4, 2013

अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....




उम्र का सोलहवां साल
उसने उठाकर
आँगन वाले ऊंचे आले में रख दिया था.
गले में बस माँ की स्मर्तियों में दर्ज बचपन
और स्कूल के रजिस्टर में चढ़ी उम्र पहनी

कभी कोई नहीं जान पाया
उम्र उस लम्बे इंतजार की
जो आँखों में पहनकर
ना जाने कितनी सदियों से
धरती की परिक्रमा कर रही है एक स्त्री
और संचित कर रही है
कभी गंगा, कभी वोल्गा, कभी टेम्स
नदी का पानी अपने इंतजार की मशक के भीतर

उसने कभी जिक्र ही नहीं किया
अपनी देह पर पड़े नीले निशानों की उम्र का
दुनिया के किसी भी देश की आज़ादी ने
किसी भी हुकूमत ने
नहीं गिने साल उन नीले निशानों के
उन नीले निशानों पर
अपनी विजयी पताकाएं ही फहरायी सबने

सुबह से लेकर देर रात तक
कभी दफ्तर कभी रसोई कभी बिस्तर पर
एक दिन में बरसों का सफ़र तय करते हुए
वो भूल ही चुकी है कि
ज़िंदगी की दीवार पर लगे कैलेण्डर को बदले
ना जाने कितने बरस हुए
कौन लगा पायेगा पांव की बिवाइयों की उम्र का अंदाजा
और बता पायेगा सही उम्र उस स्त्री की
जिसने धरती की तरह बस गोल-गोल घूमना ही सीखा है
रुकना नहीं जाना अब तक

मुस्कुराहटों के भीतर गोता लगाना आसान है शायद
मत खाईयेगा धोखा उसकी त्वचा पर पड़ी झुरियों से
उसके सांवले रंग और
बालों में आई सफेदी से
कि आँगन के सबसे ऊंचे वाले आले से उतारकर
अभी- अभी उसने पहनी है उम्र सोलह की....



Monday, January 28, 2013

आपन गीत हम लिखब...



अब अपनी बात हम खुद लिखेंगे
जैसे चाहेंगे वैसे जियेंगे
न जी पायेंगे अगर मर्जी के मुताबिक, न सही
तो उस न जी पाने की वजह ही लिखेंगे,
हम खुद लिखेंगे चूल्हे का धुआं
सर का आंचल, और बटोही में पकती दाल के बीच
नन्हे के पिपियाने की आवाज और
ममता को ठिकाने लगाकर भूखे बच्चे को पीट देने की वेदना
हम खुद लिखेंगे अपनी उगार्इ फसलों की खुशबू
और कम कीमत पर उसके बिक पाने की तकलीफ भी.
यह भी कि निपटाते हुए घर के सारे काम
कैसे छूट ही जाता है हर किसी का कुछ काम
और देर हो ही जाती है आए दिन आफिस जाने की
कि हर जगह सब कुछ ठीक से जमा पाने की जिद में
कुछ भी ठीक न हो पाने की पीड़ा भी हम ही लिखेंगे
लिखेंगे हम खुद कि जिंदगी के रास्तों पर दौड़ते-दौड़ते भी
चुभती हैं स्मतियों की पगडंडियों पर छूट गर्इ परछार्इयां
और मुस्कुराहटों के पीछे कितनी चीखें छुपी हैं
न सही सुंदर, न सही इतिहास में दर्ज होने लायक
न सही भद्रजनों की बिरादरी में पढ़े-सुने देखे जाने लायक
फिर भी हम खुद ही लिखेंगे अपने बारे में अब सब
और खुद ही करेंगे अपने हस्ताक्षर अपनी रचनाओं पर


यह कविताओं की बात नहीं है. यह जीवन की बात है. हम औरतों के जीवन की बात है. हम औरतें जिन्होंने कभी कुछ कहना नहीं सीखा बावजूद इसके कि हम बोलती बहुत हैं. कमर और पीठ के दर्द से कराहते हुए भी कोर्इ हमसे पूछे कि कैसी हो गुडडन की अम्मा तो हम चिहुंक के जवाब देती हैं मजे में हैं...

