Thursday, April 14, 2022

ये बूँदें कैसी हैं...

अपने होने की ख़ुशबू, अपने होने का एहसास तनिक और करीब सरक आया है. शब्दहीनता का जादू धीरे-धीरे खुल रहा है. यह जादू किसी तिलिस्म सा है, खींचता है अपनी ओर. जाने नहीं देता. एक डर बना रहता है कि एक रोज यह जादू टूट जायेगा. कोई शब्द आयेगा और इस नर्म जादू को तोड़ देगा. फिर क्या होगा? इन दिनों आवाज़ों से दूर रहना भला लगता है. लेकिन भीतर की आवाज़ों के साथ रहना बुरा नहीं लगता. सुन पा रही हूँ कि भीतर की आवाज़ें भी शोर नहीं हैं. संवाद नहीं हैं. कोई धुन है मध्धम सी जो थामे हुए है. 

पूरा शहर एक मादक खुशबू में डूबा हुआ है. रास्तों से गुजरते हुए जैसे कोई नशा उतरता जाता है भीतर. नए पत्तों की खुशबू, जंगल की खुशबू, फूलों की खुशबू और शायद इन्हीं में कहीं घुली है मेरे होने की खुशबू भी. मैंने अपने रास्तों को लम्बा कर लिया है और गति को धीमा. ख़ुशबू की संगत पर रास्ते लम्बे और लम्बे होते जाएँ तो इससे भला क्या होगा.  

सुख क्या है सिवाय इल्यूजन के. लेकिन इसमें आकर्षण बहुत है. हम जैसे ही सुख और दुःख से विरत करके खुद को एक ऐसी जगह रखते हैं जहाँ सूरज ढले तो अपनी पूरी धज से सूरज ही ढले, जहाँ झरनों की झर झर में झरे अपना मन भी कि कोई संवाद, कोई स्मृति इसमें शामिल न हो. हम इन दृश्यों को संवादों से, किसी के होने की ख्वाहिश से, खुद को उन दृश्यों में समाहित करने के लोभ से मैला कर देते हैं. लेकिन यह समझने में एक उम्र खर्च हो जाती है. 

सुख के छोटे-छोटे बुलबुले घेरे रहते हैं. मैं उन्हें देख मुस्कुराती हूँ. उनसे कहती हूँ, नहीं आऊंगी तूम्हारी तरफ कि तुम्हारा यह खेल अब समझ चुकी हूँ. मेरा ध्यान सूरज की तरफ है और कोई बुलबुला मेरे काँधे पर आकर बैठ जाता है. मैं उस पर ध्यान नहीं देना चाहती. जानती हूँ जैसे ही ध्यान दूँगी वो टूट जायेगा. मैं बेध्यानी में ही उसका ध्यान किये हूँ. खुद को भरमा रही हूँ. डूबते सूरज ने मेरी मुस्कुराहट को थाम लिया है. जाते-जाते वो मुझे बारिश थमा गया है...

खिड़की के बाहर तो सिर्फ बादल थे. मेरे चेहरे पर ये बूँदें कैसी हैं...

4 comments:

Onkar said...

बहुत सुंदर

Sweta sinha said...

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

Kamini Sinha said...

भीतर की आवाज़ों के साथ रहना बुरा नहीं लगता. सुन पा रही हूँ कि भीतर की आवाज़ें भी शोर नहीं हैं. संवाद नहीं हैं. कोई धुन है मध्धम सी जो थामे हुए है. "

बाहरी आवाज से परे भीतर की आवाज को सुनना बेहद सुखद अहसास है, लेकिन ये आवाज़ सुनने में सब सक्षम कहां है। सादर नमस्कार आपको 🙏

Jyoti khare said...

मन के भीतर भर बैचेनियों के सच को
बेहद खूबसूरत अंदाज़ और अल्फाज में चित्रित किया है
कमाल
वाह