Monday, April 19, 2021

सब ठीक हो, सब ठीक हों...



रोज खुद को टटोलती, अपनी सांसों की आवाज सुनती, नब्ज पर कान धरकर सुनती मध्धम हलचल. रोज दिल की धड़कनों की आवाज पर ध्यान लगाती. सोचती, ठीक ही तो हूँ एक जरा सी हरारत ही तो है, बस जरा सी खराश ही तो है गले में. ऐसी न जाने कितनी हरारतों को अनदेखा कर दौडते-भागते काम पर मुस्तैदी से जुटी रही हूँ. लेकिन इस बार इसी हरारत ने जान सांसत में डाल रखी थी. टेस्ट के लिए इधर-उधर भटकते हुए, लम्बी लाइन में लगते हुए डर बढ़ना शुरू हुआ कि इस अफरा-तफरी का हिस्सा बनते हुए न हुआ होगा, तो हो जाएगा कोविड. डर के साथ घर वापस लौट आई. अब बुखार पहले से ज्यादा डरा रहा था. चार दिन बाद टेस्ट हुआ और खैरियत यह हुई कि रिपोर्ट उसी दिन आ गयी और रिपोर्ट निगेटिव थी. निगेटिव शब्द ने पहली बार राहत दी. वो चार दिन कैसे गुजरे मैं ही जानती हूँ. मन को बुरे ख्यालों से दूर रखने के जितने उपाय हो सकते थे सब किये कुछ काम न आया. सबसे ज्यादा चिंता बेटू की हुई कि अगर मुझे एडमिट होना पड़ा तो उसका ख्याल कौन रखेगा. कैसे संभालेगी वो खुद को, अकेले.

यह कितना छोटा सा वाकया था. लेकिन इसने मुझे हिला कर रख दिया था. लेकिन उनका क्या जो कोविड की चपेट में आ गए हैं, परिवार के परिवार जूझ रहे हैं, कुछ निकल आये हैं कुछ जूझ रहे हैं. चारों तरफ तबाही का मंजर है. जैसे मौत बरस रही है. एक परिवार की तीन बच्चियां जिन्होंने कुछ ही समय पहले एक सडक हादसे में पिता को खोया था अब माँ को खो दिया. कोविड का यह कहर उन मासूम बच्चियों के जीवन पर हमेशा के लिए चस्पा हो गया. हर रोज न जाने कितने जानने वालों के गुजर जाने की खबरों के बीच रोज के काम निपटाते हुए सोचती हूँ जो गुजर गये उनका दोष क्या था आखिर. उन्हें सचमुच वायरस ने मारा या अव्यवस्था ने?

शब्द निष्प्राण हैं, यह भी कहते नहीं बनता कि सब ठीक हो जायेगा...हालाँकि दिल इसी दुआ से भरा है कि सब ठीक हो जाए, सब ठीक हो जायें. लेकिन सब ठीक कहाँ होता है. जो गुजर गए उनके परिवार क्या इस सब ठीक को कभी भी महसूस कर पायेंगे. कितनी ही हिम्मत कितना ही धैर्य सब कम पड़ रहा है. होंठ बुदबुदा रहे हैं...सब ठीक हो, सब ठीक हों...

1 comment:

PRAKRITI DARSHAN said...

सच बहुत गहरा वाकया है...। जीवन जैसे इन दिनों ठहर सा गया है।