Sunday, August 29, 2021

डुबकियाँ



एक रोज खेल-खेल में फेसबुक अकाउंट डीएक्टिवेट किया था सोचा था कुछ घंटों में वापस लौट आऊंगी और कई महीनों तक वापस लौटने का मन ही नहीं किया. यह कई बरस पुरानी बात है. फिर एक बार बिना डी एक्टिवेट किये ही कुछ दिन फेसबुक से दूर रहने का मन बनाया और ये कुछ दिन लम्बे होते गए. सुख हुआ. फिर ऐसा अक्सर होने लगा. लम्बे समय से सोशल मीडिया पर आमद सिमट रही थी. फिर एक रोज आँख में दर्द की शिकायत हुई और एकदम से स्क्रीन से मुंह मोड़ लिया. सच कहती हूँ हर बार सुख हुआ. कि एक क्लिक की दूरी पर था एक संसार बस इच्छा की देर थी. जैसे जेब में ओपन टिकट हो लेकिन मन रम जाए वादियों में कि टिकट इच्छा की राह ताकते-ताकते मुरझा जाए.
इस दौरान मैंने न पढ़ा, न लिखा कुछ. न देखा ही कुछ. न बातें की किसी से. न वाट्स्प, न फेसबुक. इस दौरान सुनना खूब हुआ. चुप की आवाज़ें, फूलों के खिलने की आवाज़ें, पत्तियों के झरने की आवाज़ें, अपने भीतर की आवाजें तो हर वक़्त साथ रहीं. बाहर के कोलाहल में घिरे-घिरे भीतर के कोलाहल का पता ही न चला था. इस दौरान स्मृतियों की आंधियां भी खूब चलीं. सोचना बढ़ा और उसने नम किया. भीतर की नदी में खूब डुबकियाँ लगायीं.
ऐसे समय बिताने के बारे में कभी सोचा नहीं था. लेकिन ये अनजाना सुख रहा. यह किसी पाबंदी से करना पड़ता तो तड़प ही पड़ती शायद लेकिन यह मैंने खुद चुना और सुख हुआ. यह समय सिर्फ बाहरी आवाजों से दूर रहने का नहीं बाहरी दृश्यों से दूर रहने का भी था. सारे फूल भीतर खिल रहे थे, सारी बारिशें भीतर थीं, सारे पंछी भीतर कलरव कर रहे थे.
ऐसा नहीं, कि बाहरी दुनिया की खबर नहीं थी. खबरों ने उदास भी किया कभी सुख भी दिया. उदासी और सुख को जज्ब करना बढ़ा. इन दिनों दोस्त साथ है. वो भी मेरे चुप के करीब बैठ जाती है.
संवाद स्थगित हों तो असल संवाद शुरू होता है
दृश्य स्थगित हों तो कितना कुछ दिखना शुरू होता है.

1 comment:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

संवाद स्थगित हों तो असल संवाद शुरू होता है
दृश्य स्थगित हों तो कितना कुछ दिखना शुरू होता है.

एक दम सटीक बात। कई बार सोशल मीडिया के शोर में हम इतने डूब जाते हैं कि खुद की आवाज को भूल जाते हैं। कई बार सब रोको तो असल में चीजें चलने लगती हैं।