Sunday, April 1, 2012

तेरी जुस्तजू करते रहे...


पहाड़ों की एक महकती शाम...लड़की न भी चाहे तो भी चाँद की किनारी आँचल से छू ही जाती. वो मुंह फिराकर नाराज होने का नाटक करे तो भी चाँद शदीद मोहब्बत सीने में दबाये सामने आ खड़ा होता है...लड़की उसे घूर के देखती, गुस्से में कहती....' दुश्मन'. वो हंस देता है. वो भी हंस देती. मौसम भी मुस्कुरा देता है. ये एक तरह का खेल है. न न...कोई ख्याल नहीं है बस एक खेल है....
दिन भर की थकान के बाद अक्सर नाराज़गी सर उठती है. किस पे उतारी जाए, तो जनाब चाँद ही सही...यूँ उससे भी नाराज होने का अपना मजा है... ये भी क्या बात हुई कि नाराज होने की कोई वजह होनी ही चाहिए. अरे, हम बेवजह ही नाराज होंगे...तो क्या कर लेंगे आप?
लड़की ने 'हुंह...' कहकर सर घुमाया तो वो मुस्कुराकर वहीँ उसके घुटनों के पास सर टिकाकर बैठ गया. 
लड़की की आँखों में कोई बदली बरसने को तैयार थी...लड़की ने उसके सर पर हाथ फिराया...तो कोई नमी हाथों को छू गयी. 
उसने अचानक सुर बदला...दूर किसी पहाड़ी से आती कुछ छायाएं कोई पहाड़ी धुन गुनगुना रही थीं. 
उसने कहा, 'एक बात बताओ हम दोनों रो क्यों रहे हैं?' 
उसने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा, 'क्योंकि हम मुद्दत बाद मिले हैं.' 
'मुद्दत बाद क्यों...रोज ही तो तुम मेरे सर पे टंगे रहते हो...' लड़की बोली. 
'हाँ, टंगा रहता हूँ लेकिन तुम्हें याद है कि तुमने मुझे नज़र भर कब देखा था आज से पहले?'
'वो मेरे शहर की कोई रात थी....मेरे छत की कोई रात. उस रोज भी मैंने तुझसे कहा था, कि तू बेवजह ही गुमान किये फिरता है...इस धरती पर जो मेरा चाँद है न वो तुझसे भी सुन्दर है...पर सच्चाई ये है कि तनहा वो भी है और तनहा मै भी, और तनहा तू भी तो है.....तू उस रोज भी आँखें भिगोये मेरे दर पे खड़ा था...'
'मै तुम्हारे दर से कभी गया ही नहीं....' चाँद की आवाज भारी थी...
'मेरा दर?'
'मेरा तो कोई दर ही नहीं...बस एक गम कि गली है जिसमे अश्कों का आशियाना है. मेरी दुनिया में उसकी याद का सूरज कभी बुझता ही नहीं...चाँद कभी ढलता ही नहीं...ऋतुएँ आती हैं, ठहर जाती हैं. हाँ, ये बात और है कि उसका आना भी एक ख्याल ही रहा और वो ख्याल कभी जाता ही नहीं.' 
'वो जो नहीं है वही तो है हर जगह.' 
'तुम्हें इंतजार है उसका?' उसने पूछा.
'इंतजार?' 
'नहीं...वो तो है हर पल, हर सांस, मेरा होना है उसका ही होना...जो गया ही नहीं उसके आने का इंतजार कैसा...कहते हुए लड़की की आँख भर आई....नहीं है कोई इंतजार....कोई इंतजार नहीं...'
चाँद ने उसकी कलाई थाम ली...'बस कर...चुप हो जा. वो आएगा एक रोज.' 
'कौन...कब...कहाँ...' 
लड़की बावली होने लगी...उसने चाँद के हाथों में फंसी अपनी कलाई को छुड़ाया नहीं...
'बोलो न कब?' बेसब्री छलकी जा रही थी... 
वो मुस्कुराया...'बहुत जल्दी.' कुदरत का ज़र्रा-ज़र्रा तेरे प्रेम का गवाह है...तेरे प्रेम की शिद्दत से बचकर कोई कहाँ जायेगा...फ़िलहाल मै जा रहा हूँ. 
'कहाँ...' लड़की घबराई...फिर से अकेलेपन की दीवारें उठने को थीं....'तेरे प्रेम के सन्देश को पहुँचाने..उसके देश, उसकी गली, उसकी छत पर...'
'मुझे भी ले चलो न?' लड़की मुस्कुराई...
'चलो...' चाँद ने शरारत से बाहें पसार दीं...
लड़की शरमा के खुद में सिमट गयी...'इस मिटटी की देह को अब उनकी आमद का है इंतजार...उनसे कहना कि जिन्दगी कि यात्रा ख़त्म होने को है...मेरी आत्मा को मुक्त करें और इस देह से इसे आजाद करें...जीवन अब भार हुआ जाता है...' उसकी आँखों में छुपी बदलियाँ बरस चली थीं...पहाड़ अचानक भीगने लगे.
चाँद चल दिया....लड़की अपना संदेशा बांचती रही...
तभी सुबह कुलबुलाई...घाटियाँ राग भैरव के आलाप से सज रही थीं...मंदिर में किसी ने घंटा बजाया था...क्या निज़ाम आये थे शिव मंदिर में प्रसाद की चाय पीने...या मेरे सांवरे की है ये आहट...लड़की धीरे से बुदबुदाई...


