Monday, April 4, 2022

सीखना है कितना कुछ

- प्रतिभा कटियार

हमें क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है. किस बात पर हमें हंसी आती है किस बात पर गुस्सा आता है ये सब हमारे व्यक्तित्व को दर्शाने वाले पैरामीटर्स हैं. व्यक्ति अपने चेहरे, रंग, कद से नहीं बनता. न जाति, धर्म, लिंग से बनता है वह बनता है अपनी सोच से, अपने व्यवहार से. कोई नयी बात तो नहीं है यह लेकिन फिर भी इतनी दूरी सी क्यों लगती है इस बात से. बहुत सारी अच्छी बातें करने वाले भी जब किसी फूहड़ से चुटकुले पर हंस देते हैं तब असल में उनके बड़े से बौध्धिक व्यक्तित्व की कलई खुल जाती है.
एक समय था जब कॉमेडी शोज़ की शुरुआत हुई थी. टीवी पर ये शो काफी लोकप्रिय हुआ करते थे. हर घर में इनका बोलबाला था लेकिन मैंने ये कभी नहीं देखे. क्योंकि जब भी इन शोज़ के कुछ टुकड़े मेरी नज़र से गुजरे मुझे ये बहुत दिक्कत भरे लगे. फूहड़ और भद्दे. बॉडी शेमिंग से भरे, जेंडर बायस्ड से भरे चुटकुले कैसे हंसा सकते हैं हमें. लेकिन वह फूहड़ दौर फलते-फूलते यहाँ तक आ पंहुचा है कि वाट्स्प फ़ॉरवर्ड में ऐसे चुटकुले, वीडियो, मीम्स भरपूर जगह पाते हैं और लोग इनका जमकर लुत्फ़ लेते हैं. हाँ, सच में. स्त्री विरोधी चुटकुलों को स्त्रियाँ खूब फ़ॉरवर्ड करती हैं.
मैं समझना चाहती हूँ कि दिक्कत कहाँ है. हमारा सेन्स ऑफ ह्यूमर इतना क्रूर क्यों है. इतना फूहड़ क्यों है. ऐसा क्यों है कि स्टैंडअप कॉमेडी जैसी नयी खूब फल-फूल रही इंडस्ट्री जो एक जरूरी दखल भी देती है, राजनैतिक खलीफाओं से पंगा भी लेती है वो भी गालियों को सामान्य मानती है. गालियाँ वही सब की सब स्त्री विरोधी. इसके पीछे तर्क है कि यह तो नॉर्मल है. इस नॉर्मल को स्त्रियाँ भी अपनाने लगीं वो भी स्त्री विरोधी गालियों को ले आयीं व्यवहार में. क्या सच में ऐसा होना था? बात शुचितावादी अप्रोच की नहीं है बात उस हिंसा की है जो उन शब्दों में समाई है जिन्हें हम नॉर्मल तरह से एक्सेप्ट कर रहे हैं.
तो इस नॉर्मल की जड़ तक जाने की कोशिश करते हैं. जाने क्यों समाज की हर छोटी-बड़ी बुराई का हल शिक्षा के करीब नजर आता है. स्कूल के वो दिन याद करती हूँ जब हम खेलते-खेलते या चलते-चलते गिर जाते थे, हम चोट के दर्द से ज्यादा अपमान के दर्द से गुजरते थे. किसी को गिरते देखना हंसने को कैसे जन्म देता है और क्यों इसे कोई रोकता नहीं. कुर्सी खींचकर हटा देना और गिरा देना फिर हँसना. कैसे किसी का शरीर किसी की हंसी की वजह बनता है. मोटा, थुलथुल, गंजा, काला ये सब चुटकुलों का सामान कब और कैसे बना. कैसे बने चुटकुले पति पत्नी वाले जहाँ पति विक्टिम है और पत्नियाँ दुष्ट खलनायिकाएं या मूर्ख.
कपिल शर्मा शो के पास दर्शकों की बड़ी भीड़ है लेकिन वो कैसे हंसाता है, पुरुषों को स्त्री बनाकर उनकी बॉडी शेमिंग करके. सवाल यह नहीं कि वो क्या बेचकर पैसा कमा रहा है सवाल यह है कि हमें जिन बातों पर दुःख होना था, गुस्सा आना था उन पर हंसी क्योंकर आई.
जब ऐसे फूहड़ शो देखकर लोग हंस रहे होते थे तो मैं अचकचा कर उन हंसने वालों के चेहरे देखती थी, इन्हें हंसी क्यों आ रही है, गुस्सा क्यों नहीं आ रहा. फिर लगने लगा शायद मेरा सेन्स ऑफ ह्यूमर कमजोर है. मुझे किसी भी बात पर हंसी नहीं आती.