न जाने कितनी सदियों से हमें किसी विषय सा देखा गया. हमारे बारे में लिखा गया. लिखा गया हमारा भोगा हुआ सच इतने सुंदर ढंग से कि हमें लगा कि हम खुद के ही सच से अनजान थे अब तक तो. लिखने वालों को आता था हमारी संवेदनाओं की उन पर्तों तक पहुंच पाना जहां अक्सर हम खुद ही नहीं पहुंच पाते थे, या कभी पहुंच पाते थे तो हमारे हाथ पांव थक चुके होते थे और जेहन बेहाल कि कुछ सोचने का मन भी नहीं करता था. हम अपनी जिंदगी के पन्नों से खुद को बेदखल करने में ही आसानी पाते थे. या सच कहें तो कहां फुर्सत थी हमें अपनी बिंवाइयों की ओर देखने की या माथे पर उभर आयी सलवटों को टटोलने की. कब था वक्त हमारे पास कि अपने आंसुओं का स्वाद चख भी सकें और पन्नों पर रख भी सकें. सदियों से हमने बस चलते जाना सीखा और सीखा मुस्कुराना जीवन जैसा भी मिला उसे जीना. शिकायत करने के लिए हमने गढ़ लिये भगवान और अपने सर पर जमा लिया व्रतों उपवासों का ठीकरा. कि भूखे पेट में भी हमने अपने लिए भूख का ही रास्ता चुना र्इश्वर तक पहुंचने का और नंगे पैरों के लिए चुना जलती दोपहरों में नंगे पांव रेगिस्तान पार करने की तरकीब. सुना था कि खुद को तड़पाने से कम होते हैं दिल के टूटने के जख्म और मिट जाते हैं जिंदगी से सारे गिले.

हमने न लिखना सीखा न पढ़ना, हमने तो बस जीवन को सर पर उठाया और भटकते फिरे इस गली से उस गली. इन्हीं गलियों से भटकते हुए कहीं कोर्इ मुसाफिर टकराया तो हम मुस्कुरा दिये. उस मुसाफिर को लोगों ने कवि कहा. उस कवि ने हमारी मुस्कुराहटों के भीतर के छेद का भेद पा लिया. उसने उसी भेद को लिखा, लिखा कि जीवन मुशिकल है सित्रयों का कि वो छुपाये रहती हैं आंचल में दूध और अांखों में पानी कि किसी ने अंगार देखे आंखों में तो दर्ज किया कि हिम्मत की ऐसी मिसाल न देखी न सुनी. पूरी दुनिया को सित्रयों की दुनिया में दिलचस्पी हुर्इ और कविताओं की फसल लहलहाने लगी. पूरी दुनिया में सित्रयों के जीवन के पन्ने लिखे जाने लगे. लिखे जाने लगे उनकी आंखों के आंसू और होठों की मुस्कान. रूस हो या जर्मनी, अमेरिका हो या अफ्रीका दुनिया के हर देश में सित्रयों पर कविताओं की बाढ आने लगी. कहीं सौंदर्य की अपरिमित परिभाषाएं कहीं वेदना के करूण स्वर.

हम पर लिखने वाले हमारे शुभचिंतक थे. वो हमारी दुनिया के दुख, दर्द, आंसू और मुस्कान सामने लाना चाहते थे. वो हमारा हाथ थामकर हमें अवसाद के अंधेरों से मुक्त करना चाहते थे. हम उन्हें उत्सुकता से देख रहे थे. उनके उस लिखे में खुद को देख रहे थे जो उन्होंने हमसे जानकर हमारे लिए लिखा था.

हम आभार से भर उठे. लगा कोर्इ तो है जिसने हमें हमसे भी ज्यादा जाना. जिसने हमारी सांसों के भार को जस का तस उतार दिया और उस दर्द को भी जिसे सीने से लगाये हमें आदत सी हो चली थी वैसे ही जीने की. सूरज की रोशनी को माथे पर हमने कभी रखा ही नहीं उसे हमेशा दूसरे का हिस्सा जानकर, मानकर ही खुश रहे. खुश रहे दूसरों के लिए छांव बुनने और अपने लिए धूप चुनने को ही माना अपने हिस्से का सच. हमारा यही सच बना दुनिया भर के कवियों के लिए औषधि. हम विषय बने और हमारी दुनिया के दरवाजे कविताओं के मार्फत खुलने लगे.