14 comments:

vandana gupta said...

किसी दिन तो आयेंगे ही

राजेश उत्‍साही said...

यह अड़गम बड़गम, खुद में बड़बड़ाना अच्‍छा है।

बाबुषा said...

बच्चे, अभी पढ़े नहीं है.. शाम की सभा में पढ़ेंगे .. तसल्ली से..एक एक लाइन..सुकून से... अभी तो जा रहे हैं...नाचेंगे थोड़ी देर ... :-)

बाबुषा said...

प्रतिभा कटियार कोरे कागज़ पर एक लाइन भर खींच दे ..कम्बखत वो दुनिया की सबसे रोमांटिक बात है..
इतना लिखा तो अब कोई क्या संभाले कैसे संभाले...
इस दिल के मरीज़ को और क्या क्या पढ़वाओगी बेट्टा ...अपने चाँद के हाथों हमारा भी संदेसा भिजवा दो.. आओ शाम की चाय पियें..:-)

पीयूष पाण्डे said...

बस ग़म की गली है। उसमें अश्कों का आशियाना है। बहुत ख़ूबसूरत....आज कल चाँद ही मिल रहा है बतियाने को :-)

Pratibha Katiyar said...

अब ऐसा भी नहीं है पियूष जी की बतियाने को कई नहीं...बस कि मन ही नहीं...चाँद से तो पुराना याराना है...:)

आनंद said...

जो मैं ताना उलाहना रोज अपने माधव को देता हूँ ना ..किसी आपकी कोई कविता या कोई कहानी ..अचानक ही मुझे लेकर कहीं निकल जायेगी ..आप और माते दोनों को जरा भी पता नहीं चलेगा कि नालायक आखिर गया तो कहाँ गया ..हाँ आपकी कविता जरूर जानेगी सारे राज मगर कुछ बताएगी नहीं आपको ....
'इस मिटटी की देह को अब उनकी आमद का है इंतजार...उनसे कहना कि जिन्दगी कि यात्रा ख़त्म होने को है...मेरी आत्मा को मुक्त करें और इस देह से इसे आजाद करें...जीवन अब भार हुआ जाता है...' उसकी आँखों में छुपी बदलियाँ बरस चली थीं...पहाड़ अचानक भीगने लगे.
..
और मेरी आँखों की कोरें एकदम सूखी हैं ..सच्ची!

प्रवीण पाण्डेय said...

निजाम की चाय का मिजाज गरम ही रहे।

Anand Rathore said...

paani mein bahna aur aapko padhna ek sa lagta hai...

aapko padhana achcha lagta hai... aap bahut achcha likhti hain...

Mahi S said...

pehli baar aapke blog mein aayi hun bahut accha laga padhkar...

मिलन Milan said...

"roz sitaro ki numaish me khalal padta hai,
chaand pagal hai andhere me nikal padta hai."

ANULATA RAJ NAIR said...

कमाल का लेखन....
अपनी ४ पंक्तियाँ इस पोस्ट की नज़र.....

वो मेरा है
वो चाँद है
सभी को लगता,
कि वो मेरा है......
चालबाज़ कहीं का!!!!!

आपको पढ़ना बेहद सुखकर लगा
very sweet
regards

anu

ANULATA RAJ NAIR said...

hey where is my comment????
wil u pls check spam......


still i say it again.............
बहुत खूबसूरत लेखन........

अनु

Pallavi saxena said...

कमाल का लिखती है आप दिल छु गई आपकी यह रचना आभार