Wednesday, December 31, 2025

विनोद कुमार शुक्ल : पाठकों का प्यार और अव्यवस्था की मार



समूचा हिंदी जगत विनोद जी के जाने से उदास है, दुखी है. सब उन्हें अपनी अपनी तरह से याद कर रहे हैं। उनकी कविताएँ, ऑटोग्राफ, साथ की तस्वीरें, यादें सोशल मीडिया पर उतरा रही हैं। व्यक्ति ने कितना बड़ा जीवन जिया है यह उसके जाने के बाद और ज़्यादा समझ में आता है। लेकिन आज कुछ और कहना चाहती हूँ, वह सच जो विनोद जी के घर जाने पर देखा, सुना महसूस किया।

मैं और माया आंटी विनोद जी के घर पहुँचे। वही मौल श्री का पेड़, वही पंछियों का डेरा, वही झूला, वही कमरा लेकिन इंतज़ार करती वो आँखें कहीं नहीं थीं। मिलने पर उन आँखों की बढ़ी हुई चमक, उत्साह, ख़ुशी कहीं नहीं थी। लेकिन शाश्वत इस बार भी हमेशा की तरह दरवाज़े पर इंतज़ार करते मिले।

कमरे में विनोद जी नहीं थे, उनकी तस्वीर थी। माला चढ़ी तस्वीर। मैं उस तस्वीर को देखना नहीं चाहती थी। मैं मानना नहीं चाहती थी कि वो अब नहीं हैं। मानो मेरा न मानना सच भी हो सकता हो और वो धीरे धीरे चलकर आयेंगे और मुस्कुराकर पूछेंगे आने में कोई परेशानी तो नहीं हुई? बातें करेंगे, रोटी खाने को कहेंगे। फ़रवरी 2025 में उनसे हुई आख़िरी मुलाक़ात की स्मृति को हार चढ़ी तस्वीर से बदलना नहीं चाहती थी। पूरे वक़्त उस तस्वीर से आँखें चुराती रही लेकिन उनका न होना सुधा जी की आँखों में शाश्वत की हताशा में भी तो था ही। दुख जताना दुख बाँटना नहीं होता, यह जीकर ही जाना है इसलिए ऐसे अवसर पर कुछ समझ नहीं आता सिवाय चुपचाप करीब बैठ जाने के। चाय बनाने के बहाने रसोई में जाने के विकल्प ने फिर से सहारा दिया। लेकिन विकल्प महज़ विकल्प ही तो है। शाश्वत सच का जो रूप बयान कर रहे थे उससे दुख गुस्से में बदल रहा था।

इधर सोशल मीडिया पर लोग उनकी अच्छी सेहत की दुआ कर रहे थे, अपना प्यार जता रहे थे उधर विनोद जी हर रोज़ अस्पताल की अव्यवस्था, डॉक्टर्स की लापरवाही और उदासीनता से जूझ रहे थे. वो फेफड़ों में पानी भरने की वजह से अस्पताल ले जाए गए थे लेकिन वे अपनी बीमारी की वजह से ज़िंदगी से नहीं हारे बल्कि अस्पताल में मिली बीमारियों, अव्यवस्था और लापरवाहियों की वजह से जीवन से हार गए। कितना कष्ट है यह महसूस करने में कि अपने अंतिम समय में वे काफी कष्ट में रहे।

क्या यह छोटी बात है कि जिन विनोद जी का हाल देश के प्रधानमंत्री फ़ोन करके पूछते हों, उनके शरीर पर आए बेड सोर को 4 दिन तक ड्रेसिंग ही न मिले क्योंकि कोई डॉक्टर देखने वाला नहीं था। और जब ड्रेसिंग हो तो वह ग़लत हो जाय। यह क्या छोटी बात है कि उनके टेस्ट की रिपोर्ट डॉक्टर्स इसलिए कई दिन तक न देख पाते हों क्योंकि रिपोर्ट्स एक बार नहीं कई बार खो चुकी हों। सीसीयू में कोई नर्सिंग स्टाफ ही न हो हर छोटे से छोटे काम के लिए परिजनों को पीपीई किट पहनकर भीतर जाना पड़ता हो। पर्याप्त किट न होना, जूते न होने पर पैर में पॉलीथिन बांध कर जाना भी इसमें शामिल है। डॉक्टर और बाकी स्टाफ का पूरे समय मोबाइल में, रील देखने में व्यस्त रहना भी शाश्वत को इस अव्यवस्था का एक बड़ा कारण लगा। और यह हाल है एम्स का।

विनोद जी के साथ उनके अंतिम समय में हुई यह चिकित्सीय अव्यवस्था कई सवाल खड़े करती है। उनके बेहतर चिकित्सकीय प्रबंध की ज़िम्मेदारी राज्य और केंद्र सरकार की क्यों नहीं थी? शाश्वत यहाँ से वहाँ भटकते रहे, लोगों से प्रशासन से गुहार करते रहे लेकिन उनकी आवाज़ सुनी क्यों नहीं गई? स्थानीय मीडिया में, सोशल मीडिया की कुछ पोस्ट में जब मामला उछला, तब सुनवाई हुई लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

शाश्वत की हताश और उदास आँखें ज़ेहन से जा नहीं रहीं और उनका यह कहना कि ‘मैंने तो अपने पिता को खो दिया है लेकिन किसी और के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए…’ रुके हुए दुख के बाँध को तोड़ ही देता है.

उनके जाने से समूचा देश उदास है, वह घर उदास है, मौलश्री का पेड़ उदास है, घर में आकर दाना खाने वाले पंछी भी उदास हैं, हम सब उदास हैं लेकिन कुछ सवाल हैं जो इस उदासी से बड़े हैं।

जवाब न जाने किसके पास हैं।

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