एक रोज साफ-सफार्इ, झाड़ू बुहारन करते-करते कलम हमारे हाथ भी आ गर्इ. उसे छूकर देखा तो जुंबिश महसूस हुर्इ. कागज पर फिराया तो कुछ शब्द जी उठे. हम घबरा गर्इं. ये क्या होने लगा. भला हम कैसे लिख सकते हैं कुछ भी. अपना ही लिखा समेटकर छुपा दिया. डर के मारे पसीना आ गया हमें. किसी ने देख लिया तो? नहीं...नहीं...हमने तो कुछ भी नहीं लिखा. हम क्या जानें लिखना पढ़ना. लोगों को ही हक है हम पर लिखने का, हमारे बारे में लिखने का. ये अक्षरों का जादू था या हमारे भीतर पड़े अंकुर कि कलम हमें लुभाने लगी और जब-तब हम कुछ लिखने लगे. नहीं पता था कि वो कविता है भी या नहीं बस इतना पता था कि हमने अपने बारे में कुछ खुद लिखा था. पहली बार. पूछा नहीं था किसी से, महसूस किया था. कुछ आड़ी-टेढ़ी इबारतें थीं कुछ लेकिन उनमें हमारा भोगा हुआ सच सांस ले रहा था. लिखना कोर्इ डाइनिंग टेबल पर रखा फल नहीं था हमारे लिए कि उठाया और खा लिया. दूर किसी बीहड़ की यात्रा के बाद न जाने कितने कांटों मेंं आंचल उलझाने के बाद, लहूलुहान देह को संभालते हुए किसी फल के पास पहुंचने जैसा था ये. ये था वैसा ही जैसे सदियों की प्यास को होठों पर सजाकर तपती दोपहरों में रेत के धारे पार किये जाएं. हमारे शब्दों में रूमानियत कम रूखापन ज्यादा आया. हमने अपने आपको सौंदर्य की उपमाओं से पार किया और जीवन के सख्त सौंदर्य को रचा. रचा हमने अपना संसार. अपनी ख्वाहिशों का संसार.

ये सफर आसान नहीं था हमारे लिए. चूल्हे पर जलती रोटियों के बीच, बीमार बच्चे के माथे पर पटटियां बदलते हुए, भागकर पकड़ते हुए सिटी बस, बास की डांट खाने के बाद मुस्कुराते हुए कस्टमर डील करते हुए लिखने का सफर आसान नहीं था लेकिन यकीन मानिए राहत भरा था. जब रोने का होता था मन तो हम आंसू लिखने लगे और जब खुश हुआ दिल का कोर्इ कोना तो दुपटटा झटककर हमने आसमान से सारी खुशियों को धरती पर झाड़ लिया. लिख लिया धरती का हर कोना अपने नाम और आसमान को झुका लिया कदमों में. अब हम मुस्कुराने लगे कि अब हम खुद लिख रहे थे अपना ही सच. झाड़कर दुनिया की तमाम कड़वाहटें हमने मुस्कुराहटें लिखीं. हमने अपने संघर्ष लिखे. नहीं...हमारा लिखना सिर्फ हमारे इर्द-गिर्द भर सिमटा नहीं रहा. हमने देश दुनिया समाज को अपनी नजर से देखा, सुना, समझा, जाना और महसूस किया. हमारे लिखे ने हमेंं कारावासों का रास्ता दिखाया. हमें देश से निष्कासन मिला, समाज से बहिष्कार मिला. ये हमारी ताकत थी कि हमारे लिखे से खतरा महसूस होने लगा देश, दुनिया, समाज को.

उन लोगों को भी जिन्होंने हमारे हितैषी होने का भ्रम देकर हमें लिखने को उत्साहित किया था. उन्होंने हमें हौसला दिया और दिशा भी, निर्देश भी. प्रोत्साहन भी और प्रशंसाएं भी. कि अचानक हमें बिठाया जाने लगा सफलताओं के नये-नये आसमानों पर कि हमने अपना सच कहना सीख लिया है. वो हमारे मसीहा थे जिन्होंने अपने कंधों पर हमारे लिखे को उठा रखा था.

