Tuesday, December 2, 2025

समय के सरोकार हैं 'कबिरा सोई पीर है' उपन्यास में


- गीता श्री 
यह उपन्यास मुझे एक वरिष्ठ लेखक की तरफ से उपहार में मिला था. उन दिनों वे इसे पढ़ रहे थे और मुझ पुस्तक-लालची को बस पता चलना चाहिए. मैं पढने को उत्सुक हुई . उन्होंने ऑनलाइन खरीद कर भेज दी.अच्छी किताबें पढ़ी और पढ़ाई जानी चाहिए.

अब मैं पढ़ चुकी तो -
“तृप्ति ,जब ख़ुश होने के अवसर आते तो ज़ोर से रोने की इच्छा से भर जाती. उस रोज़ भी वो गंगा किनारे कोने में अकेले बैठी देर तक रोती रही. उसने महसूस किया कि यह सुख का रोना नहीं है. सचमुच की उदासी है. सामने बहती गंगा मानो तृप्ति को दिलासा देते हुए उसके क़रीब आकर उछाल लेती और उसके चेहरे पर पड़ी गंगा की बूंदें आँखों से छलकती उदासी को पोंछ ले जातीं.”
…….
मुझे अब एक शहर नदी लगने लगा है. पहले शहर और नदी मेरी दोनों आँखों में समानांतर छलकते थे. अब सिर्फ नदी भर गई है दोनों में.
एक शहर जो नदी है. एक नदी जो शहर है.
प्रतिभा कटियार अपने उपन्यास “ कबीरा सोई पीर है” में मेरे सबसे प्रिय शहर ऋषिकेश के बारे में लिखती हैं - “ऋषिकेश शहर की यह बात सुंदर है कि पूरा शहर ही नदी -सा लगता है. “
कल रात मैं नदी के साथ थी. तृप्ति के साथ भी. दोनों मेरे साथ बहते रहे रात की नदी में.
दलित समाज की प्रतिभाशाली लड़की जो सबकी आँखों में चुभती है.
प्रतिभा ने बड़ा वितान रचा है. दर्द की हल्की -हल्की आँच में पकते कथानक पर लिखे उपन्यास पढ़ने का दर्दीला सुख लिया हमने. सबसे सफल प्रेम वही है जो अपूर्ण होता है. अधूरे प्रेम अमर होते हैं.
सदियों उनकी कहानियाँ हम सुनते और सुनाते हैं. उनके आगे सजदा करते हैं.
इस उपन्यास में एक अमर प्रेम कथा बनते -बनते रह गई.
हर असफल प्रेम महान हो , जरुरी तो नहीं.
मैं इसे पढ़ने के बाद खुद से जिरह कर रही हूँ.
 
मैं कहानी नहीं बताऊँगी. इसे पढ़ते हुए फिल्म “होमबाउंड” का परिवेश याद आया. यहां भी राजनीति बेपर्द होती है. हिंदू एकता के नाम पर कैसे दलित समाज को भरमाया जा रहा है. ये सारे मुद्दे कथा में आते चले गए हैं. सायास कुछ नहीं. किरदारों की ज़िंदगी में ये सब घटता है. कथा कसी हुई और मुद्दे गूंथे हुए हैं.
कथा में बहुत रवानी है. शायरी की छाँव है. गंगा की उत्ताल तरंगें हैं. प्रेम हवा में है अपने दुखांत की तरफ बढ़ता हुआ. साथ में अपने समय को समेटता हुआ.
यह सिर्फ प्रेम कथा नहीं, उसके बहाने समय का सरोकार , चिंताएँ समाहित है. पूरी संवेदनशीलता के साथ मुद्दे उठाए गए हैं.
एक कश्मीर यहाँ भी है. दो क़ौमों के बीच तनाव और दूरियाँ हैं. उन पर बहसें हैं और लेखक की अपनी सतर्क दृष्टि भी है जिसे वे खिसकने नहीं देती. व्यर्थ की बहस नहीं, थोड़ा बेहतर मनुष्य होने की शर्तें हैं.

किताब से एक शेर -
चाक जिगर के सी लेते हैं
जैसे भी हो जी लेते हैं

(नदीम परमार)

कबिरा सोई पीर है, प्रतिभा कटियार, लोकभारती प्रकाशन

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