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वीकेंड जैसा कुछ कभी फील नहीं हुआ. हाँ, कभी इतवार का कोई सिरा हाथ में मिला तो उस सिरे पर अटके सुख को अकोर लिया. 'लोग जो मुझ में रह गए' खत्म होने पर एक उदासी बनी हुई थी जिसे बीच-बीच में रिल्के की कवितायें और काफ्का के ख़त कम करते रहे. इस बीच जाने क्यों मुझे लोर्का की बहुत याद आई. एक समय में लोर्का की कवितायें हमेशा साथ रहने लगी थीं. बहरहाल, कल जब दफ़्तर से लौटी तो एक मुस्कान खिल गयी चेहरे पर. फराह बशीर की 'रूमर्स ऑफ स्प्रिंग' आ चुकी थी.
मुझे इस किताब का शिद्दत से इंतज़ार था. मानव कौल ने 'रूह' में इसका ज़िक्र किया था तबसे इसे पढ़ना था. किताब एक दोस्त ने भेजी है हालाँकि यह ऑर्डर भी कई बार कैंसिल होने के बाद फाइनली पहुंचा है.
फराह बशीर कश्मीर में जन्मी और पली-बढ़ी लड़की की कहानी है. फराह Reuters में फोटो जर्नलिस्ट रह चुकी हैं. यह उनकी पहली किताब है.
मैं पहले चैप्टर को पढ़ते हुए सिहर उठी हूँ. हम मनुष्य हैं और मनुष्य होते हुए हम कितनी लेयर्स में कैद हैं. खुद को भी देख नहीं पाते इतने परदे हैं हमारी आँखों पर. 1994 के दिसम्बर की एक बेहद ठंडी शाम की स्मृति में एक दादी की स्मृति है, उनके जीवन के अंतिम पलों की. स्मृति है कर्फ्यू वाले शहर की जिसमें इम्तिहान की तैयारी करती और एक बच्ची है. स्मृति है पास के बाजार में अपनी पसंद के बाल कटाने गयी दो किशोरियों की और अचानक बाजार के शोर के सन्नाटे में बदलने की. उस ऐलान की कि, 'अवाम से अपील की जाती है कि अपने घरों से बाहर न निकलें, शहर में शूट एट साइट' का ऑर्डर है. स्मृति है दो बच्चियां के एक-दूसरे का हाथ थामे घबराए क़दमों से बहते आंसुओं के बीच किसी तरह जिन्दा घर पहुँचने की हड़बड़ी और दहशत की.
घर में जब ये पहुँचती हैं तो घर वालों के चेहरे पर खौफ, सुकून, दहशत का मिला जुला मंज़र देखने को मिलता है खबर आ रही थी कि बाजार में एक 12 बरस की लड़की मार दी गयी है. घरवालों को यकीन हो चला था हो न हो यह 12 बरस की लड़की उनकी फराह ही है. तो फराह को जिन्दा देखना...अज़ब हूक सी उठती है इस हिस्से को पढ़ते हुए.
चैप्टर खत्म होने के बाद मैं घरवालों के उस सुकून, बाज़ार में घबराई उस बारह बरस की बच्ची जो सकुशल घर पहुँच गयी से ज्यादा सोच रही हूँ उस 12 बरस की बच्ची के बारे में जिसके मारे जाने की खबर थी...कौन थी वो बच्ची...
सबके पास उनका एक सच है, और यक़ीनन वो सच ही है. बस बात यह है कि इन सच के साथ खिलवाड़ करने वाले लोग ज्यादा शातिर हैं...और हम शायद जरूरत से ज्यादा मासूम...
एक बार फिर कश्मीर यात्रा पर हूँ इस बार फराह बशीर के साथ.
शुक्रिया मानव, इस किताब को सजेस्ट करने के लिए.