हमने लिखना ही नहीं पढ़ना भी सीख लिया था. हमें खुद दिशाबोध होने लगा. हमें निर्देशों की जरूरत नहीं रही. न इसकी कि कोर्इ बताये कि कैसी कविता अच्छी होती है कैसी बुरी. किस तरह लिखा जाए तो वो श्रेष्ठ कहलायेगा और किस तरह का लिखा कूड़ा कहलायेगा. हमने सोचा अगर सारे ही लोग मानेंगे निर्देश तो सिर्फ अच्छी कविताएं ही लिखी जायेंगी और सिर्फ श्रेष्ठ कवियों का ही जन्म होगा. तो क्यों न तोड़ी जाए आचार संहिता और लिखा जाए नया विधान. कि न सही मेरी कविता में दुनिया को बदलने का माददा, न छापे कोर्इ साहित्य संपादक इसे अपनी प्रतिषिठत पत्रिका में, न मिले कोर्इ वाहवाही और पुरस्कार कि ये सब आप ही रख लो सरकार कि हमें तो बस लिखने दो वो सब जो हम लिखना चाहते हैं. टूटते हैं कविता के मापदंड तो टूटने दो, हम सजा भुगतने को तैयार हैं. सित्रयों की कूड़ा कविताओं का दौर रख देना इस दौर का नाम फिर भी लिखना है हमें अपनी जिंदगी का पूरा सच. नहीं बनाना लिखते वक्त किसी को प्रेम का देवता न ढांकनी ही किसी सियासतदां की काली करतूत. जानते हैं हम हमारी दुनिया में अब किसी के निर्देशों की जगह नहीं बची. हम अभय हुए हैं. डरते नहीं किसी से. न आलोचना से बुरा लगता है हमें न प्रशंसाओं से इतराते फिरते हैं हम. अरे, प्रशंसाओं का भ्रामक धनुष तो सीता स्वयंवर से भी पहले ही तोड़ दिया था हमने.

हमारा ये बेखौफ होना कैसे रास आता भला इस दुनिया को. नर्इ चौसर बिछार्इ गर्इ. नर्इ बिसात. नये नियम. बड़े मोहब्बत से हमें समझाया गया कि कविता लिखना बहुत जोखिम का काम है. इंसान इतिहास में दर्ज होता है कविता लिखकर. चंद बड़े नामों को आंखों के सामने दर्ज किया गया. देखो, तुम भी ऐसे ही चमकोगी इतिहास में. कितना सुंदर लिखती हो तुम बस कि थोड़ा ध्यान रखो. भाषा अच्छी है बस जरा विचार को मोड़ो, भावों में जरा सा परिवर्तन करो, न ऐसे नहीं...वैसे लिखो फिर देखो कैसे तूफान आता है. सचमुच आने ही लगा तूफान. औरतों ने अब तूफानी गति से लिखना शुरू कर दिया है. हर कविता तूफान लाती है, वो तूफान जाता कहां है यह पूछना अभी बाकी है. दिशा निर्देशों की तालिका सूची टंगी हैं यहां वहां. लिखी जा रही हैं खूब सारी कविताएं हर रोज...लेकिन शायद ये वो कविताएं नहीं हैं जिनको लिखने के लिए पहली बार कलम थामी थी हाथ में. खुरदरी ही सही पर उनमें एक खुशबू थी जिसे दुनिया ने महसूस किया था. एक सच था जिससे समाज ने खतरा महसूस किया था लेकिन बहुत जल्द हमारी कलम रेशमी शब्दों से परिचित करा दी गर्इ. उसे वो रास्ते बता दिये गये जहां से होकर कविता लोकप्रियता की ओर बढ़ती है.

आज फेसबुक से लेकर ब्लाग, वेबसाइट, आरकुट हर जगह कविताओं की बाढ़ आर्इ हुर्इ है. ग्रहिणी हो या कामकाजी औरत, कंपनी की सीर्इओ हो या डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार हर कोर्इ अभिव्यकित के हथियार को हाथ में थामे है. हर कोर्इ लिख रहा है. उनका लिखना जितना सुंदर है उनके लिखने को निर्देशित करना उतना ही गलत लगता है मुझे. फूल को अपने ही ढंग से खिलने देने पर ही उसका असल सौंदर्य सामने आता है. आखिर किस खतरे के प्रति आशंकित है यह समाज कि अगर सित्रयां खुद अपनी मर्जी से अपने सफर पर चल पड़ेंगी तो क्या हो जायेगा...कहीं कोर्इ भूचाल नहीं आ जायेगा, बस कुछ सच सामने आयेंगे. आने दीजिए ना...मत भरमाइये हमें कि हम बिना पुरस्कारों के, बिना लोकप्रियता के ही भले. हम तो खुश हैं कि हमने सीख लिया है सच को सच और झूठ को झूठ लिखना. कितनी खलबली है आपके समाज में....

