Sunday, November 30, 2008
Tuesday, November 25, 2008
तुम्हारी भी एक दुनिया है
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मित्र आलोक श्रीवास्तव की एक और कविता...
तुम्हारे पास आकाश था
मेरे पास एक टेकरी
तुम्हारे पास उड़ान थी
मेरे पास
सुनसान में हिलती पत्तियां
तुम जन्मी थीं हँसी के लिए
इस कठोर धरती पर
तुमने रोपीं
कोमल फूलों की बेलें
मैं देखता था
और सोचता था
बहुत पुराने दरख्तों की
एक दुनिया थी charon or
थके परिंदों वाली
शाम थी मेरे पास
कुछ धुनें थीं
मैं चाहता था की तुम उन्हें सुनो
मैं चाहता था की एक पूरी शाम तुम
थके परिंदों का
पेड़ पर लौटना देखो
मैं तुम्हें दिखाना चाहता था
अपने शहर की नदी में
धुंधलती रात दुखों से भरी एक दुनिया
मैं भूल गया था
तुम्हारी भी एक दुनिया है
जिसमे कई और नदियाँ हैं
कई और दरखत
कुछ दूसरे ही रंग
कुछ दूसरे ही स्वर
शायद कुछ दूसरे ही
दुःख भी।
Sunday, November 23, 2008
Saturday, November 22, 2008
Tuesday, November 18, 2008
तेरे ख्याल में
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हरे लान में
सुर्ख फूलों की छांव में बैठी हुई
मई तुझे सोचती हूँ
मेरी उंगलियाँ
सब्ज पत्तों को छूती हुई
तेरे हमराह गुजरे हुए मौसमों की महक चुन रही हैं
वो दिलकश महक
जो मेरे होठों पे आके हलकी gulabi हँसी बन गई है
दूर अपने ख्यालों में गम
शाख दर शाख
एक तीतरी खुशनुमा पर समेटे हुए उड़ रही है
मुझे ऐसा महसूस होने लगा है
जैसे मुझको पर मिल गए हों।
Sunday, November 16, 2008
पहली नजर का प्यार
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वे दोनों मानते हैं
की अचानक एक ज्वार उठा
और उन्हें हमेशा के लिए एक कर गया
कितना खूबसूरत है शंशय हीन विश्वास
पर शंशय इससे भी खूबसूरत है
अब चूँकि वे पहले कभी नहीं मिले
इसलिए उन्हें विश्वास है
की उनके बीच कभी कुछ नहीं था इससे पहले
तो फ़िर वह शब्द क्या था
जो गलियों, गलियारों या सीढियों पर
फुसफुसाया गया था?
क्या पता वे कितनी बार एक दूसरे के
एक-दूसरे के kareeb से गुजरे हों
mai उनसे पूछना चाहती हूँ
क्या उन्हें याद नहीं
रिवाल्विंग दरवाजे में घुसते हुए सामने पड़ा एक चेहरा
या भीड़ में कोई sorry कहते हुए आगे बढ़ गया था
या शायद किसी ने रौंग नम्बर कहकर फोन रख दिया था
लेकिन mai जानती हूँ उनका जवाब
नहीं उन्हें कुछ भी याद नहीं
उन्हें ये जानकर ताज्जुब होगा
की अरसे से संयोग उनसे आन्ख्मिचोनीखेल रहा था
पर अभी वक़्त नहीं आया था
की वह उनकी नियति बन जाए
वह उन्हें बार- बार करीब लाया
और दूर ले गया
अपनी हँसी दबाये उसने उनका रास्ता रोका
और फ़िर उछालकर दूर हट गया
नियति ने उन्हें बार-बार संकेत दिए
चाहे वे उन्हें न समझ पाए हों
तीन साल पहले की बात है
या फ़िर pichale मंगल की
जब एक सूखा हुआ पत्ता
किसी एक के कंधे को छूते
दूसरे के दामन में जा गिरा था
किसी के हांथों से कुछ गिरा
किसी ने कुच उठाया
कौन जाने वह एक गेंद ही हो
बचपन की झाडियों में खोई हुई
कई दरवाजे होंगे
जहाँ एक की दस्तक पर
दूसरे की दस्तक पड़ी होंगी
हवाई-अड्डे होंगे
जहाँ पास-पास खड़े होकर
सामान की जाँच करवाई होगी
और किसी रात देखा होगा एक ही सपना
सुबह की रौशनी में धुंधला पड़ता हुआ
और फ़िर हर शुरुआत
किसी न किसी सिलसिले की
एक कड़ी ही तो होती है
क्योंकि घटनाओं की किताब
जब देखो अधखुली ही मिलती है.....
