Wednesday, December 25, 2013

चलो, अब ये सलीब उतार भी दें...

हमारे जिस्म और ज़ेहन में भी
ठोंकी गयीं
सेवा और समर्पण कीलें

मुंह पर बांध दी गयी
चुप की मजबूत पट्टी 

आँखों में भर दिए गए
तीज त्योहारों वाले
चमकीले रंग

लटका दिया गया
रिवाजों और परम्पराओं की
सलीब पर

चलो, अब ये सलीब उतार भी दें...


6 comments:

मुकेश कुमार सिन्हा said...

इन सलिबों को उतारने की सख्त जरूरत है .......

प्रवीण पाण्डेय said...

कब तक लादे रहेंगे ये सलीब..

राजेश उत्‍साही said...

सलीब से उतरने की जरूरत है..

Unknown said...

बहुत ही मार्मिक....

अभिषेक शुक्ल said...

मार्मिक किन्तु सटीक.. ..

Onkar said...

सच कहा. सुन्दर रचना