(अहा जिन्दगी के साहित्य विशेषांक में प्रकाशित)

Sunday, January 20, 2013

तुझसे नाराज नहीं जिन्दगी...


(दृश्य - एक सजा संवरा से कमरा है. हर चीज करीने से. एक टेबल और दो चेयर. टेबल पर अभी पीकर रखे गये चाय के कप के निशान हैं.)

जीवन- तुम हंसती क्यों रहती हो?
मत्यु- क्योंकि तुम रोते रहते हो.
जीवन- मैं कहां रोता हूं. मैं तो खुश रहता हूं.
मत्यु- तो मैं कहां हंसती हूं. मेरा तो स्वभाव ही है ऐसे दिखने का.
जीवन- तुम झूठ बोलती हो. तुम असल में हमारी लाचारगी का उपहास करती हो.
मत्यु- देखो, मैंने तुम्हें लाचार नहीं कहा, तुमने खुद कहा.
जीवन- मैंने कब कहा?
मत्यु- अरे, अभी...कहा ना
जीवन- ओ...हां. मैं तुमसे डरता हूं न जाने क्यों? उसी डर में रहता हूं.
मत्यु- मुझसे डरते हो. मुझसे? मैं ही तुम्हारा एकमात्र सत्य हूं. तुम्हें तो मुझे प्रेम करना चाहिए.
जीवन- अरे, नहीं चाहिए सत्य. तुम दूर रहो मुझसे. मैं खुश रहूंगा.
मत्यु- तो तुम्हें लगता है कि मेरे न रहने पर तुम खुश होगे.
जीवन- हां, एकदम.
मत्यु- तो ठीक है. मैं तुम्हारे पास नहीं आउंगी. कभी नहीं. चलो अब खुश हो जाओ.
जीवन- हम्म्म्म

कई बरस बाद
(दृश्य- एक वीरान सा आंगन. पतझड़ का मौसम. बरामदे से सटे उलझे हुए से कमरे में जिसे देखकर लगता है कि कभी वो बेहद करीने से रहा होगा में एक बिस्तर पर लेटा हुआ छत को ताकता एक बूढ़ा.)
जीवन- कबसे तुम्हारे इंतजार में हूं. तुम कहां हो. क्यों नहीं आतीं. मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं. हर पल तुम्हारे आने की आहटों पर कान लगाये बैठा हूं.
(पत्तो की सरसराहट की आवाज...)
जीवन - तुम आ गयीं...मुझे पता है तुम ही हो. बोलो न तुम आ गयीं ना?
नियति- तुम्हें किसका इंतजार है मालूम नहीं. ये तो मैं हूं हर पल तुम्हारे पास. तुम्हारी नियति. लो थोड़ा पानी पी लो.
जीवन- नहीं...नहीं पीना मुझे पानी. गुस्से में गिलास फेंक देता है. तुमसे नफरत है मुझे. चली जाओ यहां से.
नियति- हंसते हुए. मैं चली जाऊं? मैं ही तो हूं तुम्हारी नियति. मैं चली जाउंगी फिर...
जीवन- फिर क्या...तुम चली जाओगी तो सब ठीक हो जायेगा. मुझे मुक्ति मिल जायेगी.

(नियति जोर से हंसती है. तभी एक दूसरी खूबसूरत लड़की आकर नियति के करीब खड़ी हो जाती है. उसका नाम मुक्ति है. )

मुक्ति- क्या हुआ. तुम क्यों हंस रही हो?
नियति- अच्छा हुआ तुम आ गयीं. ये पड़ा है तुम्हारा आशिक. कहता है इसे मुक्ति चाहिए.
(मुक्ति जोर से हंसती है.)
मुक्ति- मैं जब भी इसके पास गई ये लोभ, मोह, माया, वासना में खुद को उलझाये बैठा मिला. आज इसे मुक्ति चाहिए.
(तभी किसी और के हंसने की आवाज आती है. एक और स्त्री का प्रवेश.)
मत्यु- हां, तुमसे ठीक पहले ये मेरी कामना कर रहा था. जबकि कई वर्ष पहले इसने मेरा तिरस्कार किया और कहा कि मैं इससे दूर रहूं.
नियति- यही इसका दोष है कि जब जो इसके पास है तब इसे वो नहीं चाहिए. जो है उसका तिरस्कार, जो नहीं है उसके पीछे भागना.
जीवन- मुझे मेरे दुखों से मुक्ति चाहिए. मैं दर्द से तड़प रहा हूं. मेरी मत्यु को बुलाओ कोई. मेरी देह को आराम मिले.