शिम्बोर्स्का की यह कविता हर प्यार करने वाले
को बेहद अजीज लगती है...यही शिम्बोर्स्का का
जादू है जो एक बार सर चढ़ जाए तो फ़िर कभी नहीं
उतरता....
Friday, November 14, 2008
लम्हा लम्हा जिंदगी
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लम्हा लम्हा जिंदगी जब खुदा ने करवट बदली थी, तब धरती का मौसम बदला था।तो ये जो मौसम है न दरअसल, खुदा का करवट बदलना होता है। वो जो चाँद है न उसमें एक बुढ़िया रहती है। वो चरखा चलाती रहती है.जब कोई मर जाता है तो तारा बनकर आसमान में चला जाता है। ये बातें कब सुनी, किस से सुनी ये तो पता नहीं लेकिन कानो से गुजरकर ये बातें जेहन में चस्पा जरूर हो गयीं हैं। दुनिया भर की किताबें पढ़ डालीं, ढेर सारा समझदारी का साबुन लगाया लेकिन मजाल है की मौसम बदलें और यह बात ध्यान में न आ जाए की जरूर खुदा ने करवट बदली होगी। हाँ, इस ख्याल के साथ अब एक हलकी सी मुस्कराहट भी आ जाती है। हम सबकी जिंदगी में ढेर सारी ऐसी बातें हैं, जिनके पीछे कोई लोजिक नहीं फ़िर भी वे हैं और बेहद अजीज हैं।कोई सुने तो अजीब लग सकता है की मुझे मुकम्मल तस्वीर से ज्यादा खूबसूरत लगती है नए हाथों से रची गई अनगढ़ अधूरी तस्वीर। न जाने क्यों कुम्हार जब चक चलाते चलाते थक जाता होगा और उस से तो टेढा- मेदा मटका बन जाता होगाउसे मैं ढूंढकर लती थी। उसमे न जाने कितने आकार मुझे नजर आते थे। उपन्यास, कहानियो या कविताओं से ज्यादा अधूरी लिखी रह गई डायरी, पत्र हमेशाज्यादा लुभाते रहे मुझे. वो जो कम्प्लीट है, परफेक्ट है, वो इन्हीं अनगढ़, ऊंचे-नीचे,ऊबड़- खाबड़ रास्तों से होकर ही तो गुजरा है। ना जाने कब, कहाँ, पढ़ा था की काफ्काको सारी उम्र बुखार रहा। यह दरअसल, उनके भीतर पलने वाले प्रेम की तपन थी। उस ताप में जलते हुए काफ्का के प्रेम की तपिश को उनकी हर रचना में मैंने खूब महसूसकिया, बगैर इस बात की तस्दीक़ किए की इसमें कितनी सच्चाई थी। एक बार मई या जूनकी दोपहर में एक अधेड़ सी औरत दिखी। काली, नाती और दुनिया की नजर में बदसूरतही कही जाने वाली वह औरत अपनी गुलाबी साड़ी और ठीकठाक मेकप में, मुझे उस वक़्तइतनी सुंदर लगी की मैं बता नहीं सकती। मुझे लगा की उसने कितने एंगल से ख़ुद को देखाहोगा, किसी के लिए ख़ुद को बड़े मन से सजाया होगा। उसके भीतर के वो मासूम भावः,उसके चेहरे पर साफ नजर आ रहे थे। शायद ऐसे छोटे-छोटे, बिना लोजिक के रीजन्स ने ही फ़िल्म रॉक ओन के इस गाने का शेप लिया होगा की मेरी लांड्री का एक बिल, आधी पढ़ी हुई नोवेल, मेरे काम का एक पेपर, एक लड़की का फ़ोन नम्बर pichchle सात दिनों में मैंने खोया....