काफी पहले की बात है एक न्यूज़ चैनल के बड़े ही वरिष्ठ पत्रकार न्यूज़ प्रेजेंट करते हुए धीमे से तब मुस्कुरा दिए जब एक रैप वॉक में मॉल फंक्शनिंग हो गयी. कुछ सेकेण्ड की वो मुस्कुराहट ऐसी चुभी न कलेजे में कि आज तक उनकी तमाम अच्छी बातें, भाषणों से मुतास्सिर न हो सकी. नज़र में चढ़ने के लिए आपको बहुत मेहनत करनी होती है लेकिन नज़र से गिरने का बस एक लम्हा होता है.
हैरत है कि हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहाँ हमें यह सब नहीं दिखता. महसूस नहीं होता. शिक्षा ने सिर्फ आपको ऑफिसर नहीं बनाना था, मोटा पैकेज, अच्छी सुविधाओं की राह नहीं खोलनी थी उसे बताना था कि किसी के गिरने पर हंसना गुनाह है, दौड़कर उसकी मदद करना जरूरत है. हालाँकि दौड़कर मदद करने को भी बाज़ार ने किस तरह मार्कशीट के नम्बरों में तब्दील किया कि मदद से मदद का भाव गुम हो गया, संवेदना क्षरित हो गयी और दौड़ना बचा रह गया. यह एक अलग ही विषय है जिस पर फिर कभी विस्तार से बात होगी. अभी तो सवाल यह है कि किसी के अपमान को हंसी का सामान बनाना तो क्रूरता है न? लेकिन इस खेल में हम सब शामिल हैं. बुरी तरह शामिल हैं.
पिछले दिनों पूरी दुनिया में जोर-शोर से महिला दिवस मनाया गया. हर साल मनाया जाता है. हर साल मेरे मन में यह ख्याल आता है कि काश हम स्त्री विरोधी चुटकुलों पर हंसना और स्त्रियों को निशाना बनाकर दी जाने वाली गालियों का उपयोग बंद कर पाते तो भी बहुत बड़ी राहत होती. लेकिन इस खेल में तो स्त्री पुरुष सब शामिल हैं. आधुनिक और बोल्ड होने के नाम पर स्त्रियाँ भी स्त्री विरोधी भाषा का उपयोग कर रही हैं. क्या हम सच में कुछ देख, समझ पाने की क्षमता विकसित नहीं कर पाए हैं?
फिर तो अभी बहुत लम्बा सफर बाकी है कि इंसानियत की बुनियादी तालीम अभी हमसे दूर है. यह जरूर लगता है कि अगर शिक्षक बिरादरी तनिक सचेत हो पाती इस ओर तो कुछ उम्मीद की जा सकती है. लेकिन हर उम्मीद का बोझ शिक्षकों पर डालना भी कहाँ का न्याय है आखिर वो भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं. क्या सचमुच, इस तर्क के पीछे शिक्षक बिरादरी को छुप जाने की रियायत है या ठहरकर सोचने का वक़्त है कि कैसे इस तरह के व्यवहार की जड़ को ही हटाना होगा. हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान सीखते हुए कब और कैसे व्यवहार को नरम बनाये रखने वाली संवेदना कहीं छूट जाती है. इस तरह का व्यवहार शुरू स्कूल से नहीं होता. इसकी जड़ें, घरों में, परिवारों में, समाज में गहरे धंसी हैं लेकिन शायद स्कूलों में इस तरह के व्यवहार की निराई संभव है. इसके लिए सबसे पहले तो शिक्षक बिरादरी को अपने भीतर जमी खर-पतवार की निराई करनी ही होगी.
मेरी उम्मीद नयी पीढ़ी से सबसे ज्यादा है. बच्चे जब मिसोजिनी को समझ पाते हैं, जब वो टोकते हैं कि यह कोई चुटकुला नहीं है, यह क्रूरता है. कैसे किसी की सेक्सुअलिटी को रिस्पेक्ट देना है, कैसे और कब कोई जजमेंटल हो जाता है. कैसे शिक्षक के उदाहरण इन्सेंसटिव हैं, रेसिस्ट हैं तो लगता है हाँ, यही तो होना था. इसी की जरूरत है. इस पीढ़ी को यह जिम्मा लेना है और हमें भी समझना है कि वो क्या कह रहे हैं, क्यों कह रहे हैं. हमसे चूक कहाँ हो रही है.
समय है बहुत सारा अनलर्न करने का. अपने व्यवहार को उलट-पुलटकर देखने का. यक़ीन मानिए अगर यह प्रक्रिया शुरू हो गयी तो जिन बातों पर अभी हंसी आती है न उन पर रोना आने लगेगा और दुःख होगा कि कितना कम जानते थे हम अब तक.

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