(तीनो नियति, मुक्ति और मत्यु मिलकर हंसती हैं. तभी किसी के जूतों की आहट होती है. एक सजीला नवयुवक प्रवेश करता है. वो सबको देखता है और मुस्कुराता है. तीनों उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखती हैं.)
लड़का- मैं यथार्थ हूं.
तीनों एक साथ- हुंह....
लड़का- देखो सच यही है कि अब इसके मुक्त होकर मत्यु के पास जाने का समय आ गया है. क्यों नियति?

(नियति ख़ामोशी से सर झुका लेती है. जीवन सबको बुझती हुई नजर से देखता है और यथार्थ की बांह पकड़ लेता है. उसकी आंखों में आंसू हैं. वो मत्यु का आलिंगन करके दर्द से मुक्ति चाहता है. नियति उसे दूर से देख रही है...तेज हवा का झोंका आता है और एक पत्ता टूटकर उड़ते हुए जीवन के करीब आकर गिरता है....)
परदा धीरे-धीरे गिरता है.

Saturday, January 19, 2013

जिंदगी सांस लेने का नाम है किसने कहा...


उसके आंसुओं में जो नमक था वो प्यार था. उसकी मुस्कुराहट में जो रुदन था वो कविता थी। उसकी कविता में जो धड़कता था वो दिल था, उसके दिल में जो छुप के रहती थी, वो जि़ंदगी थी...
वो कौन है...?
ये किसकी बात है?
वो हम हैं. ये हम सबकी बात है. 
जिंदगी सांस लेने का नाम है किसने कहा? जि़ंदगी तो हवा में उछाल दिये जाने वाले उन लम्हों का नाम है, जो उम्र भर हमें जिंदा होने के अहसास से भरते हैं
और कविता...?
वो क्या है...?
हमें हमारे होने के अहसास से जो चीज भरती है वो कविता ही तो है. एक ओर ये हमें हमारे और करीब ले आती है तो दूसरी ओर हमसे हमें ही मुक्त भी कराती है. जि़ंदगी और कविता साथ-साथ चलती हैं. एक के बगैर दूसरे का कोई अस्तित्व ही नहीं. हालांकि अक्सर हमें यह अहसास ही नहीं होता कि कविता हमारे इतने करीब रहती है. इतने करीब कि इसके होने से जिंदगी के मायने ही बदल जाते हैं. इतने करीब कि कभी आंसुओं को थाम लेती है गिरने से पहले और अनजाने पकड़ा जाती है मुस्कुराने की वजह. 
तू इतने पास है कि तुझे कैसे देखूं
जो जरा दूर हो तो तेरा चेहरा देखूं...
ऐसे ही रहती है कविता हमारे आसपास. उसके होने पर उसका होना महसूस भी नहीं होता लेकिन उसका न होना शिद्दत से महसूस होता है. लगता है जिंदगी मानो रूठ गई हो. 
कविता....और जिंदगी... एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. बच्चे के इस धरती पर जन्मे पहले रुदन का जो आलाप है, जो संगीत है, जो लय है वही तो है कविता...उसी लय का हाथ थाम हम जीवन के सफर पर निकलते हैं. दुनिया, समाज और ढेर सारी उठा-पटक के बीच कविता हमारे भीतर की नमी को बचाकर रखती है.
अक्सर लोग कहते हैं कविता हमें समझ में नहीं आती या हमारा कविता से कोई वास्ता नहीं है लेकिन ठीक उसी पल उनके होठों पर कोई धुन आकर खेलने लगती है. चुपके से कोई याद होठों पर मुस्कुराहट बनकर सज जाती है, उन्हें ये पता ही नहीं चलता कि यह सब कविता की ही कारस्तानी है. जिंदगी को महसूस करने की शिद्दत का नाम कविता है. 
कविता क्या वो होती है जो कागज पर कलम से लिखी जाती है. कुछ सुंदर शब्दों  का चयन, कोई आकार, कोई विचार और कविता...
नहीं...कविता हमेषा शब्दों पर बैठकर जि़ंदगी तक नहीं आती. वो चोर दरवाजों से दाखिल होती है हमारी जि़ंदगी में. 