कभी फ़िल्म के नॉन एडिटेड पार्ट से रु-बा-रु होने का मौका मिला हो तो देखिये कितना मजा आता है। ऐसा लगता है की फ़िल्म को कितने dymention मिल सकते थे final प्ले से कम मजेदार नहीं होता उसका रिहर्सल। एक-एक संवाद को याद करते, एक-एक ऍक्स्प्रॅशन के लिए जी- जान लड़ते हुए लोगों को देखना काफी दिलचस्प होता है। शानदार पेंटिंग एक्सिबिशन की बजाय, पेंटिंग वर्कशॉप में जाइये, रंगों से, लकीरों से जूझते आर्टिस्ट के भावों को पढिये, उनकी पूरी बॉडी लैंगुएज उस समय क्रिअतिविटी के उफान पर होती है।लीजिये सबसे इंपोर्टएंट बात तो रह ही गई। दुनिया की सबसे ख़ास चीज जो हर किसी को आकर्षित करती है, वो है प्रेम और प्रेम में कोई लोजिक नहीं होता वह तो बस होता है। कहते हैं न की नापतौल कर तो व्यापआर होता hai prem तो बस होता है(agar hota hai to)और आप चाहे न चाहें। हम सब व्यवस्थित होने की धुन में मस्त रहते है, व्यस्त रहते हैं लेकिन कभी, कहीं कुछ होता है, जो हमारे भीतर के उन कोनो को छु जाता है, जो अब तक दुनिया की समझदारियों के हवाले नहीं हुए। जिनमे बिना लोजिक की ढेर sari कहानियाँ हैं। ऐसी न जाने कितनी चीजें है, जो हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें हम कभी मुस्कुराकर इग्नोर कर देते है, आगे बढ़ जाते है और कभी वे हमारा दामन पकड़कर अपने पास बिठा लेती है। अगर लोजिक तलाशें, वैलेद रीजन्स की खोज करें तो इन चीजों कर यकीनन कोई मतलब नहीं है। दिस इज आल वेस्ट मेटेरिअल...लेकिन इन वेस्ट मेटेरिअल लम्हों से, बातों से, चीजों से जिंदगी सजायी भी जन सकती है.
Thursday, November 13, 2008
पूरनमाशी
पूरनमाशी की रात जंगल में
जब कभी चाँदनी बरसती है
पत्तों में तिक्लियाँ सी बजती हैं
पूरनमाशी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
चाँदनी में धूलि हुई मद्धम
भीगी- भीगी उदास आवाजें
नाम लेकर पुकारती हैं तुम्हें
कितनी सदियों से ढूँढती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवाजें
जब कभी चाँदनी बरसती है
पत्तों में तिक्लियाँ सी बजती हैं
पूरनमाशी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
चाँदनी में धूलि हुई मद्धम
भीगी- भीगी उदास आवाजें
नाम लेकर पुकारती हैं तुम्हें
कितनी सदियों से ढूँढती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवाजें
Friday, November 7, 2008
एक दिन आएगा
आलोक श्रीवास्तव की यह कविता बहुत खूबसूरत है।
वैसे उनकी और भी कवितायें बहुत सुंदर हैं लेकिन
आज यही.....
एक दिन आयेगा
जब तुम जिस भी रस्ते से गुजरोगी
वहीं सबसे पहले खिलेंगे फूल
तुम जिन भी झरनों को छूऊगी
सबसे मीठा होगा उनका पानी
jin भी दरवाजों पर
तुम्हारे हाथों की थपथपाहट होगी
खुशियाँ वहीं आएँगी सबसे पहले
जिस भी शख्श से तुम करोगी बातें
वह नफरत नहीं कर पायेगा
फ़िर कभी किसी से।
जिस भी किसी का कन्धा तुम छुओगी
हर किसी का दुःख उठा लेने की
कूवत आ जायेगी उस कंधे में
जिन भी आंखों में तुम झांकोगी
उन आँखों का देखा हर कुछ
वसंत का मौसम होगा
जिस भी व्यक्ति को तुम प्यार करोगी
चाहोगी जिस किसी को दिल की गहराइयों से
सरे देवदूत शर्मसार होंगे उसके आगे....
