Sunday, August 11, 2024

घड़ी दो घड़ी- बसंत त्रिपाठी


जैसे बरसकर थमी शाम में झींगुरों की आवाज़ उगती है, जैसे हवा से हिलती हैं पत्तियाँ और अपनी हथेलियों पर अकोरी बूंदों को छिड़क देती हैं आहिस्ता से, जैसे रातरानी की ख़ुशबू इकसार हो जाती है रात में और अंधेरे को महका देती है, जैसे भीगा हुआ पंक्षी अपनी पांखे खुजलाता है और आसमान में उड़ जाता है, जैसे किसी की याद आती है और पल भर को नब्ज़ तनिक थम जाती है, जैसे किसी को देखकर पलकें झपकना भूल जाती हैं और 'घड़ी दो घड़ी' जीने की आकांक्षा से मन भर उठता है। बसंत त्रिपाठी का नया कविता संग्रह 'घड़ी दो घड़ी' ऐसी ही निर्मल अनुभूतियों का कोलाज है। सघन अभिव्यक्तियों का ऐसा जादू जिसके कभी न टूटने की दुआ बरबस जन्म ले।

बसंत समय और संवेदना का ताना-बाना रचते हैं लेकिन बिना किसी अतिरेक के। उनकी कविताओं में  बिना किसी शोरगुल के जीवन के हर रंग मौजूद हैं। सरलता उनकी कविताओं का ऐसा गुण है कि ये किसी को भी अपना बना लें। कविताओं को ऐसा ही तो होना चाहिए कि किसी शाम जब आप तन्हा हों, चाय पीते हुए किसी की याद में गुम हों वे आयें और बिना तन्हाई को तोड़े करीब बैठ जाएँ।

इन कविताओं में प्रकृति प्रतीक के तौर पर आती है और विराट अर्थ ध्वनित करती है। हर पंक्ति के भीतर एक बड़ा संसार है। एक संसार जो शब्द के अर्थ में ध्वनित होता है और दूसरा संसार जो उसके भीतर है, जो लंबी यात्रा करके यहाँ तक पहुंचा है। जिसमें एक सुंदर कल का सपना है, यथार्थ पर नज़र है और प्रेम पर भरोसा है। संग्रह की पहली कविता भूमिका की ये लाइनें 'मैं संभावनाएं लिखता हूँ/जो बुद्धि के दुर्ग में/लहू के सिक्त/दिल के राग छेड़ती है।' इसी कविता में 'मैं वो स्वप्न लिखता हूँ/जो सचमुच की नींद में/सायास उभरते हैं/मैं दुस्वप्न लिखता हूँ/जो कच्ची नींद में कुलबुलाते हैं/' 

कविता भाषा का खेल नहीं विचार और संवेदना का साम्य है। पुश्किन की बात को अगर अपने ढंग से कहूँ तो भाषाई कौशल को साधना आसान है लेकिन जीवन के पथरीले, जटिल यथार्थ को कविता में साधना आसान नहीं। यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब कवि दुनिया को बेहतर बनाने के सपने का हाथ नहीं छोड़ता। यथार्थ की लहूलुहान हथेलियों पर उम्मीद के फाहे रखती कवितायें जीवन में भरोसा बचाए रखती हैं। यही बसंत की कवितायें करती हैं। उनकी कविता मैं पानी हूँ की एक लाइन देखिये,'मैं पानी हूँ/मैं तुम्हारी प्यास ढूँढता हूँ।' 
एक तरफ प्यास की तलाश में निकला पानी है दूसरी तरफ बादलों में गुम एक मन, 'भीगा मन लिए/बादलों के भीतर उड़ रहा हूँ/'। ऐसी पंक्तियाँ पढ़े मानो जमाना बीत गया। एक और कविता में छाया के रंग की बात सुनिए तो, 'छाया का रंग/लेकिन अब भी वही/वही जरा सुस्ताने के आमंत्रण का रंग।' कितनी बड़ी रेंज है इन पंक्तियों की,कि छाया ने कभी अपना रंग नहीं बदला, कितना कुछ बीता, फिर भी। और हम?  

कविता घड़ी दो घड़ी में प्रेम के रंग देखिये,'तुम बैठो/थोड़ी देर और/पेड़ की परछाई को/पूरब की ओर।थोड़ा और बढ़ने दो/बच्चों को शिक्षा की जेल से/शोर मचाकर निकलने दो।' एक कविता के एक ही हिस्से में प्रेम, सामाजिक सरोकार, चिंता और और उस चिंता की कारागार को तोड़ने का स्वप्न सब एक साथ बुन पाना सरल तो नहीं, यह जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण दृष्टि, राजनैतिक, सामाजिक समझ और लंबी अनुभव यात्रा से ही संभव है।  

एक कविता है युद्ध के बाद का जीवन उसकी कुछ पंक्तियों को देखिये, 'टैंक और बमवर्षक विमान/जब ध्वस्त हो जाएँगे लड़ते-लड़ते/ठीक उसके बाद/मैं तुम्हें लिखूंगा पोस्टकार्ड/और ख़ुशबू से भरी हवा की पत्र पेटी में डाल आऊंगा।' 'मैं अंधड़ से भरे तुम्हारे दिल में/रख दूंगा दुनिया में अभी ही जन्मी/एक कत्थई कोमल पत्ती/युद्ध के बाद/घायल पसलियों, टूटी हड्डियों/और अपराजेय सपनों से/ऐसे हो तो बाहर आता है जीवन।' कविता आत्मनाश की पंक्तियाँ, 'मैं वह भूख/जो हर बार पानी से ही मिटाई जाती रही/मैं इस महान लोकतन्त्र में/नागरिक अधिकारों का वह उपेक्षित अध्याय/जिसे आठवीं के बच्चे/केवल परीक्षा पास होने के लिए पढ़ते हैं/वह भी अपनी नैसर्गिक खीझ के साथ।'

इस संग्रह की कुछ कविताओं की कुछ पंक्तियों के साथ मैं सिर्फ यह कह सकती हूँ कि यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है, इसे पढ़ा जाना चाहिए, कविताओं को अपने भीतर उतरने देना चाहिए और कुछ देर उन कविताओं के साथ चुप रहकर वक़्त बिताना चाहिए। 

संग्रह का सुंदर कवर निकिता ने बनाया है और भीतर कुछ रेखांकन भी हैं जो कविताओं को थोड़ा विस्तार देते हैं। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह को पढ़िये और अपने पास संभालकर रखिए, ठीक उसी तरह जैसे बुरे से बुरे वक़्त में संभालकर रखते हैं उम्मीद।  

1 comment:

Onkar said...

बहुत सुन्दर