पलटती हूं कागज तो अक्षर उड़ जाते हैं कई बार. दूर किसी पेड़ की फुनगी पर बैठकर मुंह चिढ़ाते हैं. हाथ बढ़ाओ तो हाथ नहीं आते...कभी हाथ आते भी हैं तो अर्थ वहीं टहनी पर छोड़ आते हैं. हां, कुछ षब्द जरूर कागज पर जगह घेर लेते हैं. कविता के डायनमिक्स, उसके मीटर, क़ाफिया, रदीफ सबमें परफेक्ट होने के बाद भी वो खेल करती है कई बार. अपने होने में अपना न होना छुपाकर छलती है कवि को और बेचैन करती है पाठक को कि पढ़ने के बाद भी पाठक खाली हाथ और लिखने के बाद भी लेखक बेचैन ही. किसी षरारती बच्चे सी लगती है कविता कभी-कभी कि तोड़ती है सारे नियम, भंग करती है सभ्यता के सारे कायदे, रौंदती है कोमलता के तारों को और घेरती है इतिहास में मजबूत जगह. 
किसी पुर्ची में से कहीं झांकती है कभी तो कभी ठेंगा दिखाती है किसी कविता संग्रह के भीतर से भी. पुरस्कारों, समीक्षाओं, तालियों के षोर से बहुत दूर बैठकर वो देखती है अपने ही नाम पर होने वाले तमाम करतबों को और थककर चल देती है गांव की किसी ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर. 
कविता क्या है...कहां है...उसके हमारे जीवन में होने के अर्थ क्या हैं...कब वो होती है हमारे जीवन में, कब नहीं. ये बड़े सरल से लगने वाले कठिन सवाल हैं. दरअसल, कविता का होना, न होना कविता को ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सामर्थ्य पर निर्भर करता है. वो दृश्य जो किसी के लिए दृश्य है, किसी के लिए एक घटना, किसी के लिए खबर और किसी के लिए कविता. कविता दरअसल संवेदना है. इसीलिए मैं कविता को किसी फ्रेम में बंधे हुए रूप में नहीं देख पाती. 
कविता हमारी संवेदनाओं की पनाहगाह है. हमारे आंसुओं का ठौर, बेचैनी को थामने वाली कोई दोस्त और आक्रोश को सहेजने वाली साथी. कवि होना कोई लग्जरी नहीं है. यह एक पेनफुल जर्नी है, एक अवसादमय यात्रा. साथ ही एक खुशनुमा अहसास भी. हमारे भीतर हमें बचाये रहने वाली.
कवि के जीवन में भी जीवन उसी तरह दस्तक देता है जैसे औरों के जीवन में लेकिन कवि जीवन के हर रंग, हर रूप, हर पहलू को द्विगुणित करके देखता है. ख़ुशी के एक सामान्य से पल में वह आसमान की उंचाइयां छू लेता है और दुख की मामूली सी खरोंच उसे मत्यु के करीब ले जा सकती है. शायद इसीलिए उन पर पागल, स्रीजोफेनिक होने जैसे लेबल लगते रहते हैं. लेकिन इस दुनिया को दुनिया बनाने में उन पागलों का बड़ा योगदान है. उन्होंने  समाज को जिस गहरी संवेदना से जज्ब किया, उसी जज्बे से गलत का प्रतिकार किया और उसी तल्खी से अपनी वेदना को लिखा भी.
समय के पन्नों पर मानवीय सभ्यता की हर करवट को उकेरती है कविता. इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान, राजनीति सबको समेटते हुए, देष की, भाशाओं की, संस्कति की तमाम सरहदों को पार करते हुए वो अपने होने को बचाकर रखती है. साथ ही बचाकर रखती है हममें हमारे बचे रहने की उम्मीद भी. हमारे रूखे-सूखे जीवन में रूमानियत की बारिष लेकर आती है कविता और जिंदगी को बारहमासा मुस्कुराहट तोहफे में देती है. कभी-कभी आंसू भी. 