वैसे उनकी और भी कवितायें बहुत सुंदर हैं लेकिन
आज यही.....
एक दिन आयेगा
जब तुम जिस भी रस्ते से गुजरोगी
वहीं सबसे पहले खिलेंगे फूल
तुम जिन भी झरनों को छूऊगी
सबसे मीठा होगा उनका पानी
jin भी दरवाजों पर
तुम्हारे हाथों की थपथपाहट होगी
खुशियाँ वहीं आएँगी सबसे पहले
जिस भी शख्श से तुम करोगी बातें
वह नफरत नहीं कर पायेगा
फ़िर कभी किसी से।
जिस भी किसी का कन्धा तुम छुओगी
हर किसी का दुःख उठा लेने की
कूवत आ जायेगी उस कंधे में
जिन भी आंखों में तुम झांकोगी
उन आँखों का देखा हर कुछ
वसंत का मौसम होगा
जिस भी व्यक्ति को तुम प्यार करोगी
चाहोगी जिस किसी को दिल की गहराइयों से
सरे देवदूत शर्मसार होंगे उसके आगे....
Tuesday, November 4, 2008
ओ वाणी
ओ वाणी, मुझसे खफा न होना
की मैंने तुझसे उधार लिए
चट्टानों से भरी शब्द
फ़िर ताजिंदगी उन्हें तराशती रही
इस कोशिश में
की वे परों से हलके लगें...
शिम्बोर्स्का
की मैंने तुझसे उधार लिए
चट्टानों से भरी शब्द
फ़िर ताजिंदगी उन्हें तराशती रही
इस कोशिश में
की वे परों से हलके लगें...
शिम्बोर्स्का
Monday, November 3, 2008
मुठ्ठी भर आसमान
तुमने कहा
फूल....
और मैंने बिछा दी
अपने जीवन की
साडी कोमलता
तुम्हारे जीवन में।
तुमने कहा
शूल.......
मैं बीन आयई
तुम्हारी राह में आने वाले
तमाम कांटें
तुमने कहा
समय......
और मैंने अपनी सारी उम्र
तुम्हारे नाम कर दी।
तुमने कहा
ऊर्जा...
तो अपनी समस्त ऊर्जा
संचारित कर दी मैंने
तुम्हारी रगों में.
तुमने कहा
बारिश.......
आंखों से बहती बूंदों को
रोककर
भर दिया तुम्हारे जीवन को
सुख की बारिशों से।
तुमने कहा
भूल....
और मैंने ढँक ली
तुम्हारी हर भूल
अपने आँचल से
और एक रोज
तुमने देखा मेरी आंखों में भी
थी कोई चाह
तुमने मुस्कुराकर कहा
तुम्हारा तो है सारा
जहाँ....
मैंने कहा जहाँ नहीं
बस, एक मुठ्ठी भर आसमान
और तुमने
फिर ली नजरें....
फूल....
और मैंने बिछा दी
अपने जीवन की
साडी कोमलता
तुम्हारे जीवन में।
तुमने कहा
शूल.......
मैं बीन आयई
तुम्हारी राह में आने वाले
तमाम कांटें
तुमने कहा
समय......
और मैंने अपनी सारी उम्र
तुम्हारे नाम कर दी।
तुमने कहा
ऊर्जा...
तो अपनी समस्त ऊर्जा
संचारित कर दी मैंने
तुम्हारी रगों में.
तुमने कहा
बारिश.......
आंखों से बहती बूंदों को
रोककर
भर दिया तुम्हारे जीवन को
सुख की बारिशों से।
तुमने कहा
भूल....
और मैंने ढँक ली
तुम्हारी हर भूल
अपने आँचल से
और एक रोज
तुमने देखा मेरी आंखों में भी
थी कोई चाह
तुमने मुस्कुराकर कहा
तुम्हारा तो है सारा
जहाँ....
मैंने कहा जहाँ नहीं
बस, एक मुठ्ठी भर आसमान
और तुमने
फिर ली नजरें....
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