कोई घुटता हुआ दुःख सरक रहा है साँसों में
बाहर निकलने को व्याकुल है दर्द भरी चीख
जिसकी कोई जगह नहीं अभी बाहर
फफक कर रोने की इच्छा को रौंद दिया है समय ने
कि आँखों में आंसुओं की नहीं
बचे हुओं को बचाने की कोशिशें हैं
भारी होती सांसों पर भारी है
खुद को सहेजने की जिम्मेदारी
कि आँखों में आंसुओं की नहीं
बचे हुओं को बचाने की कोशिशें हैं
भारी होती सांसों पर भारी है
खुद को सहेजने की जिम्मेदारी
खिड़की पर बैठी उदास चिड़िया पूछती है
क्या सचमुच उम्मीद जैसा होता है कोई शब्द
क्या सचमुच समय के पास होता है
क्या सचमुच उम्मीद जैसा होता है कोई शब्द
क्या सचमुच समय के पास होता है
हर घाव का मरहम है...?
2 comments:
बहुत सुंदर प्रस्तुति
हृदयस्पर्शी।
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