इसके होने से हमारी सुबहें, हमारी षामें हर लम्हा बदलने लगता है. आज हमारे जीवन में मुस्कुराने की जितनी भी वजहें हैं उसकी जड़ में कहीं न कहीं कविता ही है और जिंदगी की तमाम मुष्किलों से जूझने का जो माद्दा है वो भी कविता ही है. मानवीय सभ्यता का इतिहास तो पुस्तकालयों में सुरक्षित रखी किताबों में मिल जायेगा लेकिन अगर इतिहास को धड़कते हुए महसूस करना है तो सूर तुलसी, दादू, रहीम, बुल्ले षाह, नानक, मीरा, कबीर, खुसरो, गालिब, फैज़, फिराक़ की गलियों से गुजरना होगा. समय और समाज की हर धड़कन इन गलियों में पैबस्त है अपनी खुशबू के साथ, पूरी तासीर के साथ. 
कई बार लगता है कि अगर कविता न होती तो कैसा होता यह जीवन. कितना खुश्क, नीरस और ऊब से भरा हुआ. मानवीय सभ्यता की संवेदनाओं का हाथ कविता ने ही तो थाम रखा है. 
कई बार यह सवाल किया जाता है कि आजकल कैसी कविताएं लिखी जाने लगी हैं, गद्य सी ही लगती हैं. फिर कविता और गद्य में अंतर ही क्या? क्यों कोई गद्य का टुकड़ा कविता कहा जाता है और कोई गद्य. समय ने मुझे जिन चीजों के जवाब दिए हैं उनमें से एक यह भी है कि कविता असल में अपने फार्म में नहीं रहती, वो अपने भाव में रहती है. गद्य के जिस टुकड़े को कविता कहा जाता है, उसमें कविता के भाव होते हैं, रिद्म, लय. इस रिद्म और लय से मेरा आशय तुकबंदी या काफिया रदीफ से नहीं है. मेरा आशय है पोयटिक एसेंस से. किसी का पूरा व्यक्तित्व ही कविता सा जान पड़ता है और किसी की कविता भी कविता सी नहीं लगती. 
हालांकि मैं खुद अभी कविता को समझने की प्रक्रिया में हूं. खुद को लगातार अकवि कहती रही, फिर भी कवि कहकर पुकारी जाने लगी. अपनी इसी उलझन को मैंने एक बार नामवर जी से साझा किया था कि जब कोई कवि कहता है तो गहरे संकोच में गड़ जाती हूं. इतनी बड़ी चीज है ये कविता कि मुझसे सधती ही नहीं है. उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा था, जिंदगी सधती है क्या? 
मुझे जवाब मिल चुका था. 
तो आपने कविता लिखना क्यों छोड़ा मैंने उन्हें छेड़ते हुए पूछा,
वो मुस्कुराए, मुझसे भी सधती नहीं थी कम्बख्त. 
मैं उस न सधने को भी सम्मान से देखती हूं और जो कुछ भी लिखती हूं अपने प्रिय कवियों को समर्पित करती चलती हूं. अपना अनाड़ीपन, अनगढ़पन, कच्चे अनुभव, तरल संवेदनाएं, जिंदगी की उहापोह, सब कुछ. 
जिस पल हम अपने लिखे से अपने लिए उम्मीद करने लगते हैं उसी पल हम नकली हो जाते हैं. हमारी कविता हमारी वेदना की, हमारे अंतर्द्वन्द्व की पनाहगाह है. इसलिए मैं हमेशा श्रद्धा से सर झुका देती हूं जीवन में मिली उदासियों के सम्मुख. 
कविता सिखाती है जि़ंदगी के हर रंग में खिलना, महकना. प्यार करना पूरी कायनात से और अपनी जिंदगी को नये तर्जुमान देना. जिंदगी की इसी रूमानियत को समेटने के इरादे से ही आज हम सब एक साथ मिल बैठे हैं. अपने जीवन में मौजूद कविता का सम्मान करने, उसके प्रति अपना आभार प्रकट करने और उसका हमारी जिंदगी में बने रहने का इसरार करने को. साथ ही दुआ करने को कि उसके होने को महसूस कर पाने की क्षमता भी हममें लगातार समृद्ध होती रहे.

(अज़ीम प्रेमजी फौन्डेशन द्वारा आयोजित 'जीवन में कविता के मायने' विषय पर आयोजित गोष्ठी में पढ़ा गया परचा)
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Photo courtesy - Google, Artist Angela Skoskie